गुरुवार, 23 जुलाई 2020

लघुकथा आलोचना की नई किताब / सुभाष नीरव


 
लघुकथा का प्रबल पक्ष : बलराम अग्रवाल ==========================

इधर 21वीं सदी के शुरूआती दो दशकों में लघुकथा और लघुकथा आलोचना को लेकर बहुत तेजी से काम हुआ है। लघुकथा लेखन से नए लेखकों का बहुतायत में जुड़ना जहां  विधा की बढ़ती लोकप्रियता को दर्शाता है तो इस विधा के आलोचनात्मक पक्ष पर  इस दौरान एक के बाद एक हुए  महत्वपूर्ण कामों ने लघुकथा की पिछली सदी की कई बरसों की चुप्पी को एक्दम तोड़कर रख दिया है। मुझे यह काम लघुकथा लेखन में बहुतायत लाने की अपेक्षा कहीं अधिक महत्वपूर्ण लगता रहा है। 21वीं सदी में लघुकथा के आलोचनात्मक पक्ष को मजबूत करने के लिए हिन्दी लघुकथा के वरिष्ठ और जाने-माने लेखकों ने काफ़ी उत्साह दिखाया है जिनमें भगीरथ परिहार, अशोक भाटिया, माधव नागदा और बलराम अग्रवाल के काम को देखा जा सकता है। इस क्षेत्र में वरिष्ठ लेखक मधुदीप द्वारा किए गए काम को भी नकारा नहीं जा सकता। मधुदीप जी ने पड़ाव व पड़ाल शृंखला के अधीन न केवल हिन्दी की मानक और श्रेष्ठतम लघुकथाओं को पाठकों के सम्मुख रखा बल्कि इस विधा के लिए नए आलोचकों को तैयार करने में महती भूमिका निभाई है। लघुकथा में उभरी नई लघुकथा पीढ़ी के लिए तो लघुकथा के आलोचनात्मक पक्ष को लेकर हुआ काम लघुकथा को गहराई से जानने-समझने में तो महत्वपूर्ण रोल अदा करेगा ही, पुरानी पीढ़ी के लघुकथा लेखकों के आग्रह-दुराग्रहों के धुंधलके भी साफ़ करेगा, क्योंकि बदले हुए समय में लघुकथा में जो बदलाव आया है, अथवा आता दीख रहा है, उसे पुराने औजारों या अवधारणाओं से नहीं समझा जा सकता। बदलता समय हमारी सोच और दृष्टि भी बदलता है और उसी नई सोच और दृष्टि के तहत ही हम नए समय की नई चीजों को समझने की कोशिश करते हैं, अन्यथा पिछड़ने का खतरा बहुत होता है।

ख़ैर, बात बलराम अग्रवाल की नई आलोचना किताब 'लघुकथा का प्रबल पक्ष' की मुझे यहाँ करनी है। 2017 में आई बलराम अग्रवाल की लघुकथा आलोचना की पुस्तक 'हिन्दी लघुकथा का मनोविज्ञान' ने चौंकाया था। यह एक बेहद खास और गंभीर पुस्तक के रूप में हमारे सामने इस नई सदी में आई। लघुकथा की जो नई पीढ़ी 21वीं सदी के पहले दो दशकों में हमारे सामने उभर कर आई, वह  लघुकथा से जुड़े बहुत से धुंधलकों के बीच सांस लेती दिखाई दी। ये धुंधलके अभी भी हैं। उनके लिए ज़रूरी है कि वे लघुकथा के मनोविज्ञान को भी समझने की कोशिश करें। 2018 में बलराम  अग्रवाल की दूसरी पुस्तक 'परिन्दों के दरमियां' आई जो 'हिन्दी लघुकथा का मनोविज्ञान' की अपेक्षा, कहीं अधिक सरल और बोधगम्य पुस्तक है। यह  पुस्तक इसी नई पीढ़ी के नए लेखकों जिन्हें 'परिंदे' नाम दिया गया, को पूरी तरह ध्यान में रखकर लिखी गई है और लेखक इसमें बहुत सफल भी रहा है। अब 2019 में 'लघुकथा का प्रबल पक्ष' नाम से आलोचनात्मक पुस्तक का आलेख प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित होकर आना भी इस क्षेत्र में एक स्वागत योग्य और सराहनीय कदम ही कहा जाएगा। लघुकथा के दुर्बल (कमजोर) पक्ष पर तो बहुत बातें होती हैं, पर इसके सबल या प्रबल पक्ष पर भी बात करने की बेहद ज़रूरत महसूस होती है। शायद, बलराम अग्रवाल का भी यही मंतव्य रहा हो इस पुस्तक के पीछे। यह पुस्तक अब मेरे अगले कई दिनों और कई रातों पर कब्ज़ा करने वाली है। फिलहाल यहाँ इस पुस्तक की 'अपनी बात' (भूमिका) का अन्तिम पैरा आपसे साझा अवश्य करना चाहूँगा।  
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"साहित्य और विज्ञान दोनों में कुछ अवधारणाएँ उपयुक्त समय से पहले पेश होने के कारण हास्यास्पद मान ली जा सकती हैं, लेकिन ज़रूरी नहीं कि वे सर्वथा अग्राह्य अथवा त्याज्य ही हों। 'छोटी लघुकथा' और 'लंबी लघुकथा' के विभाजन का समय, मुझे लगता है, अभी नहीं है। लेकिन यह कभी नहीं आएगा, ऐसा कहना बुद्धिमानी नहीं होगी। साहित्य अपने कूड़ेदान को भी 'रिसायकल' करता है, परन्तु अभी सिर्फ़ लघुकथा, उसमें कहानीपन और संपूर्णता में उसके प्रभाव को रेखांकित करने भर का समय है। अभी लोग 'लघुकथा' शब्द के आभामंडल से चमत्कृत हैं, सराबोर हैं। 'लघुवादी लघुकथा' की अवधारणा संभवत: इस आभामंडल के कारण ही सिर पटक रही है। अतीत में, 'अणुकथा' की अवधारणा दम तोड़ चुकी है। यह समय विभाजन में शक्ति व्यय करने की बजाय लघुकथा को पुष्ट करने, उसके प्रबल पक्ष को स-तर्क, स-प्रमाण सामने रखने का है।(बलराम अग्रवाल)।"
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यह पुस्तक पेपर बैक में बेहद खूबसूरत छपी है और सबसे अधिक प्रसन्नता की बात है कि 240 पेज की इस किताब का मूल्य मात्र 110 रुपये है। यानी हम सब लघुकथा प्रेमियों की जेब-खर्च की सीमा के अंदर है। पुस्तक प्राप्त करने के लिए सीधे लेखक से संपर्क किया जा सकता है ! 

मित्र बलराम अग्रवाल को बहुत बहुत बधाई !
-सुभाष नीरव / 2अगस्त 2019
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प्रकाशित : मासिक 'लघुकथा वृत्त' (सितंबर 2019)

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