शनिवार, 9 जून 2012

लघुकथा लेखन के 41वें वर्ष का शुभारम्भ/बलराम अग्रवाल



दोस्तो, 1969 से प्रारम्भ कर 1971 तक कॉलेज पत्रिकाओं और एक अन्य लघुपत्रिका अरहंत (जिसका संपादन आज के सुप्रसिद्ध गीतकार और अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद के स्वामी डॉ॰ श्याम निर्मम ने अपने विद्यार्थीकाल में किया था) में प्रकाशित छिटपुट रचनाओं की बात छोड़ दूँ तो श्रीयुत अश्विनी कुमार द्विवेदी के संपादन में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली कहानी-प्रधान मासिक पत्रिका कात्यायनी पहली पत्रिका थी जिसके जून 1972 अंक में मेरी पहली लघुकथा लौकी की बेल प्रकाशित हुई।
दोस्तो,
      कात्यायनी से पहले मैं किसी भी लघु-पत्रिका से परिचित नहीं था। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नवनीत आदि कुछेक पत्रिकाओं से परिचय था लेकिन वे बड़े स्तर की पत्रिकाएँ थीं। उनमें कोई रचना भेजने का साहस करने की बात अलग, वैसी कल्पना भी मैं गँवार नहीं कर सकता था। फिर, यह शायद जनवरी-फरवरी 1972 की बात है। हुआ यों कि एक दिन गाजियाबाद से बुलन्दशहर जाने के लिए वहाँ के रोडवेज़ बस स्टैंड पर बस का इन्तज़ार कर रहा था। बसें उन दिनों कभी भी शिड्यूल के अनुसार नहीं जाती-आती थीं। बसों की संख्या भी शायद कम रही हो। राजनीतिक गुण्डागर्दियों के चलते घोर प्रशासनिक अराजकता का दौर तो वह था ही। बुलन्दशहर से आने वाली बस ही गाजियाबाद से वापस भेजे जाने का चलन-जैसा था। इसलिए बसें उधर से आएँ या इधर से जाएँ, अक्सर लम्बा इन्तजार करना पड़ता था। पढ़ने और लिखने की आदत के चलते समय काटने के लिए मैं बस-स्टैंड कम्पाउंड में ही बने बुक-स्टाल पर चला गया। वहाँ मेरी नजर कात्यायनी पर पड़ी। मैंने पत्रिका को उठाकर उसके पन्ने पलटे। उसमें मुझे छोटे आकार की कुछ कहानी-जैसी रचनाएँ देखने को मिलीं। वे रचनाएँ उसमें लघुकथा शीर्षतले छपी थीं। यद्यपि दो-तीन कहानियाँ मैं तब तक लिख चुका था जिनका प्रकाशन स्कूल-कॉलेज की पत्रिकाओं में हो चुका था; लेकिन लघुकथा शब्द से मैं परिचित नहीं था। लघुकथा, एक ऐसी कथा-विधा, जिसे उससे पहले मैंने कभी नहीं देखा था। उन कथा रचनाओं ने मुझे आकर्षित तो किया ही, कविता से अलग कहानी-जैसे एक अन्य कथा-माध्यम में अभिव्यक्त होने के प्रति आशा की एक किरण भी मुझमें जगाई। पत्रिका का मूल्य देखापेंसठ पैसे। मैंने तुरन्त उसे खरीद लिया।
      बुलन्दशहर से लौटकर मैं वापस गाजियाबाद आया और अपने तब तक के संस्कार के अनुरूप लौकी की बेल शीर्षक एक बोधकथा लिखी। मैं नहीं जानता था कि किसी पत्रिका के संपादक को रचना भेजते समय सम्बोधन-पत्र कैसे लिखा जाता है और रचना भेजने के क्या अनुशासन हैं। यों समझ लीजिए कि रचना को संपादक को भेजने के मामले में एक तरह से मैं काफी असंयत था, डरा-डरा-सा था। रचना की पहुँच सुनिश्चित करने की दृष्टि से ही नहीं, इस मानसिकता के तहत भी कि मैंने ससम्मान रचना-प्रेषण किया है, संपादक को वह रचना रजिस्टर्ड डाक से भेजी। इस काम में मेरे साढ़े तीन रुपए खर्च हुए यानी सादा डाक की तुलना में करीब-करीब दस गुनी रकम।
      उसके बाद मैं हर माह कभी पैदल तो कभी दुपहिया साइकिल से, निवास से करीब दो किलोमीटर दूर गाजियाबाद के रोडवेज़ बस स्टैंड स्थित उस बुक स्टाल पर जाता और कात्यायनी के बारे में पूछता। पत्रिका मासिक जरूर थी लेकिन सम्भवत: अर्थाभाव से जूझ रही थी। उसके अंक देर-से प्रकाशित होते थे। बुक-स्टाल से मुझे हर बार निराश होकर वापस आना पड़ता था। पूछने पर बुकसेलर ने एक बार मुझे बताया था कि कात्यायनी हर माह नहीं आती, कई-कई माह बाद ही आती है। खैर। भीतर की ललक आदमी को हताश होने से रोकती है। कात्यायनी नहीं मिलती थी, फिर भी मैं उसकी आमद के बारे में पूछने बुक-स्टाल जाता था। आज मुझे याद नहीं है कि वह पहला अंक खरीदने के बाद उसका कोई अन्य अंक मुझे मिला था या नहीं। लेकिन जून माह की एक दोपहर डाकिया मेरे जीवन का एक अनुपम उपहार लेकर आया—‘कात्यायनी का जून, 1972 अंक। मैंने पत्रिका के ऊपर से रैपर को हटाया, पत्रिका को खोलकर कहाँ क्या शीर्षक उसके अनुक्रम को देखा और खुशी से उछल पड़ा। कहानी शीर्ष तले सबसे ऊपर लौकी की बेल लिखा था। वह जून 1972 की 14वीं तारीख थी। बताने की जरूरत नहीं कि पत्रिका में सबसे पहले मैंने अपनी ही रचना को पढ़ा, एक नहीं अनेक बार। कभी मैं उसे पलंग पर बैठकर पढ़ता, कभी कुर्सी पर और कभी बाहर ग्राउंड में खड़े शीशम के, आम के, नीम के पेड़ के नीचे पड़ी खाट पर, ईंट पर, पत्थर पर बैठकर। ऐसा क्या था उसमें कि पढ़ते रहने से मन ही नहीं भरता था! ग़ज़ब की बात यह थी कि उसे घर में अपने मामा-मामी, ममेरे भाई-बहन या किसी अन्य सदस्य को दिखाने की हिम्मत मैं नहीं कर सका। डरता था।
      दोस्तो, रचना छपने पर उत्पन्न होने वाला वह रोमांच आज नहीं है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह जरूर कह सकता हूँ कि रोमांच में उतनी गर्मी आज नहीं है। कई रचनाएँ तो ऐसी भी हैं, किसी पत्रिका में जिनके छपने का पता अपरिचित प्रशंसकों या परिचितों-मित्रों के फोन के जरिए चलता है। कई बार तो यह भी हुआ है कि रचना प्रकाशित होने का पता पारिश्रमिक का मनीऑर्डर या चैक आने पर चलता है तथापि सम्बन्धित पत्र या पत्रिका मुझ तक नहीं पहुँची होती।
      बहरहाल, आज कात्यायनी और उसके यशस्वी संपादक श्रीयुत अश्विनी कुमार द्विवेदी (इन द्विवेदी जी ने ही दिसम्बर 1974 में बन्धु कुशावर्ती के सहयोग से लघुकथा चौमासिक का प्रकाशन/संपादन किया था) का आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने मुझे लघुकथा-लेखन और प्रकाशन की पहली सीढ़ी पर चढ़ने का अवसर प्रदान किया था। यहाँ यह भी बता देना आवश्यक है कि कात्यायनी के उक्त अंक में लौकी की बेल के साथ ही श्रीयुत संग्राम सिंह ठाकुर की दीपक तले अंधेरा, निजानन्द अवस्थी की एक कटु सत्य, राम सुरेश की गगनचुम्बी मकान, सुशीलेन्दु की पेट का माप, कीर्तिकुमार पंड्या की कीचड़ की मछली तथा श्रीहर्ष की संत्रास लघुकथाएँ भी थीं जिनमें सुशीलेन्दु की पेट का माप अपने समय की बेरोजगारी और आर्थिक त्रास के तले दबी-कुचली युवा पीढ़ी का शब्दश: प्रतिनिधित्व करती है और भगीरथ व रमेश जैन द्वारा 1974 में संपादित लघुकथा संकलन गुफाओं से मैदान की ओर में संकलित है। अस्तु।

