लघुकथा को लेकर साहित्य जगत में एक विमर्श जारी है कि क्या यह एक सम्पूर्ण कथा-विधा है। साहित्य जगत में इसे अन्य विधाओं की तरह आज भी सर्व-स्वीकृत दर्जा नहीं मिल सका है जबकि आज लघुकथाओं के भारी-भरकम कोश ही नहीं प्रकाशित हो गए हैं बल्कि देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में उन पर शोध कर छात्रों ने पीएच.डी. की उपाधि भी हासिल कर ली है। अनेक महान साहित्यकारों की लघुकथाओं को खोज-खोज कर उनकी लघुकथाओं के संग्रह भी किये गए हैं जो लघुकथाओं पर शोध करने वालों के लिए सहायक ग्रंथों की तरह उपयोगी सिद्ध हो रहे हैं। वरिष्ठ साहित्यकार मधुदीप के संपादन में लघुकथाओं के प्रतिष्ठित और नवोदित अधिकांश लेखकों के संपादित संकलनों की पूरी शृंखला भी प्रकाशित हो चुकी है और यह विशद कार्य अभी भी उनके संपादन जारी है।
सुप्रतिष्ठित लघुकथाकार बलराम
अग्रवाल ने तो प्रेमचंद और जयशंकर प्रसाद की लघु-आकारीय कथाओं को खोजकर संकलन भी
संपादित किये हैं। अभी हाल में ही बलराम अग्रवाल की ही लघुकथाओं का एक संग्रह
‘पीले पंखोंवाली तितलियाँ’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में 151 लघुकथाएँ
हैं जिनमें समाज की विसंगतियों और विडंबनाओं को अभिव्यक्त ही नहीं किया गया है
बल्कि विभिन्न और अनछुए विषयों पर बलराम ने अपनी कलम चलाई है जहाँ प्रायः लेखकों
दृष्टि कम ही जाती है। बलराम की लघुकथाओं में सामयिक समस्याओं को उठाकर नारी
समस्या और मनोदशा पर ज्वलंत विमर्श के लिए पृष्ठभूमि बनाई है।
संग्रह की शीर्षक
लघुकथा ‘पीले पंखों वाली तितलियाँ’ में तितली के माध्यम से बच्चों की नैसर्गिक
स्वतंत्रता और उनमुक्तता को बचपन में ही छीनी जा रही स्थितियों पर एक मार्मिक चोट
है तो ‘सुंदरता’ सौंदर्यबोध पर एक विशिष्ट लघुकथा है जो अपने आप में ‘एस्थिटिक
सेंस’ की एक सहज और स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। समाज में जिस स्थान पर आप रहते हैं
उस स्थान की छवि से भी आपको जूझना पड़ता है। इसे ‘आखिरी उसूल’ लघुकथा में इस
संवेदना से परिपूर्ण अभिव्यक्ति दी गई है। जहाँ रेड लाइट एरिया में रहने वाले हर
निवासी की एक-सी इमेज बना दी जाती है। वहाँ लड़की के साथ हुए रेप को भी पुलिस पैसे
के लेन-देन का मामला समझती है और पुलिस की नज़र में वहां रहने वाली हर लड़की को
धंधेवाज ही समझा जाता है। ‘सियाही’ में अखबारों में छपी अपराध-खबरों से व्यथित मन
को दृष्टिगत किया है जहां नौकरी करने वाला साधारण युवक अपनी माँ से कहता है कि
रोटियों को अखबार की बजाय कपडे़ में लपेटकर दो। इसका कारण यह नहीं है कि छपे अखबार
की सियाही छूटकर रोटियों में लग जाती है, बल्कि वजह यह है कि उसमें लूट,
हत्या, बलात्कार या खराब बयानबाजी की खबरें
पढ़कर मन खाने से उचट जाता है। ‘पूजावाली जगह’ में बढ़ती साम्प्रदायिकता और दुश्मनियों
पर करारा व्यंग्य है। जहां लोगों के स्वार्थ इतने प्रबल हो गए हैं, जहाँ अब मन में
चाहे मंदिर और चाहे मस्जिद उसकी पवित्रताओं का कोई अर्थ ही नहीं रह गया है, तो
‘भरोसा’ में स्वार्थों के बीच कहीं सद्भाव जिंदा रखने की एक मिशाल पेश की गई है।
