शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

समकालीन लघुकथा:सामान्य अनुशासन-2/बलराम अग्रवाल



(गतांक से आगे…)
दो अंकों में समाप्य लेख की समापन किस्त


कथा-भाषा, परिवेश
कुछेक वाक्यों को जोड़कर लिख देने या बोल देने मात्र को भाषा नहीं कहा जाता, इस बात को हम सभी जानते हैं। भाषा एक संस्कार है जो न केवल परिवार और परिवेश से प्रभावित होती है बल्कि शिक्षा, अध्यवसाय व अभ्यास से परिष्कृत व पुष्ट होती है। लघुकथा की भाषा को कथ्य-परिवेश से विलग नहीं होना चाहिए। उसमें सादगी, सहजता, लेखकीय आडम्बरहीनता और जनसाधारण के लिए ग्राह्यता का गुण तो होना ही चाहिए लेकिन सपाट-बयानी की हद तक नहीं। काव्य-तत्वों का प्रयोग लघुकथा की भाषा को आकर्षक एवं ग्राह्य बनाता है। चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथाएँ इस तथ्य का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं। लेकिन लघुकथा में काव्य-तत्व भाषा-प्रयोग तक ही सीमित रहने चाहिए, उन्हें कथा पर हावी नहीं होने देना चाहिए क्योंकि मूलत: तो लघुकथा कथा ही है, कविता नहीं। कथा साहित्य की उपन्यास, कहानी व लघुकथाइन तीनों ही विधाओं की समान भाषा नहीं हो सकती क्योंकि इन तीनों का कथा-संस्कार अलग है। कहानी को उपन्यास की भाषा में और लघुकथा को कहानी की भाषा में अगर लिखा जायगा तो वे समसामयिक व जन-भावनाओं को अभिव्यक्ति देने के बावजूद भी पाठक पर यथेष्ट प्रभाव डालने में अंशत: ही सक्षम सिद्ध होंगी; जब कि उपन्यास की भाषा में लिखा उपन्यास, कहानी की भाषा में लिखी कहानी और लघुकथा की भाषा में लिखी लघुकथा ही पाठकों के बीच सराहनीय स्थान बना लेने में सक्षम हो सकती है। एकदम यही बात शैली एवं शिल्प के बारे में भी कही जा सकती है। पिछले ही दिनों की बात है कि एक बुजुर्ग कथाकार ने सगर्व मुझे लिखा कि उन्होंने 17 प्रकार के शिल्प-प्रयोग लघुकथा-लेखन में किये हैं। वस्तुत: तो भिन्न-भिन्न कोणों से पात्रों का नख-शिख वर्णन करने को वे शिल्प-प्रयोग बता रहे थे जबकि लघुकथा आवश्यक रूप से पात्र के नख-शिख वर्णन की अनुमति लेखक को नहीं देती क्योंकि यह वस्तु प्रेषण की स्थूल नहीं, सूक्ष्म विधा है। इसमें घटना की स्थूलता कम, पात्र एवं परिस्थितियों से जुड़े मनोभाव अधिक अर्थवान होते हैं। दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि हिन्दी लघुकथा को अकेले ही इतने शिल्पों से सँवारने वाले ऐसे महान प्रयोगकर्ता को ज्यादा लोग नहीं जानते। क्यों? इसलिए कि लघुकथा को जन-साधारण से जुड़ने के लिए अभी भी प्रयोगधर्मिता की तुलना में सहज अभिव्यक्ति की अधिक दरकार है। लघुकथा में भाषा और परिवेश को लेकर सन् 1945 में प्रकाशित लघुकथा संग्रह सदियाँ बीतीं की शीर्षक लघुकथा सदियाँ बीतीं के बारे में उसके लेखक माहेश्वर का यह कथन  द्रष्टव्य है—‘उसकी भाषा प्रसाद की भाषा जैसी थी और परिवेश मध्ययुगीन, मगर बात आधुनिक थी। समकालीन लघुकथा की भाषा, परिवेश और बात यानी कथानक और कथावस्तुसब-कुछ आधुनिक होना चाहिए। यही कारण है कि कभी कथ्य के बिंदु पर तो कभी भाषा के बिंदु पर मैं आठवें दशक के पूर्वार्द्ध में लिखित स्वयं अपनी लौकी की बेल सरीखी कुछ लघुकथाओं को सौ प्रतिशत समकालीन नहीं कह सकता।

