(प्रिय कथाकार मित्र बलराम अग्रवाल के लिये)
(कवि-मित्र
स्वप्निल श्रीवास्तव के लगभग 10000 शब्दों के लम्बे संस्मरण का यह लगभग
आधा अंश है। इसमें उन्होंने आपात् काल और उसके बाद के बुलंदशहर का सजीव
वर्णन किया है। मैं आभारी हूँ कि बुलंदशहर के बहाने उन्होंने मुझे भी याद
किया।)
एक दिन सूचना अधिकारी ने मुझे बुलाकर कहा कि मैं बुलंदशहर चला जाऊं। बुलंदशहर में कोई स्वतंत्र सूचना अधिकारी नही थे। जिला पंचायत अधिकारी को प्रभारी बनाया गया था । यह मेरे लिये नया शहर था। मैं अपनी इस बुरी आदत का शिकार था कि जहाँ, जिस शहर में जाता था, उसके इतिहास को जरूर खंगालता था। यह जनपद प्रसिद्ध वैज्ञानिक शांतिस्वरूप भटनागर की भूमि थी । उनका बचपन उनके नाना के घर बीता था। वे बी. एच. यू. में रसायनशास्त्र के प्रोफेसर थे। अपने आयोद्यिक खोज के लिये उन्हें अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिली थी। ऋतु-वर्णन के लिये ख्यात सेनापति बुलंदशहर के अनूपशहर के निवासी थे। काव्य-द्रुम और कविता-रत्नाकर उनके मुख्य संग्रह हैं। उनके जीवन का आखिरी समय वृंदाबन में बीता। चतुरसेन शास्त्री अपने समय के मशहूर लेखक थे। एक विशेष पाठक वर्ग में उनके उपन्यास रुचि के साथ पढ़े जाते हैं। वैशाली की नगरवधू, वयं रक्षाम: आदि उनके लोकप्रिय उपन्यास हैं। उनका जन्म चंदोख नामक स्थान पर हुआ था। मैं भीतर से गर्व से भरा हुआ था कि मैं इस ऐतिहासिक जगह पर मौजूद हूँ।
अगर इस लेख में काला आम का जिक्र न हो तो कहानी अधूरी होगी। जनपद मुख्यालय के चौराहे पर स्थित यह जगह 1857 के आजादी की पहली लड़ाई के कारण मशहूर है। इस जगह पर सैकड़ों क्रांतिकारियों को आम के पेड़ पर लटकाकर फांसी दी गयी थी। कत्ले–आम की यह घटना को कालांतर में काला–आम कहा गया। यह याद दिलाना जरूरी है कि मेरठ से लेकर बुलंदशहर के आसपास के इलाकें में क्रांतिकारियों ने आजादी की पहली लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभाई थी। इतिहास में इस घटना के साक्ष्य मौजूद हैं। आम का बड़ा बाग क्रांतिकारियों के लिये शहीद–स्थल बन गया था। इस स्थल पर क्रांतिकारियों की स्मृति में शहीद–स्तम्भ बनाया गया है।
बुलंदशहर मेरी नौकरी का दूसरा ठिकाना था। मुझे अपने प्रभारी अधिकारी के निर्देशन में काम करना था। पंचायत विभाग में एक अन्य लिपिक नंदकिशोर सक्सेना थे–जिनसे मुझे काफी मदद मिली। वह मेरे कार्य में सहयोग के अलावा मेरी समस्यायें भी दूर करते थे। शहर के बीचोंबीच कमरे का किराया अदा करना मेरे बस की बात नही थी। सक्सेना जी ने शहर से लगभग बाहर, कुम्हारों की बस्ती में एक कमरा तीस रुपये माहवार पर दिलवाया। इस उजाड़ बस्ती में कुम्हारों के अलावा धोबियों के मकान थे। गदहे समवेत–स्वर में रेंकते रहते थे । उनके स्वर अश्लील होते थे। उनकी प्रेम–क्रीड़ाएँ देखने योग्य होती थीं। गधे अपने खूंटे तोड़कर भाग जाते थे। धोबी एक डंडा लेकर उनके पीछे दौड़ता रहता था। फिर उसे खूंटे से बांधकर पीटता था। गधे अपने दुख में जोर–जोर से रेंकते थे।
