दिनांक 2-12-2019 से आगे…
[इन्दौर
में सम्पन्न 'क्षितिज लघुकथा सम्मेलन-2019' में गुजरात के आणंद में रह रहे
श्री धर्मेंद्र राठवा से दूसरी बार मुलाकात हुई। पहली मुलाकात इन्दौर
में ही सम्पन्न 'क्षितिज लघुकथा सम्मेलन-2018' में हुई थी। वह
'स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी लघुकथा : समीक्षात्मक अनुशीलन' विषय पर पी-एच.
डी. की उपाधि हेतु सरदार पटेल विश्वविद्यालय वल्लभ विद्यानगर, जिला आणंद के
अंतर्गत एक महाविद्यालय में शोधरत हैं और अध्यापनरत भी हैं। इस बार उन्होंने
लगभग 30 सवालों की एक लम्बी फेहरिस्त मुझे सौंपी थी। उनमें कुछ
सवाल ऐसे भी रहे, जो मेरे सामने लगभग पहली बार आये। मैं मुख्यत: उन्हीं
सवालों के जवाब यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। दिनांक 2 दिसम्बर 2019 को उनके 2 सवालों के
जवाब दिये जा चुके हैं। आज प्रस्तुत हैं उनसे आगे के 2 अन्य सवाल और उनके जवाब—बलराम अग्रवाल]
धर्मेंद्र राठवा :
…और वर्तमान में
लघुकथा की स्थिति और भूमिका क्या है?
बलराम अग्रवाल : समकालीन लघुकथा ने
मुख्यत: अपना आकार अपनी परम्परा से ग्रहण किया है, यह निर्विवाद है। वर्तमान समय
में छपने वाली डिमाई आकार की पुस्तक में एक-दो पंक्ति से लेकर सामान्य रूप से
पठनीय फोंट साइज और सामान्य लाइन स्पेस के साथ आमने-सामने के अधिकतम दो पृष्ठों तक
इसकी आकार-सीमा मानी जा रही है; तथापि
इसका तात्पर्य यह कतई नहीं होना चाहिए कि रचना की एक-दो पंक्तियाँ अगर दूसरे पेज
से भी आगे चली गयीं तो उसे लघुकथा नहीं कहा जायेगा। यह तो रही स्थिति की बात। अब,
भूमिका; तो वर्तमान में लघुकथा की वही भूमिका है, जो किसी भी साहित्य-रूप की होनी
चाहिए। अतीत में, भले ही यह मात्र रंजन की विधा रही हो अथवा नैतिक और धार्मिक
उद्बोधन की; आज यह उद्वेलन की विधा है। आज उसी लघुकथा को श्रेष्ठ माना जाता है जो
वर्तमान समय की राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध सोचने को
प्रेरित भी करती है और बाध्य भी।
धर्मेंद्र राठवा : सर, अक्सर कहा जाता है कि लघुकथा को सकारात्मक प्रभाव वाली होना
चाहिए। हम सभी इस विचार से सहमत हैं। लेकिन यह भी कहा जाता है कि समकालीन लघुकथा
के कथ्य में, उसके निर्वाह में, स्थापना में गुणात्मक परिवर्द्धन की आवश्यकता है। मेरा सवाल
है कि इन दिनों सामने आ रही लघुकथाओं में गुणात्मकता को रेखांकित करने का आधार
क्या होगा और उस आधार को तय करने का दायित्व या अधिकार किनका होगा?
बलराम अग्रवाल : बहुत ही अच्छा
सवाल है। लघुकथा के सकारात्मक प्रभाव वाली होने पर आप एकदम स्पष्ट हैं, इसलिए उस पर बोलने
की आवश्यकता नहीं है। लघुकथा के कथ्य में, निर्वहन में, मूल्य-स्थापना में
गुणात्मक परिवर्द्धन की आवश्यकता आज लघुकथा के चिंतक-आलोचक ही महसूस नहीं कर रहे, बल्कि सामान्य
पाठकों की ओर से भी यही पुकार आ रही है। ‘कथ्य’ किसे कहते हैं, यह जानना आज के
लघुकथाकार की जैसे जरूरत ही नहीं है। लेखकों के इसी लापरवाह चरित्र के कारण लगभग
समान तरह के कथानक पाठक को झेलने पड़ रहे हैं, जिन्हें पढ़ते हुए
वह उकताहट महसूस करता है और चीख-सा उठता है कि उसे कुछ नया चाहिए। उसकी यह चीख
हमें सुननी चाहिए। यही लघुकथा में पाठक का गुणात्मक परिवर्द्धन की माँग करना है। जिस
लघुकथा में उसे अपनी यह माँग लेशमात्र भी पूरी होती दिखायी देती है, उसकी बाँछें खिल
जाती हैं, कंठ से अनायास ही ‘वाह’ फूट पड़ती है। ध्यान रखिए, गुणात्मक
परिवर्द्धन की माँग करने वाले ‘सामान्य पाठक’ से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जो
मनोरंजन के लिए राजहंस, रानू, वेद प्रकाश शर्मा
को भले ही पढ़ता हो, तृप्ति के लिए मोहन राकेश, भीष्म साहनी, कमलेश्वर आदि की
ओर आता है। स्पष्ट है कि वह ‘सस्ते’ यानी चीप और ‘स्तरीय’ यानी गुणपरक लेखन के बीच
अन्तर को अच्छी तरह जानता-समझता है। गुणपरकता को परखने का मूल आधार वे ‘मूल्य’
होते हैं, जो नैसर्गिक रूप से इस आम सामाजिक की धमनियों में दौड़ रहे
हैं। रचना पर गुणपरक होने, न होने की पहली मुहर
यह सामान्य वर्ग ही लगाता है। रचना के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह ‘आलोचक’ कहे और माने जाने
वाले प्रबुद्ध की तुलना में ‘सामान्य’ कहा और माने जाने वाला यह प्राणी बहुत पहले
कर चुका होता है, भले ही अपने मन-बुद्धि की बातों को व्यक्त करने की
साहित्यिक टर्मिनोलॉजी से वह अपरिचित ही रहता हो।
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