शिल्प और शैली
लगभग प्रारम्भ से ही पारम्परिक शिल्प के बजाय समकालीन कहानी के शिल्प को ही लघुकथा-लेखन में अपनाया जा रहा है। मुझे लगता है कि पारम्परिक लघुकथा से समकालीन लघुकथा की भिन्नता का एक उल्लेखनीय अवयव यह शैली-वैभिन्य भी है। समकालीन संवेदनाओं को समकालीन पाठक के मन-मस्तिष्क तक सहज सम्प्रेषित करने के लिए आवश्यक भी था कि पुरातन शिल्प से चिपके न रहकर कथा कहने के समकालीन शिल्प को अपनाया जाय। यद्यपि लघुकथा को पारम्परिक शिल्प में पढ़ने के अभ्यस्त कुछेक पाठकों-आलोचकों को अपने मस्तिष्क में इसे नये शिल्प में पढ़कर हलकी-सी दरक अवश्य महसूस हुई हो सकती है, लेकिन कुल मिलाकर परिणाम समकालीन लघुकथा के पक्ष में ही रहा। यह अब इसी शिल्प में जानी, पहचानी और स्वीकारी जाने लगी है। शिल्प के उद्धरणस्वरूप लघुकथाओं को गिनाना न तो आवश्यक है और न सम्भव क्योंकि लगभग समूचा समकालीन लघुकथा-लेखन कहानी के शिल्प को अपनाते हुए हो रहा है।
जहाँ तक शैली का सवाल हैहर लेखक की अपनी स्वतन्त्र शैली हो सकती है। फिर भी इतना अवश्य कहा जा सकता है कि कथाकार को लघुकथा कहने की किसी एक ही शैली से चिपके न रहकर अपने लेखन को रोचक व पठनीय बनाए रखने के लिए शैलीगत-प्रयोग करते रहना चाहिए। शैली का जितना आकर्षक और अनूठा प्रयोग लेकर चैतन्य त्रिवेदी अवतरित हुए थे, वह अभूतपूर्व था। लघुकथा-लेखन में पारस दासोत की भी अपनी अलग ही शैली है जो गद्यगीत से मिलती है। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, शंकर पुणताम्बेकर जैसे व्यंग्यकारों ने लघुकथा-लेखन की व्यंग्य-शैली को ही अपनाया है।

