बद्री सिंह भाटिया |
‘लघुकथाएँ पहले भी लिखी जाती
रही हैं लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह लगभग साहित्यिक आंदोलन बन गई है। अभी किसी ने
ऐसा दावा स्पष्ट रूप से शायद नहीं किया है;
लेकिन लगता है ‘लघुकथा’ अपने लिए स्वतंत्र काव्यरूप होने का आग्रह कर रही है।’
सुप्रसिद्ध अलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी जी ने ये शब्द बलराम अग्रवाल के नए लघुकथा
संग्रह का आमुख लिखते हुए व्यक्त किए हैं। यह सही भी है। आज प्रायः यह देखा जा रहा
है कि पूरे साहित्यिक परिदृश्य में कहानी की बात कम और लघुकथा की ज्यादा हो रही है।
बलराम अग्रवाल वर्तमान समय में लघुकथा के शीर्ष हस्ताक्षर के रूप में उभर कर आए हैं।
इसलिए इनका यह 103 लघुकथाओं का संकलन ‘तैरती हैं पत्तियाँ’ अपनी वर्तमानता को सिद्ध
कर एक और कदम आगे रख रहा है। कई बार मन में सवाल उठा 103 क्यों
सौ होती या फिर माला के मनकों की तरह 108 होतीं। ऐसा तो नहीं है कि बस यही थीं।
आगे नहीं। एक सक्रिय लघुकथाकार का यह एक नया आँकड़ा समझ से परे लगता है। यह हो सकता
है कि चलो पाठको, सौ के साथ तीन
और भी पढ़ ही लो। क्या फर्क पड़ता है? लघुकथा ही तो है।
लघुकथा को एक समय
केवल 250 शब्दों की एक समय की घटना अथवा अभिव्यक्ति की रचना माना जाता रहा। कालांतर
में इसके कलेवर में परिवर्तन होता रहा और अब यह अपने 250 शब्दों के आकार को पार कर
अपनी सीमा स्वयं निर्धारित करती हैं। इस बारे में बलराम स्वयं अपने कथ्य में कहते हैं
कि ‘लघुकथा लेखक कभी भी फीता और कैंची लेकर लिखने नहीं बैठता। लिखते समय उसके जेहन
में सिर्फ कथ्य होता है जिसके चारों ओर वह एक कथानक बुनता है,
जिसे कुछेक पात्रों की मदद से जीवंत करता है।’
‘तैरती हैं पत्तियाँ’
संग्रह में छोटी-बड़ी एक सौ तीन कथाएं विभिन्न कथावस्तुओं को समेटे हुए विभिन्न सामाजिक
समस्याओं से पाठक का कम से कम समय में साक्षात्कार कराती हैं। उन्होंने समाज में राजनीति
की विभिन्न अर्विस्थतियों को उसके विभिन्न रूपों में प्रकट किया है। वास्तव में आदमी
की कोई भी गतिविधि राजनीति के प्रभाव के बिना नहीं रह सकती। इस संग्रह में अधिकांश
कथाएँ राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में रची गई हैं। ‘कहानी कुत्ते की’,
‘खबरों के सिर-पैर’, ‘एक राजनीतिक संवाद’,
‘गोपालजी की लुटिया’, ‘बंदरों की नई
खेप’, ‘मीडिया इन दिनों’,
‘मुर्दों के महारथी’ आदि कथाओं में राजनीति के भीतर की मवाद तथ्य और अभिव्यंजना
के रूप में एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पैदा करती है। ‘चलो बुलावा आया है’ कथा में... साहित्य
ही नहीं, कहीं भी पुरस्कार अब किसी निष्पक्ष निर्णायक परिपाटी के तहत नहीं बल्कि एक
तयशुदा नीति के अंर्तगत मिलते हैं। इसके लिए सत्तापक्ष का वरदहस्त प्रमुख होता है। साहित्य की ही एक और
विडम्बना और सत्ता की प्रभावान्विति को प्रकट करती कथा ‘कहानी कुत्ते की’ में उन्होंने
सम्पादक की परिस्थिति को दर्शाया है, जब छुटभैये नेता
भी उसे फोन पर धमका देते हैं। इसी प्रकार गांधी जी के तीन बंदरों की आदर्शवत्ता के
बरक्स तीन तरह की प्रक्रियाएँ आदमी के आदर्श बनकर सामने आई हैं। वह एक है जो अब आँख
बंद नहीं करता बल्कि जहाँ कहीं भी उसे उपयुंक्त लगता है,