कमरे में कमरे के अलावा कोई सुविधा नहीं थी। सामने सार्वजनिक नल था, वहीं स्नान करना होता था। यह काम मुंह-अंधेरे करना पड़ता था ताकि कोई देख न ले। खुले–आम स्नान करने का अभ्यास मुझे नहीं था। मुझे लाज आती थी। लेकिन उस बस्ती की स्त्रियाँ मुझसे ज्यादा साहसी थीं। वे निर्भय होकर नहाती थीं। बच्चे नंगे नहाते थे। मुझे दिशा-मैदान के लिये काली नदी के किनारे जाना पड़ता था। इसी बहाने मार्निंग–वाक भी हो जाता था। काली नदी मुजफ्फरनगर से निकलती है। इसका मूल नाम कालिंदी था। इसे अपभ्रंश में काली नदी कहा जाने लगा । लोक अपनी सुविधा के लिये नाम खोज लेता है। काली नदी का पानी काले रंग का दिखता था लेकिन अगर आंजुरी में पानी उठाओ तो पानी सामान्य पानी की तरह दिखता था। मैं इस बात से चकित था कि किस तरह आंजुरी में उठाने के बाद उसका रंग बदल जाता था। नदी के पास एक सघन बाग था। वहाँ मुझे बैठना अच्छा लगता था। नदी पर एक पुल था, वहाँ से नदी को दूर जाते हुये देखता था।
दफ्तर में मेरा काम था--जनपद से प्रकाशित हो रहे अखबारों को देखना। उसमें छपी शिकायतों को सम्वंधित विभाग में भेजना था। मैं पंचायत कार्यालय में रमा रहता था । पंचायत अधिकारी स्वतंत्रता सेनानी थे। उनके पास आजादी की लड़ाई की असंख्य कहानियाँ थीं, जिन्हें वह चाव से सुनाया करते थे। वे विचारों से गांधीवादी थे। उनका रहन-सहन साधारण था ।
दफ्तर के लोगों से दोस्ती हो गयी थी। मेरी पोस्ट इतनी छोटी थी कि मैं लोगों की दया का पात्र बन गया था। लोग सहानुभूति के साथ कहते कि इतना पढ़ा–लिखा आदमी इतनी मामूली पोस्ट पर इतनी दूर से नौकरी करने आया है। इसी बीच हमारी महफिल में नये नागरिक की आमद हुई। उनका नाम गिरीश पांडेय था। वह ए.डी.ओ. के पद पर थे। वे लखनऊ के रहनेवाले थे। उनकी बातचीत में लखनऊ की नफासत झलकती थी। मेरा लिखने–पढ़ने का काम चल रहा था। मैं पत्र–पत्रिकाओं में गीत और कवितायें भेजता रहता था, लेकिन लोगों से जाहिर नहीं करता था। इस समाज में लिखने–पढ़ने के काम को महत्व नहीं दिया जाता था। हाँ, गिरीश को जरूर मैंने इस शगल के बारे में बताया था । साहित्य में उनकी खासी दिलचस्पी थी। उनके बाल लम्बे और सघन थे। उस समय अमिताभ बच्चन कट के बालों का चलन था। बालों के हुजूम में उनके कान छिप गये थे। दफ्तर के लोग इस बात को लेकर मजाक करते थे। हम लोग गपशप कर रहे थे कि डाकिया मुझे खोजता हुआ आया–बोला, स्वप्निल कौन है ? मैंने अपना चेहरा उसके सामने करते हुये पूंछा–क्या बात है । उसने कहा कि आपका मनिआर्डर आया हुआ है। कहाँ से आया है ? उसने कहा कि दिल्ली से आया है । मनिआर्डर की रकम डेढ़ सौ रुपये थी। मेरे गीत अज्ञेय की पत्रिका 'नया प्रतीक' में छपे थे । यह मेरे जैसे नये कवि के लिये गर्व का विषय था। बीच में 'प्रतीक' बंद हो गयी थी । वह पुन: प्रकाशित हो रही थी। अज्ञेय के साथ 'नया प्रतीक' को इला डालमिया देख रही थीं। वह अज्ञेय के साथ सहजीवन में थी। मनिआर्डर की स्लिप के नीचे इला जी का संदेश लिखा हुआ था कि आपके अच्छे गीतों के लिये पारिश्रामिक भेजा जा रहा है। मेरी शुरुआत गीतों से हुई थी। उसके बाद कविता की दुनिया में आया। इस स्लिप को मैंने वर्षों सम्भालकर रखा हुआ था। यह रकम मेरे एक महीने की तनख्वाह के बराबर थी। मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। मुझसे ज्यादा दफ्तर के लोग चकित हुए और मुझे गौर से देखने लगे। गिरीश को लेकर रेस्तरां में गया और पेट भरकर नाश्ता किया। बाद में गिरीश की शादी प्रसिद्ध कवि अरुण कमल की बहन से हुई। गिरीश मेरे मित्र जैसे हो गये।