वाक्य-संयोजन एवं शब्द-प्रयोग
उपन्यास, कहानी और लघुकथा में जिस प्रकार भाषागत अन्तर के प्रति लेखक को सचेत रहना चाहिए, उसी प्रकार वाक्य-संयोजन के प्रति भी सचेत रहना चाहिए। कभी-कभी देखने में यह आता है कि लघुकथा में चार-पाँच पंक्तियों का पूरा पैरा एक ही वाक्य से बना होता है। कभी-कभी इस वाक्य से आगे भी कथा का विस्तार होता है परन्तु कभी-कभी इस एक पैरा को ही लघुकथा कह दिया जाता है। ऐसा कब होता है? लघुकथाकार जब अपनी बात को कहने की शीघ्रता में या आकुलता में होता है तब वह इस असावधानी से गुजरता है। यह स्थिति हमेशा ही गलत हो, ऐसा नहीं है। बिम्ब अथवा प्रतीक-योजना की प्रस्तुति के वशीभूत संयुक्त वाक्यों का अतिशय प्रयोग भी लघुकथाकार को अक्सर करना पड़ जाता है लेकिन अधिकतर इस स्थिति से बचना ही श्रेयस्कर है। लघुकथा में वाक्य छोटे, सार-गर्भित और संकेत-प्रधान होने चाहिएँ। यहाँ मैं जानबूझकर अर्थ-गर्भित और अर्थ-प्रधान जैसे आम चलन के शब्द-युग्मों का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ क्योंकि मैं नहीं समझता कि जानबूझकर कोई भी लेखक अर्थहीन शब्दों का प्रयोग अपनी लघुकथा में करना चाहेगा। हालाँकि अतिरिक्त उत्साह में भरकर लेखन करने के कारण कई बार ऐसे शब्द-प्रयोग भी लघुकथाओं में देखने को मिल जाते हैं जो अर्थ का अनर्थ कर देते हैं। इस विषय पर मेरा लेख हिन्दी लघुकथा में शब्द-प्रयोग संबंधी सावधानियाँ पढ़ा जा सकता है जो लघुकथा के वैचारिक पक्ष पर केन्द्रित मेरे ब्लॉग लघुकथा-वार्ता(http://wwwlaghukatha-varta.blogspot.com) पर उपलब्ध है। लघुकथा में शब्द-संयोजन पात्र एवं परिवेश के अनुकूल, सहज, स्वाभाविक व सरल तो होना ही चाहिए लेकिन उसे हमेशा ही निहित-अर्थों से हीन सपाट नहीं रह जाना चाहिए। संकेत-प्रधानता लघुकथा की शब्द-सीमा को नियंत्रित करने वाला प्रमुख अवयव है, यह याद रखना  चाहिए। वाक्यों में शब्द-संयोजन को स्पष्ट करने की दृष्टि से में एक उदाहरण प्रस्तुत करना चाहूँगा। एक वाक्य है—‘अपनी बाइक का अगला पहिया उसने जानबूझकर सड़क-किनारे सोये हुए कुत्ते के पैर पर चढ़ा दिया। इस वाक्य से यह भी ध्वनित होता है कि कुत्ता सड़क-किनारे जानबूझकर सोया है, जबकि कथाकार यह नहीं कहना चाहता। इसी वाक्य को यों पढ़कर देखें—‘अपनी बाइक का अगला पहिया जानबूझकर उसने सड़क-किनारे सोये हुए कुत्ते के पैर पर चढ़ा दिया। शब्द-संयोजन को समझाने की दृष्टि से मैं समझता हूँ कि यह एक उदाहरण भी यथेष्ट है।

दृश्य-संयोजन एवं संवाद-योजना
                                                               चित्र:बलराम अग्रवाल
लघुकथा-लेखन में नए आने वाले लेखक आम तौर पर विवरणात्मक प्रस्तुतियाँ देते है। उदाहरणार्थ अशोक मिश्र की लघुकथा बिरादरी में इज्जत। विवरणात्मक शैली में लिखी गई अधिकतर लघुकथाओं के द्वारा वस्तु सिर्फ प्रेषित होती है, संप्रेषित नहीं; और इस तरह एक स्तरीय संवेदना की दयनीय मृत्यु हो जाती है। वस्तु को इस दयनीय मृत्यु से बचाने के लिए आवश्यक है कि परस्पर वार्तालाप, एकालाप आदि के रूप में लघुकथा में किंचित् नाट्य-तत्व का संयोजन किया जाय। घटना-कथा को नैरेशन-केन्द्रित न रखकर दृश्य-बंधों में संयोजित किया जाय अर्थात् लघुकथा को सुनाने की बजाय दिखाने के प्रयत्न अधिक किये जायँ। इसका सबसे आसान तरीका हैघटना को संवादों के माध्यम से आगे बढ़ाना। समस्त संवाद जबरन थोपे हुए, जनवाद-प्रगतिवाद अथवा सुधारवाद जैसे नारों का प्रतिरूप न होकर परिवेश एवं परिस्थिति के अनुरूप सहज वार्तालाप की प्रतीति देने वाले होने चाहिए। समकालीन लघुकथा में संवाद-शैली भी काफी प्रचलित एवं लोकप्रिय है और लगभग सभी समकालीन लघुकथा-लेखकों ने गाहे-बगाहे इस शैली को अपनाया है; फिर भी, मेरा सुझाव है कि कथा-लेखन में परिपक्वता प्राप्त करने से पूर्व लेखक को इस शैली को अपनाने से बचना चाहिए। इसके प्रस्तुतिकरण की अधिकता कथाकार को चिंतनशील प्रस्तुति से हटाकर भावुक प्रस्तुति की ओर तो ठेलती ही है, कथा-परिवेश पर नजर रखने के अभ्यास से भी काटती है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की अद्भुत संवाद संवाद-शैली की सम्भवत: प्रथम उत्कृष्ट लघुकथा है।

