शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

समकालीन लघुकथा और मनोविज्ञान-1/बलराम अग्रवाल



                                                                                                      चित्र:बलराम अग्रवाल
हानी के उद्भव पर विचार व्यक्त करते हुए सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ॰ नामवर सिंह ने किसी कार्यक्रम में कहा था कि–‘साहित्य के रूप केवल रूप नहीं हैं बल्कि जीवन को समझने के भिन्नभिन्न माध्यम हैं। एक माध्यम जब चुकता दिखाई पड़ता है, तो दूसरे माध्यम का निर्माण किया जाता है। अपनी महान जययात्रा में सत्यसौंदर्य दृष्टा मनुष्य ने इसी तरह समयसमय पर नएनए कलारूपों की सृष्टि की ताकि वह नित्य विकास की वास्तविकता को अधिक से अधिक समझे और समेट सके। हमारी इसी ऐतिहासिक आवश्यकता से एक समय कहानी उत्पन्न हुई और अपने रूपसौंदर्य के द्वारा सत्यसौंदर्यबोध को विकसित किया।1
            समय एक बार पुन: बदल चुका है । उसके साथ ही कथा के शिल्प और विषयों में भी परिवर्तन आया है। मनुष्य की जीवनशैली ही नहीं, जीवनमूल्य भी इस परिवर्तन के घेरे में आ चुके हैं। पुराने मूल्य समाप्त हो रहे हैं। उनका स्थान असमंजस्य और अविश्वास लेते जा रहे हैं। घरघर क्या, प्रत्येक बिस्तर से सटा बुद्धूबक्सा इन अवांछनीय स्थितियों को लगातार बढ़ावा दे रहा है। पूर्व मान्यताओं और संस्कारों में अनास्था के कारण मध्यवर्गीय जीवनव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। यही कारण है कि नया मानवसमाज पुराने मानवसमाज के साथ समंजन स्थापित नहीं कर पा रहा है। कहानी पढ़कर अथवा सुनकर आज का पाठक यह नहीं पूछता कि आगे क्या हुआ?’  वह इतने भर से ही सन्तुष्ट नहीं हो पाता है। अब वह यह भी जानना चाहता है कि ऐसा कैसे हुआ?’ या ऐसा क्यों हुआ?’ उसके इन प्रश्नों का उत्तर उसे टालने वाला न होकर उसकी जिज्ञासा को शान्त करने वाला होना चाहिए।
     इस युग में ज्ञानविज्ञान की अद्वितीय प्रगति हुई है। व्यक्ति की बौद्धिक सीमा का विस्तार हुआ है और बौद्धिकता के इस युग की अनेकानेक प्रवृत्तियों ने कथा कहने की एक नई विधालघुकथाको उद्भूत किया है। सम्भवत: इसीलिए कहा गया है कि—‘नई विधा को जन्म देने के लिए या फिर उसके प्रादुर्भाव के लिए ही सही, उससे जुड़े लोगों का सिर्फ संवेदनशील होना ही काफी नहीं है।2
     यह सर्वमान्य सत्य है कि हर युग का प्रतिनिधित्व उस युग के साहित्य ने किया है। लेकिन उस युग के साहित्य की किसी विधाविशेष को स्थायित्व देने में, स्वरूपनिर्धारण में, अस्तित्वनिरूपण में उसके काल-घटनाओं का हाथ रहा है। आज की मशीनी मन:स्थिति की जन्माई कुंठा, संत्रास जैसी मनोभावनाओं के बीच समकालीन साहित्य को अपना चेहरा स्पष्ट प्रमाणित करने के लिए कुछ कम संघर्ष नहीं करना पड़ रहा है। जिस तरह कथासाहित्य और कविताओं की अपनी प्रामाणिक पहचान है, उसी तरह लघुकथा को अभी अपनी पहचान बनानी है।3
    जीवन को झकझोरने वाले सबल यथार्थ से आज के कथाकार का विशेष संबंध निर्विवाद है। उसने जीवन में छायी आदर्शवादिता को ही नहीं, उन परम्परागत मूल्यों को भी ठुकरा दिया है जो उसे जीवन को सरल प्रवाहमय बनाए रखने में बाधक महसूस होते थे। मूल्यों को ठुकराने की इस प्रवृत्ति ने एक ओर जहाँ उसको व्यावहारिकता की ठोस जमीन से जोड़ा है, वहीं कुछ हद तक उसमें अराजकता और अनुशासनहीनता को भी उत्पन्न किया है। लेकिन इस सब के बीच से ही कहीं वह वैदिक काल से चली आ रही लघुकथाको सर्वथा मौलिक रूप तथा नवीन शैली एवं शिल्प दे पाने में सफल हो सका है। उसके चिन्तन और अभिव्यक्ति, दोनों में अन्तर आया है। यद्यपि कुछेक लघुकथाओं में क्लिष्ट प्रतीकप्रयोग एवं गहनतत्वचिन्तन के कारण वे आमपाठक