5 टिप्‍पणियां:

राजेश उत्‍साही ने कहा…

मुबारक हो इतनी लम्‍बी यात्रा। सचमुच पहले रचना के छपने का इंतजार भी अपने में एक आनंद देता था।

भगीरथ ने कहा…

laghukatha sambandi jankari ke liye shukriya

सुरेन्द्र कुमार अरोरा ने कहा…

बलराम जी , बहुत दूर निकल आयें हें अब तो , पर पहली रचना सबके सामने आने का उत्साह तो अब भी वैसा ही है .हमारा बाल - मन जब तक हमारे है साथ चलता है तब तक मन भी उर्जित रहता है .... सुरेन्द्र कुमार अरोरा

सुधाकल्प ने कहा…

लघुकथा लेखन की दीर्घ व यशपूर्ण सफल यात्रा बहुत -बहुत मुबारक हो |

Shyam Bihari Shyamal ने कहा…

बधाई मित्रवर :::: 0 :::: बलराम अग्रवाल हमारे पुराने रचनाकार-साथी है... लघुकथा लेखन के आरम्भिक दौर के संगी। जिन्‍दगी और लेखन के उतार-चढ़ाव से लेकर अटकाव-भटकाव ने वर्षों हमारे बीच सन्‍नाटा बिछाए रखा लेकिन फेसबुक ने अब तो जैसे साथ-साथ रहने-जीने का मौका दे दिया है... एकदम स्‍वप्निल संसार। यह इस आभासी कही जाने वाली दुनिया का प्रत्‍यक्ष विरल सुख है। ...बलराम जी की रचना-यात्रा के चार दशक पूरे होने का अवसर मेरे लिए अत्‍यंत आह्लाद का क्षण है...