शीर्षक
समकालीन लघुकथा में उसका शीर्षक एक प्रमुख अवयव की भूमिका निभाता है। यह इसकी संवेदनशीलता व उद्देश्यपरकता का वाहक होता है और कथ्य का हिस्सा बनकर सामने आता है। शीर्षक को रचना लिखने/पूरी कर लेने से पहले निर्धारित कर लिया जाय या उसके बाद निर्धारित किया जायइस बारे में कोई स्थाई नियम नहीं बनाया जा सकता। अनेक स्तरीय कथाकार शीर्षक निर्धारण के मामले में हफ़्तों और महीनों कसरत करते मिल जाएँगे। ऐसा इसलिए नहीं कि वे रचना को शीर्षक देने में अक्षम रहते हैं, बल्कि इसलिए कि रचना की सम्प्रेषणीयता में वे शीर्षक की भूमिका से परिचित होते हैं और सचेत रवैया अपनाना चाहते हैं। शीर्षक व्यंजनापरक भी हो सकते हैं और चरित्र-प्रधान भी। उन्हें काव्यगुण-सम्पन्न अर्थात् संकेतात्मक अथवा यमक या श्लेष ध्वन्यात्मक भी रखा जा सकता है। बजाय इसके कि शीर्षक पूरे कथानक का, यहाँ तक कि कथ्य का भी आभास पाठक को दे दे उसे पाठक में रचना के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला होना चाहिए। बददुआ(रमेश बतरा), रंग(अशोक भाटिया), गोश्त की गंध, ठंडी रजाई, बैल(सुकेश साहनी), साँसों के विक्रेता, मैं छोनू(कमल चोपड़ा), पेट सबके हैं, तुम्हारे लिए(भगीरथ), बहू का सवाल(बलराम), जगमगाहट(रूप देवगुण), अदला-बदली(मालती महावर), मन के साँप(सतीशराज पुष्करणा), कोहरे से गुजरते हुए(जगदीश कश्यप), अघोषित पराजय(कुलदीप जैन), ऊँचाई(रामेश्वर काम्बोज हिमांशु), हिस्से का दूध(मधुदीप), कथा नहीं(पृथ्वीराज अरोड़ा), आँखें(अशोक मिश्र),  मकड़ी, बाँझ(सुभाष नीरव), लोहा-लक्कड़, चपत-चपाती(अंजना अनिल) आदि सैकड़ों शीर्षकों को आज सटीक एवं रचना के प्रति पाठक में जिज्ञासा जगाने वाले शीर्षक के तौर पर प्रस्तुत किया जा सकता है।

लेखकविहीनता
नौवें दशक के अन्तिम वर्षों की बात है। फोन पर एक आपसी बातचीत के दौरान डॉ॰ कमल किशोर गोयनका ने मुझे सुझाया कि लघुकथा एक लेखकविहीन विधा है। मैंने इस वाक्य के निहित-अर्थ को न समझकर स्थूल-अर्थ को ग्रहण किया और इस अवधारणा से असहमति को एक लेख में लिख डाला। बाद में बहुत-सी कहानियों और लघुकथाओं का अध्ययन करने पर मुझे डॉ॰ गोयनका के कथन का निहित-अर्थ समझ में आया। उनका आशय था कि लघुकथा में लेखक को स्वयं उपस्थित नहीं होना चाहिए, यह लेखकविहीन विधा है। अपने अध्ययन के दौरान मैंने पाया कि उपस्थित होने के अवगुण से कुछेक कहानियों में स्वयं प्रेमचंद भी अपने-आप को नहीं रोक पाए हैं; लेकिन वह कहानी के उन्नायकों में थे। इस तरह के सिद्धांत रचना के आकलन के उपरांत आलोचक बाद में तय करते हैं, कथाकार स्वयं अक्सर नहीं। जिन दिनों गोयनका जी से बात हुई थी, लघुकथा में लेखक की उपस्थिति अबोधतावश बहुतायत में हो रही थी। आज स्थिति में काफी सुधार है। नए-पुराने प्रत्येक लेखक को इस सिद्धांत का कि लघुकथा में लेखक की उपस्थिति नहीं होनी चाहिए सप्रयास अनुसरण करना चाहिए। हालाँकि यह भी सच है कि अपनी हर रचना में लेखक परोक्षत: उपस्थित रहता ही है।