की पकड़ से दूर नजर आती हैं, तथापि यह भी ठीक है कि नए युग के चिन्तन की मारक एवं प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति सर्वथा सपाट शैली में पूर्णत: संभव नहीं है। ध्रुव जायसवाल के अनुसार—‘प्राय: हर शब्द में कोई न कोई रस होता है, अलगअलग ध्वनि होती है और उसका अर्थ भी तत्काल मन पर टपक जाता है। इन रसों, ध्वनियों और अर्थों को उन शब्दों के परिवेश निर्मित करते हैं। कुछ शब्दों के अर्थ इतने शाश्वत होते हैं कि उनकी अर्थवत्ता को तोड़ना कठिन हो जाता है। लेकिन जब उस शब्द की अर्थभूमि बदलने लगती है तो सहजमन दिग्भ्रमित हो जाता है।4 ध्रुव जायसवाल के इस कथन के आलोक में नि:संकोच कहा जा सकता है कि समकालीन लघुकथा ने शब्द की पारम्परिक अर्थभूमि बदलने का करिश्मा भी कुछ हद तक दिखाया अवश्य है। यही कारण है कि पारम्परिक समझ वाला पाठक उससे किंचित भ्रमित भी होता है यानी रचना के तात्पर्य को पूरी तरह समझने में स्वयं को किंचित अक्षम पाता है और दोषारोपण अपनी समझ के बजाय विधा की शक्ति पर करता है। सम्भवत: इसीलिए विधा का भविष्य उसको उज्ज्वल नजर नहीं आता है। वह यह समझ ही नहीं पा रहा है कि दोष समकालीन लघुकथा की नवीनता में नहीं उसकी अपनी पारम्परिक समझ में है।
        समकालीन लघुकथा को आधुनिक मनोविज्ञान से जोड़कर देखते हुए आशा पुष्प कहती हैं—‘यायावर मन के बीच घटने वाली क्षणिक घटनाओं में जीवन की विराट व्याख्या छिपी रहती है और इस विराट सत्य को बिम्बों में बाँध लेना ही आज लघुकथा सर्जक का उपक्रम है। संक्षिप्तता इसकी पहचान है। मन को आंदोलित करने वाली अनुभूति को डाइल्यूटकिए बिना कहना लघुकथा की विशेषता है।उनका मानना है कि––‘…और आज लघुकथाएँ जो स्वतंत्र  विधा के रूप में उभरीं, वे आज के सन्दर्भों की देन हैं।5
   चाँद मुंगेरी ने भी समकालीन लघुकथा को मानवजीवन की अनुभूतियों से जोड़कर व्याख्यायित किया है। वह कहते हैं कि—‘लघुकथा मानवजीवन की विशाल अनुभूतियों से उत्पन्न या जीवन के छोटेबड़े जीवंत अंश को साफसाफ सम्प्रेषित करने की एक अद्भुत क्षमता रखने वाली उस विधा का नाम है जो छोटेसे ताले में बन्द कीमती खजाने को दर्शाती है। एक लघुकथा में विशुद्ध जीवनबोध और विशुद्ध आत्मानुभूति का होना बहुत जरूरी है। जिस लघुकथा में ऐसी उदात्त भावनाओं की कमी होती है, वह रचनात्मक परिप्रेक्ष्य में लघुकथा कहलाने का अधिकार नहीं रखती।6
            रामनिवास मानव के अनुसार—‘लघुकथा जीवन और जगत से प्रत्यक्षत: जुड़ी है। इसने सामाजिकधार्मिक पाखण्डों, राजनीतिक प्रपंचों तथा चारित्रिक विरोधाभासों पर असरदार आघात किया है।7
           रमेश श्रीवास्तव का कहना है कि—‘मूल रूप से लघुकथा समय और जीवनखंड का सत्य है, उद्वेलन है, उत्कंठा है।उनका यह भी कहना है कि—‘लघुकथा जीवन के खंडखंड की पूर्ण सत्यता व सफल सार्थकता होती है तथा बौद्धिक प्रहार इसकी शक्ति है।8
         संतोष सरस का कहते हैं—‘मैं समझता हूँ कि किसी घटनाक्रम के कारण बदली हुई मन:स्थिति का शाब्दिक प्रारूप ही लघुकथा है, आनुभूतिक तीव्रता के कारण यह कम शब्दों में बँधकर भी साँसदार असर पैदा करती है।9
          मनोविज्ञान मोटे अर्थ में मनका विज्ञानहै। संत कबीर ने मनको मानवजीवन में किस सीमा तक प्रभावी माना है, उसकी झलक उनकी अनेक साखियों में मिल जाती है। जीवन और मन के शाश्वत संबंध को उनकी यह साखी शतप्रतिशत दर्शाती है
माया मरी न मन मरा, मरमर गए सरीर।
आसातिस्ना ना मरीं, कह गए दास कबीर।।
           तात्पर्य यह कि मन मनुष्य के शरीर का कोई अंगविशेष न होकर अदृश्य भावसंचालक अवयव है जो समूचे शरीर में व्याप्त है।