जिस तरह के अखबार दफ्तर में आते थे, उनका कोई स्तर नहीं था। उसमें स्थानीय खबरें ज्यादा होती थीं। सम्पादकीय में कोई दृष्टि नहीं थी। अखबारों के इस ढेर में दो अखबारों पर मेरा ध्यान गया। एक अखबार के सम्पादक कामरेड सिंघल थे। उनके सम्पादकीय विचारोत्तेजक होते थे। उन्हें खोजते हुए मैं उनके दफ्तर में पहुँच गया लेकिन वहाँ दफ्तर की जगह ड्राई-क्लीनरक्लीनर की शाप थी। दुकान के सामने रूसी साहित्य और विचारधारा की किताबें थी। मुझे देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा– यह दुकान मेरी रोजी है लेकिन विचारधारा मेरा पागलपन है। उनसे मिलना बदस्तूर जारी रहा। उनकी किताबें पढ़कर मेरे भीतर के काफी धुंधलके छँट गये थे। दूसरे सम्पादक गौमत नाम के प्राणी थे। वह 'वर्ल्ड आब्जर्वर' नाम का अखबार निकालते थे। उनका अखबार पढ़ते हुए मेरा ध्यान एक समाचार पर गया। वह खबर नगरपालिका के भ्रष्टाचार के बारे में था। खबर के अंत में लिखा था….. शेष अगले अंक में। इस खबर के निहितार्थ को समझना मुश्किल नहीं था। एक दिन उनकी तसरीफ दफ्तर में आयी। उनका कद छ: फुट से ज्यादा था। चेहरे पर मूंछें लहरा रही थीं। नाक और मुँह के बीच मूंछों का विस्तार अराजक था। कोई उन्हें देखे तो उनकी मूंछों को नहीं भूल सकता। जब मैं उनसे मुँहलगा हो गया था तो कह दिया था कि गौमत साहब, आप की मूंछें महाराणा प्रताप की तरह दिखती हैं। मेरी इस टिप्पणी पर वह दिल खोलकर हंसे थे ।
कार्यालय में उनकी उपस्थिति हाहाकारी थी । वे ऊंचे स्वर में बात करते थे। उनके अखबार के संरक्षक सम्भवत: कोई मोहन पिपिल थे । वे एम. पी. थे । उन्होनें पूरे दफ्तर को चाय–पानी और नाश्ता कराया। दफ्तर के लोग उनकी इस दरियादिली से कृतज्ञ थे। मैं बाहर का आदमी था लेकिन सक्सेना जी स्थानीय थे। मेरे दफ्तर के काम में वे सहयोगी थे। दफ्तर के कामों का उन्हें ज्ञान था। मैं सीखने की प्रक्रिया में था। उन्होंने हम दोनों को शाम को घर आने की दावत दी। उनका घर लम्बा-चौड़ा था । दफ्तर व्यवस्थित था । बातचीत करते हुए उन्होने मेज की दराज से बोतल निकाली और तीन गिलासों में द्रव्य उंडेलने लगे । मैंने हस्ताक्षेप किया कि मैं नही पीता। सचमुच इससे पहले मेरा मदिरा से कोई परिचय नहीं था। दोनों ने एक स्वर से कहा–थोड़ा सा ही लो, कोई दिक्कत नही होगी। मेरे सामने इनकार करने की कोई सूरत नहीं थी। मैंने सोचा–क्यों न तजुर्बा किया जाय। हलक में दो घूंट उतारने के बाद शरीर में कुछ भौतिक परिवर्तन होने लगे । मैं बिना पंख के हवा में उड़ने लगा। जैसे उन्होंने दूसरा पैग ढ़ालने लगे , मैंने मना करने की बेकार सी कोशिश की ।उन्होनें कहा - ज्यादा नही बस यह लव – ड्राप लो । लेकिन यह लव – ड्राप नही था । वह पहले पैग के बराबर था । सक्सेना मेरे साथ थे । उनका घर मेरे क्वाटर के पास था । मैं इतमीनान से अपने ठिकाने पर पहुंच सकता था । पीने और चिखने से ही पेट भर गया था । उसके बाद क्या और कितना खाया , यह मेरे ज्ञान में नही था । गौमत अक्सर हमारी शाम को रंगीन बनाया करते थे । वे माई –डियर आदमी थे । मस्ती से बात करते थे । हंसी- ठठ्ठे खूब करते थे। वे ठाट से रहते थे और खुले – हाथ खर्च करते थे । वे अखबार निकालने के अलावा क्या काम करते है , इस तरफ मेरा ध्यान नही गया । उनकी पत्नी स्कूल में फिजिकल इंस्ट्रेकटर थी । वह कद में उनसे छोटी थी लेकिन वह उनसे डरते थे । पीने – पिलाने का काम उनसे बच कर करते थे । वे कुछ अच्छे से दिन थे ।