चित्र:बलराम अग्रवाल                                               
सम्पूर्णता
इस प्रकार हम देखते है कि समकालीन लघुकथा न केवल कथा बल्कि नाटक और काव्य के तत्वों को भी स्वयं में समाहित करके चलने वाली सम्पूर्ण गद्य-कथा है।  यहाँ सम्पूर्ण से क्या तात्पर्य है? कम शब्दों में बस यह कि आप एक ऐसे फोटो की कल्पना कीजिए जिसे छोटे आकार में इस कुशलता से निकाला गया हो कि उसमें चित्रित व्यक्ति अथवा परिवेश(कथा के संदर्भ में मनोभाव भी) का कोई भी डिटेल दबने न पाया हो और एन्लार्ज़ करने पर जिसका सिनेरियो उतना ही रहे जितना कि वह छोटे आकार में था लेकिन डिटेल्स फटने लगें। अर्थात् एक सम्पूर्ण लघुकथा अपने मूल आकार से छोटी या बड़ी करने पर प्रभावशीलता और आकर्षण की स्वाभाविक तीव्रता को खो बैठती है। विक्रम सोनी की जूते की जात, विपिन जैन की कंधामाँ की साँसें, सुशीलेन्दु की पेट का माप, कमल चोपड़ा की खेलने दो, श्याम सुन्दर अग्रवाल की स्कूल, श्याम सुन्दर दीप्ति की गुब्बारा, सतीश दुबे की 'विनियोग', बलराम की गंदी बातफंदे…, राजेन्द्र यादव की हनीमूनअपने पार, चित्रा मुद्गल की मर्द, शकुन्तला किरण की धुँधला दर्पण, अप्रत्याशित, अशोक भाटिया की कपों की कहानी सुभाष नीरव की मकड़ी, बलराम अग्रवाल की गोभोजन कथा आदि लघुकथाओं में सम्पूर्णता का गुण रेखांकित किया जा सकता है।
      समकालीन लघुकथा अब तक वस्तुत: इतना विकास कर चुकी है कि ऊपर गिनाए गए प्रत्येक बिन्दु पर अलग-अलग कथाकारों की अनेक लघुकथाओं को उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है। लेकिन लेख की मर्यादा के दृष्टिगत यहाँ वह-सब सम्भव नहीं है।
अंत में, एक महत्वपूर्ण बात अपने युवा साथियों से मैं यह कहना चाहता हूँ कि स्वरचित लघुकथा से सबसे पहले स्वयं लेखक का संतुष्ट होना आवश्यक है। उसे अपनी रचनात्मक शक्ति पर विश्वास होना चाहिए। अच्छी से अच्छी लघुकथा पर अनावश्यक विस्तार देने अथवा अपूर्ण-सी रचना प्रस्तुत कर देने का आरोप लग सकता है। रचनाकार द्वारा नियोजित सभी बिम्ब, सभी प्रतीक, सभी संकेत कभी-कभी बड़े-से-बड़े आलोचक की पकड़ में पहली ही बार में नहीं आ पाते हैं। ऐसी स्थिति में रचनाकार का आत्मविश्वास ही उसकी रचनाशीलता को और रचना को बचाए रख पाता है। अत: धैर्यपूर्वक लेखन को जारी रखा जाए, हताश होकर बैठ न जाया जाए।
('सरस्वती सुमन', देहरादून के लघुकथा-विशेषांक में प्रकाशित)

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