वहाँ उंगली करना अपना धर्म समझता है। वह किसी अच्छे और सत्कार्य में सहयोग नहीं,
उसकी टाँग खिंचाई करने की कोशिश में लग जाता है। तीसरी स्थिति और भी भयानक हो गई
है। समाज में कोढ़ की तरह पनप रही है। यह आदमी की वही फितरत है जिसके तहत देश का पैसा
तक बाहर चला जाता है। करोड़ों की देनदारियाँ हैं मगर सरकार है कि उफ्ह नहीं कर पा रही।
इस कम शब्दों की कथा को मात्र बंदरों तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता बल्कि इसे एक पूरे
परिदृश्य में देखना आवश्यक होगा। राजनीति की वीभत्सता को प्रकट करती एक और छोटी कथा
है—‘दौलतखाने में दलित’। प्रायः नेता अपने किसी भी दौरे में लोकलुभावन परिस्थितियाँ
एकत्रित कर एक संदेश देते हैं कि वे आम आदमी के पक्षधर हैं। यहाँ एक पत्रकार के माध्यम
से यह सवाल पूछा गया है कि नेता जी दलितों के घर पर तो खुशी से भोजन कर विज्ञापित भी
करते हैं, मगर क्या कभी उन्हें अपने घर
पर अपने साथ पंगत में भी भोजन कराया है? यह सवाल महत्त्वपूर्ण
है। कटाक्ष यह कि आज राजनीति एक फैशन और लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ का सबब बनकर रह
गई है।
बलराम अग्रवाल
ने राजनीति से इतर मानवीय पक्ष को भी अभिव्यक्त किया है। आदमी के जीवन में प्रेम एक
महत्वपूर्ण पहलू है। इन कथाओं में ‘समंदर : एक प्रेम कथा’, ‘रॉनी’,
‘और ये...ऽ...ऽ...ऽ’,
‘गुलाब’, ‘प्रेमगली अति सांकरी’,
‘बुधुआ’, ‘रेगिस्तान’,
‘बेचारा कुल्फीवाला’, ‘जाना बसंत का’
को लिया जा सकता है। ‘समंदर : एक प्रेम कथा’ संग्रह की प्रथम कथा है। इसमें कथापात्र
अपने जवानी के दिनों के प्रेम प्रसंग को समंदर के बहाने अपनी किशोर पौत्री को उसके
जीवन के लिए एक संदेश देती है। ‘रॉनी’ कथा संवेदना की कहानी है। कुत्ते भी मानवीय प्रेम
और तिरस्कार को समझते हैं। इस कथा में उन्होंने इसी पीड़ा को अभिव्यक्त किया है। ‘प्रेमगली
अति सांकरी’ में वे मानवीय अंतस को प्रकट करते हैं। प्रेम विवाह के बाद भी यदि पत्नी
की फाइल में कुछ प्रेम पत्र मिलें, तो मानसिक प्रताड़ना
होना स्वाभाविक है। एक प्रश्न भी, कि उसने उम्र के
आखिरी पड़ाव तक वे क्यों सम्भालकर रखे होंगे?
यह प्रश्न भी है और सोच भी।
इसी प्रकार उन्होंने
वर्तमान समय की अहम समस्या और जाने कितने समय से यह पढ़ते आने की कसक कि कश्मीर भारत
और पाकिस्तान के बीच विवाद की एक जड़ है। इस जड़ की परिणति विगत वर्षों में सभी ने देखी
है। बलराम ने इस मानवीय पक्ष को भी अपनी अभिव्यक्ति का विषय बनाया है। ‘कश्मीर’,
‘बेचारा पत्थरबाज’, ‘बड़े लोग’,
‘नये रहनुमा’, ‘पाकिस्तान’ जैसी
कथाएँ इस पीड़ा और मानवीय सोच को प्रकट करती है। ‘कश्मीर’ एक प्रतीकात्मक कथा है जो
दो मूर्ख भाइयों के आपसी संवाद के माध्यम से कहीं गई है। ‘बेचारा पत्थरबाज’ बेशक हम
कश्मीर के पत्थरबाजों से या विदेशों में हो रही ऐसी घटनाओं से जोड़कर देखते हैं,
मगर यह समझने की जरूरत है कि ये पत्थरबाज वास्तव में वो नहीं,
जो दिख रहे होते हैं। किसी के दिमाग की उपज और किसी बिचौलिए के हथियार हैं। संवेदना
इतनी कि कहीं भीतर एक कसक अपने होने पर भी है। चंद पंक्तियों की यह संवादात्मक रचना
विचार करने को विवश भी करती है। इसी क्रम में ‘सेक्युलर’ कथा को भी रखा जा सकता है।