     फ्रायड द्वारा प्रतिपादित मनोविश्लेषण की सर्वप्रथम स्थापना यह है कि व्यक्ति के मानसिक जीवन के दो छोर हैं। एक छोर पर तो चेतना है और दूसरे छोर पर तंत्रिकातंत्र तथा मस्तिष्क है। उसके अनुसारव्यक्ति के शरीर के भीतर मस्तिष्क तथा तंत्रिका है, लेकिन चेतना तथा तंत्रिकातंत्र और मस्तिष्क के मध्य क्या है इसका ज्ञान किसी को नहीं है। तंत्रिकातंत्र और चेतना के मध्य जो मानसिक प्रक्रिया होती है फ्रायड ने उसको अचेतनमाना है। उसके अनुसारमानसिक जीवन एक ऐसा मानसिक यंत्र है जिसमें इदम, अहम् और परम अहम् का स्थान निश्चित है। इस मानसिक यंत्र का अधिकतर भाग इदम कहलाता है। इदम का वर्णन करते हुए उसने लिखा है कि इदम का सम्बन्ध आनुवंशिकता से है और व्यक्ति के जन्मजात गुण तथा शरीर से सम्बन्धित गुण आदि का स्रोत यह इदम ही है। व्यक्ति की वृत्तियाँ, जिनका विकास शरीर की बनावट से सम्बन्धित है और जो व्यक्ति की प्रथम मानसिक अभिव्यक्ति है वे इदम से प्रेरित होती हैं। इस प्रकार इदम मन का अज्ञात भाग है और इसमें पाये जाने वाले विचार तथा वस्तु का ज्ञान व्यक्ति को नहीं होता। इदम विवेकरहित होता है और यह व्यक्ति की दमित इच्छाओं तथा वासनाओं का आधार है। इदम का सम्बन्ध व्यक्ति की कामशक्ति से भी है जिसे फ्रायड ने लिबिडोकहा है। उसके अनुसारअहम्  इदम का वह अंश है जो बाह्य पर्यावरण से प्रभावित होकर विकसित होता है। व्यक्ति अपने जीवन में जो भी अनुभव प्राप्त करता है उनके आधार पर अहम् का विकास होता है। अहम् की विशेषता यह है कि वह चेतन है और व्यक्ति के व्यवहार को नियन्त्रित करता है तथा समयानुसार विचार के लिए प्रेरित करता है। अहम् व्यक्ति के आचारविचारों को आधार प्रदान करता है। इस प्रकार अहम् का सम्बन्ध व्यक्ति के वास्तविक जीवन से है और इसके द्वारा अचेतन मन की अवांछनीय इच्छाएँ नियंत्रित होती हैं। अहम् का एक कार्य यह भी है कि वह इदम तथा परम अहम् में आपसी संघर्ष न होने दे।
         श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार भी—‘जिस प्रकार अग्नि धुएँ से,  दर्पण धूल से तथा भ्रूण गर्भाशय से आवृत रहता है; उसी प्रकार जीवात्मा कामकी विभिन्न मात्राओं से आवृत रहता है। (वैसे ही) ज्ञानियों के नित्य शत्रु कामनारूप अग्नि के समान कभी भी तृप्त न होने वाले इस कामने यथार्थ ज्ञान को आवृत कर लिया है। इन्द्रियाँ (अर्थात् नेत्र, कान, नाक, जीभ, त्चचा, हाथ, पाँव, वाणी, गुदा एवं लिंग), मन तथा बुद्धि इस काम के निवास स्थान हैं। यहाँ रहते हुए ही यह कामज्ञान को आवृत कर इस शरीर के स्वामी को व्यामोह में डाल देता है।10
        कहने का तात्पर्य यह कि न केवल आधुनिक मनोविज्ञान के बल्कि श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार भी मानवजीवन के समस्त कार्यव्यवहार मनोशास्त्र अथवा मनोविज्ञान के अन्तर्गत आते हैं। अत: जब हम यह कहते हैं कि लघुकथा आज भी जीवन के बहुत निकट है। कभी वह जीवन की आलोचना करती है, कभी उसके रहस्यों का उद्घाटन करती है, कभी एक ही परिस्थिति में समाज के विभिन्न चरित्रों का विश्लेषण करती है, कभी अपने समकालीन संदर्भों की असंगति, विसंगति और अंतर्विरोध पर आघात करती है, कभी व्यवस्था के अशिवत्व की पहचान कराती है आदिआदि। कहने का तात्पर्य यह कि जितनी अधिक जीवन की व्यापकता है उतनी ही व्यापक लघुकथा भी है और जितना ही अंशदरअंश एवं खंडप्रतिखंड लघुकथा भी है। जीवन समग्र है तो लघुकथा भी समग्र है।…जीवन का वह अंश जो अपनी समग्रता में रहकर अपने संदर्भ और प्रसंग से परिपूर्ण हो, के चित्रण और विश्लेषण में लघुकथा एक पूरी दृष्टि है, एक सोच है, एक समझ है, एक व्याकरण है, एक अनुभव है, एक अभिव्यक्ति है। कुल मिलाकर जीवन का एक सम्पूर्ण मुहावरा है।11 तो उसका अर्थ यही होता है कि समकालीन लघुकथा का आधुनिक मनोविज्ञान से सहज ही गहरा संबंध है। 