जिसका घर आप जलाना चाहते हैं वह तो सबकी रखवाली कर रहा है! ‘मन की मथनी’ में गरीब
परिवार की मां खुद व बच्चों को भूखा सुलाकर रसोई के बर्तनों को सुबह-शाम मांजती है
ताकि लोग यह न समझें कि इनके घर में खाना नहीं बनता है। वह सिर्फ खाली बरतनों को
बार-बार धोकर नाली में पानी बहाती रहती है। इसको एक मर्मभेदी उत्कृष्ट लघुकथा की
श्रेणी में रखा जा सकता है। ‘लानत’ उन बस्तियों पर एक व्यंग्य है जहां लोग
सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान पर भरोसा कर बदहाल जीवन जी रहे हैं और काल के ग्रास बन
रहे हैं। ‘बिना नाल का घोड़ा’ में नौकरियों में किए जा रहे भीषण शोषण को संवेदना से
परिपूर्ण एक मार्मिक अभिव्यक्ति दी है। ‘पराकाष्ठा’ आदमी की खोखली और बनाबटी होती
जिंदगी को अभिव्यक्त करती है। ‘तिरंगे का पाँचवाँ रंग’ लघुकथा पुलिस न्यायपालिका
उन कारगुजारियों पर दृष्टिपात करती है जहां एक आदमी को सिर्फ इसलिए अभियुक्त मान
लिया जाता है क्योंकि वह योगा करते हुए उस समय अपनी टाँगों को आसमान की ओर किए हुए
थे जब स्वतंत्रता दिवस के दिन तमाम झंडे आसमान में फहर रहे थे। राजभक्त सिपाही
द्वारा इसे राष्ट्रीय झंडे का अपमान माना गया। ‘दिल्ली वाले’ में दिल्ली शासक-वर्ग
का प्रतीक है। यह उन लोगों पर करारा व्यंग्य कसती है जो केवल बातें फोड़ने में
माहिर हैं और जो व्यावहारिक रूप में कुछ का करने से बचते हैं। वस्तुतः ऐसे लोग
दिल्ली में ही नहीं सारे देश में मिल जाएंगे। ‘लगाव’ लघुकथा मानव मन की उन
कोमल अनुभूतियों को अभिव्यक्त करती है जो
बंधन के रूप में जीवन के अंत तक जीवंत बने रहते हैं। चाहे उसके वे हमसफर दुनिया
छोड़कर ही क्यों न चले गए हों। ‘बब्बन की बीवी’ उन औरतों को आशावान बनाती है जो
विषम परिस्थितियों में भी हार नहीं मानती हैं। दुश्मनों का अंतिम क्षणों तक हिम्मत
के साथ मुकाबला करती हैं चाहे अपनी जान ही क्यों न देनी पड़ी। ‘हवाएं बोलती हैं’
शीर्षक के अंतर्गत अनेक उपशीर्षकों तले जितनी भी लघुकथाएं वे सआदत हसन मंटो की
लघुकथाओं की बरबस याद दिलाती है। ‘चार प्रवचन’ के अंतर्गत हर प्रवचन उन तथाकथित
धार्मिक लोगों की ओर इशारा करता है जो अपने स्वार्थों की खातिर अपने मन मुताबिक
धर्म की व्याख्या करते हैं। ‘कफन सम्मान’ लघुकथा उन साहित्यकारों पर तंज कसती है
जो पुरस्कारों को हासिल करने के लिए जी-तोड़ मेहनत करते हैं। अगर कफन सम्मान भी
मिलने लगे तो शायद उसके लिए वे जीते-जी इतनी मेहनत करेंगे कि मृत्यु के बाद यह
पुरस्कार उन्हें जरूर मिल जाए।
बलराम अग्रवाल की ये लघुकथाएँ किन्हीं सत्यकथाओं की तरह चौंकाती नहीं है, बल्कि आपको आत्ममंथन के लिए दूर तक सोचने के लिए अकेला छोड़ देती हैं।
पुस्तक का नामः पीले पंखों वाली तितलियाँ (लघुकथाएँ), कथाकार : बलराम अग्रवाल, प्रकाशक : राही प्रकाशन, एल-45, गली सं. 5, करतार नगर, दिल्ली-110053 पृष्ठ : 152 संस्करण : 2015 मूल्य : 300 रुपये
समीक्षक
अवधेश श्रीवास्तव, 6, प्रथम मंजिल, पंजाब एण्ड सिंध बैंक, टिंबर नगर, त्रिवेणी गंज, हापुड़-245101(उ.प्र.)
मो.09412574570/07599242988
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