हिंदु-मुस्लिम का यह खेल लेखकों तक को भी नहीं छोड़ पाया है।
बलराम ने अपनी
कथाओं में किसानों को भी जगह दी है। ‘अनसुनी चीखें’ और ‘डूब’ ऐसी कथाएँ हैं जिनमें
किसानों की आत्महत्याएँ तो दिख रही हैं मगर वास्तविक कारण बहुत पीछे रह रहे हैं। और
यह सही भी है कि जो सामने होता है वह कई बार सही नहीं होता। एक पूरी प्रक्रिया उसके
धरातल में होती है। समय की धार यह कि हमारी राजनीति और मीडिया जो सामने है उसे ही मुद्दा
बनाते हैं।
यद्यपि जानवरों,
पेड़ों और पर्यावरणीय अन्य जीवों और स्थाई-अस्थाई दिखने वाली बेजान-सी मानव सहयोगी
अवस्थितियों पर काफी लिखा मिलता है, परन्तु लघुकथा
ने इसे अपने नए रूप में प्रस्तुत किया है। ‘दृष्टि’ पत्रिका ने तो ‘मानवेतर लघुकथा
विशेषांक’ में इन सब अवस्थितियों की सजीवता,
संवेदना को पाठकों के सामने ला दिया है। बलराम अग्रवाल की कुछ कथाएँ भी इन विषयों
पर इस संग्रह में आई है। ‘गर्दिश में गौरैया’,
‘परदादारी’, ‘वतन के पेड़-पौधे
और तितलियाँ’, ‘अकेला कब गिरता
है पेड़’ आदि कुछ रचनाओं में उन्होंने पाठक को अवगत कराया है कि ये मात्र प्रकृति में
शोभा की नहीं बल्कि सजीव संवेदनशील अभिव्यक्ति हैं।
महिला समाज की
एक मेढ़ी है। यद्यपि वह कथा, कहानी में किसी
न किसी रूप में आ ही जाती है, मगर बलराम अग्रवाल ने उनकी पीड़ा को अलग से भी अभिव्यक्त
किया है। ‘उठा लो खंजर’, ‘अपूर्णता का त्रास’,
‘बूढ़ी अम्मा’, ‘ये दुकानवालियाँ’,
‘मान का पान’ आदि कथाओं में नारी के विभिन्न रूप दृष्टव्य हैं। ‘उठा लो खंजर’ में
लेखक की चिंता समाज में दिन-प्रतिदिन महिलाओं के साथ हो रही वीभत्स घटनाओं के बारे
में चिंता व्यक्त कर पाठक का ध्यान उन सभी परिस्थितियों की ओर दिलाया है जहाँ पाँच
ही नहीं, एक साल से साठ साल की बच्चियों
और औरतों के साथ अनाचार, अत्याचार हो रहा
है।
समाज में वृद्धों
की स्थिति बदलते हुए परिवेश में चिंतनीय हो गई हैं। यद्यपि ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी
स्थिति इतनी खराब नहीं है, जितनी शहरों में।
बलराम अग्रवाल ने अपनी कथाओं में उनके बारे में भी अवगत कराया है। ‘उसकी हँसी’,
‘जिंदगी’ आदि कथाएँ इनमें गिनाई जा सकती हैं। फंतासी के रूप में लिखी ‘उसकी हँसी’
कथा समय से साक्षात्कार करा विगत और वर्तमान के संयोजन को प्रकट करती अपनी ही तरह की
रचना बनी है। एक वृद्धा कुछ समय से एक चौराहे पर वृक्ष के नीचे बैठने लगती है। खाने
का प्रबंध पास के खोमचे वाले ने पुण्य के विचार से कर दिया। समय की टूटन और खोमचे वाले
की बेटी का आना। वृद्धा से मिलना और उसके पास की चमकीली डिबिया के बारे में बताना कि
यह एक ऐसी धातु से बनी है जिस पर समय ने अपनी कालिख नहीं चढ़ने दी। वृद्धा उसे डिबिया
को खोमचे वाले की बच्ची को यह कहकर देती है कि वह ही उस डिबिया की हकदार है और स्वयं
दुनिया छोड़ जाती है। यह कैसा संयोग है और कैसी प्रतीक्षा। कौन वह बुढ़िया है और क्या
है वह बेटी? प्रश्न खटक पैदा करता है। वह
चौराहा, बुढ़िया का हँसना और बच्ची का
उसे भोजन देना सांकेतिक रूप से समय की दस्तक को ही प्रकट करते हैं। इसी प्रकार ‘जिंदगी’
कथा एक समय के एक छोटे से हिस्से को प्रकट करती एक पूरे जीवन की दास्तान ब्यान कर देती