संदर्भ:

1॰ डॉ॰ नामवर सिंह : ज्योत्स्ना(लघुकथा विशेषांक, जनवरी 1988) : पृष्ठ 12

2॰ बलराम अग्रवाल : लघुकथा की रचना प्रक्रिया:अवधअर्चना(मईजुलाई, 2000) : पृष्ठ 17

3॰ विक्रम सोनी : लघुकथाएँ:तब से अब तक:आतंक(लघुकथा संकलन) : पृष्ठ 100

4॰ ध्रुव जायसवाल : सावधान, पुलिस आ रही है : आतंक(लघुकथा संकलन) : पृष्ठ 29

5॰ आशा पुष्प : लघुकथा:एक विचार : आतंक(लघुकथा संकलन) : पृष्ठ 71

6॰ चांद मुंगेरी : लघुकथा: लघु से कथा तक : आतंक(लघुकथा संकलन) : पृष्ठ 77

7॰ रामनिवास मानव’ : पुलिस और लघुकथा : आतंक(लघुकथा संकलन) : पृष्ठ 94

8॰ रमेश श्रीवास्तव : लघुकथा:एक अवलोकन : आतंक(लघुकथा संकलन), पृष्ठ 96
9 सन्तोष सरस : नजरदरनजर : आतंक(लघुकथा संकलन) : पृष्ठ 107
10 धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।
    यथोल्बेनावृतो गर्भास्तथा तेनेदमावृतम् । ।
    आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
    कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च । ।
    इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
    एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् । ।
                                                                                 ––श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 3, श्लोक 38 से 40
11 धीरेन्द्र शर्मा : लघुकथा:परिदृश्य और चुनौतियां:आतंक(लघुकथा संकलन) : पृष्ठ 111
                                                                                                              शेष आगामी अंक में
 

1 टिप्पणी:

रूपसिंह चन्देल ने कहा…

एक सार्थक और उल्लेखनीय आलेख. इसे पढ़वाने लिए आभार.

चन्देल