है। बात मात्र तस्वीर की है। पिता जब भी सैर करके या बाहर कहीं से आते तो पत्नी की
तस्वीर के आगे खड़े हो बच्चों को टोकते थे,
कि तस्वीर पर धूल है... कि तस्वीर टेढ़ी है। परंतु जिस दिन उनकी तस्वीर पत्नी के
बराबर लगी, एक एहसास घर में पसर जाता है
कि कल से अब कोई टोकने वाला नहीं होगा। कम शब्दों में बहुत बड़ी बात।
एक विश्वास,
और मन कहीं पर टिका है। आस्था कहते हैं उसे। दिखती नहीं मगर होती है। है यहीं कहीं।
बस उसे क्रिया रूप में ही देखा जा सकता है। महसूस किया जा सकता है। इसी के दृष्टिगत
बलराम अग्रवाल ने ‘तैरती है पत्तियाँ’ संग्रह में ‘अपने-अपने आग्रह’,
‘अपने-अपने सुकून’, ‘आश्रमगाथा’ आदि
रचनाओं का भी सृजन किया है।
बलराम अग्रवाल
की बहुत-सी लघुकथाएँ विभिन्न प्रकार के सामाजिक धरातलों को लेकर रचित हैं कि उन्हें
किसी एक बंधन में नहीं बाँधा जा सकता। ‘छिन्न मस्तक’,
‘टॉफी’, ‘जिंदगी के मायने’,
‘नौकर और शाह’, ‘पाखण्ड’,
‘समझदारी’, ‘पुरातन इतिहास’,
‘बकरा और बादाम’, ‘मौसम की मार’
आदि कथाएँ अपने कथा वैशिष्टय के लिए एक अलग पहचान रखती हैं। ‘तीन तलाक’ के बारे में
जितना विज्ञापित है उतना भीतर ही भीतर भी कुछ अलग-सा होता है। एकाएक गुस्सा और गलतियों
का एहसास आदमी की फितरत है। ऐसा ही ‘दूसरा छोर’ बंद कमरे के भीतर की दस्तक है जो बूढ़े
इमाम का भी सच है। तलाक देना और पश्चात्ताप करना,
बस दीवारें ही नहीं सुनती। मगर दीवारों का संकट यह है कि वे कमोबेश ही सुनी बात
को विज्ञापित कर पाती हैं। इसी प्रकार ‘टॉफी’ कथा भी स्वयं को भूलने की कथा है। एक
ऐसे घाव के रिसाव को रोके रखने की, जो उसे जिंदगी
के धारे में बहते मिला था। पठनीय और मननीय भी।
बलराम अग्रवाल
ने अपने वक्तव्य में कहा भी है कि ‘तैरती है पत्तियाँ’ संग्रह की रचनाएँ हवा की हथेली
या पानी के पल्लू पर उन्मुक्त भाव से तैरती जीवित रश्मियाँ और चिनगारियाँ हैं। ये पेड़
की ही नहीं फूल की भी पत्तियाँ हैं और चाकू-छुरी
का फाल कहलाने वाली लोहे-स्टील की भी। लोक की गोद में जाकर ये ही तो ‘पाती’ में भी
तब्दील होती हैं।’ कहा जा सकता है कि इन एक सौ तीन रचनाओं पर इतने ही पृष्ठ लिखे जा
सकते हैं। यह इस पाठक की सीमा है कि उसे भी नदी के पानी के बहने की जल्दी है और बहुत
कुछ व्यक्त करने की चाह में अव्यक्त रखकर पाठक से आग्रह कि वे मेरे इस पाठ को दरकिनार
कर अपने पाठ से एक नया और अपना विचार बनाएं।
लघुकथा अपने आरम्भिक
व्यंग्यात्मकता के खोल से निकलकर विचार के सागर में प्रवेश कर निरंतर उद्वेलन करती
लहरों में तब्दील हो गई है। अपने नियम और तयशुदा ढाँचे के भीतर अपने आकार में भी वृद्धि
कर रहीं है। बस आवश्यकता इस बात की है कि कथा और कहानी में अंतर बना रहे। यह सुधी लेखकों
का दायित्व है।
समीक्षक : बद्री सिंह भाटिया, गाँव ग्याणा, डाकखाना माँगू
वाया दाड़ला घाट,तहसील अरकी, जिला सोलन-171102,
हि.प्र.
पुस्तक : तैरती हैं पत्तियाँ (लघुकथा संग्रह); कथाकार : बलराम अग्रवाल; प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स,
शाहदरा, दिल्ली-110032; ईमेल (बलराम अग्रवाल) : 2611ableram@gmail.com / (प्रकाशक) anuugyabooks@gmail.com; मूल्य : रुपये 175/-
पेपरबैक; कुल पृष्ठ : 160;
प्रथम संस्करण : 2019
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