मेरठ से बास का आर्डर आया कि बुलंदशहर में एक सूचना केंद्र खोलना है, तुम जगह की तलाश करो । यह काम हमने सक्सेना जी को सौप दिया । इस काम के लिये दो कमरों की जरूरत थी । केंद्र सड़क के किनारे होना चाहिये ताकि लोग वहां आ सके । शहर के एक व्यस्त मोहल्ले सराय गुसाई में यह जगह उपलब्ध हो गयी । सूचना केंद्र का कमरा बहुत बड़ा नही था । उसमें एक बड़ी सी मेज के आसपास आठ–दस कुर्सियों की जगह थी । सूचना केंद्र में सूचना–विभाग की पत्र–पत्रिकाओं के अतिरिक्त साहित्यिक पत्रिकायें भी आती थी । दूसरा कमरा मकान के अंदर था । वहां धुप्प अंधेरा था। हवा नही आती थी । खाने–पीने के बाद मैं सूचना केंद्र की मेज पर लम्बा होकर सोता था। मेरा कद बड़ा था इसलिये पैर मेज से बाहर लटकता रहता था ।
सराय गुसाईं की इसी गली में पाँच–छ: मकान छोड़ कर बलराम अग्रवाल रहते थे । इसी गली के विपरीत के मकान में आशु-कवि गजेंद्र दत्त शर्मा 'निर्धन' जी का आशियाना था । वे नाम के निर्धन थे । दो मंजिला मकान में रहते थे । शहर से थोड़ी दूर किसी सरकारी अस्पताल में कम्पाउंडर थे और थोक के भाव कविताएँ लिखते थे। लिखने की जगह कहा जाय, वे कविताओं का उत्पादन करते थे । एक साथ वे दर्जनों कविताएँ सुनाकर चैन हर लेते थे । इसी गली के पास साठा मुहल्ले में 'चंचल' नाम के ग़ज़लकार की रिहाइश थी। वे अच्छी गजलें सस्वर गाते थे। मेरा इस गली में आना वाइरल हो गया था। मैं कवि भी था, यह शोहरत लोगों के पास पहुँच रही थी। ये सब मंचीय प्रतिभा के कवि थे । उनके गीत मध्यकालीन थे। उसमें प्रेम और विरह कूट–कूट कर भरा था । उनके गीत–गायन में करुणा थी । मेरी जिंदगी में वैसे भी दुख बहुत थे लेकिन उनकी कविताओं में आनेवाले दुख मुझे सताते थे। इन कवियों को लगता था कि तुकबंदी ही कविता है । जबकि कविता की दुनिया आधुनिक हो चली थी । आठवें दशक में कविता की भाषा और कथ्य दोनो बदल चुके थे लेकिन ये कवि मध्यकालीन समय में ठहरे हुये थे ।
बलराम कवितायें नहीं लिखता था। उसका क्षेत्र लघुकथा थी । आज वह लघुकथा में बड़ा नाम है । वह लघुकथा के आंदोलन का प्रमुख रचनाकार है । वह साहित्य के अद्यतन गतिविधियों से परिचित था । उसने विश्वभर की अनेक लघुकथाओं के अनुवाद किये हुये थे। इन्ही कारणों से मैं उसके नजदीक होता गया ।
सूचना केंद्र सुबह–शाम खुलता था । मैं किनारे बैठा रहता था, लोग आते जाते रहते थे। बलराम का आना–जाना निरंतर था । हम साहित्य की लम्बी बहसें करते रहते थे–अन्य लोग इस बहस में शरीक नही हो पाते थे । उनका साहित्य–ज्ञान सीमित था ।
निर्धन जी बिला–नागा शाम को केंद्र में आते थे । शाम को जब मैं पढ़ने या सोने की तैयारी कर रहा होता था, वे अपनी डायरी के साथ पहुंच जाते थे । उनका आना बुरा नही लगता था लेकिन दशेक कवितायें सुना कर जो जुल्म करते थे, उससे मैं दिमागी रूप से बोझिल हो जाता था । संकोच से कुछ कह नही पाता था, इसका वह भरपूर फायदा उठाता था । जब उनके गीत सुनकर आंख झपने लगती तो वे मुझसे कहते कि इस पंक्ति पर आपका ध्यान चाहूंगा और मैं आधी नींद से लौट आता था । जब उन्हें अपनी ओर आते हुए देखता था तो मेरी रूह फना हो जाती थी । एक बार वे मियादी बुखार में पड़ गये । यह सुखद सूचना नहीं थी लेकिन मुझे लगा कि मैं कम से कम कुछ दिनों के लिये बच जाऊंगा। इस तरह सोचना मेरी प्रकृति नहीं थी लेकिन वे गीत सुनाकर मुझे इतना बेदम कर देते थे कि मुझे यह राहत की खबर लगी ।
अच्छे दिन स्थायी नहीं होते । वे क्रमश: ठीक होने लगे । खुद अस्पताल में काम करते थे इसलिये उन्हें स्वस्थ होने में कोई परेशानी नहीं हुई । परेशानी तो मुझे होने वाली थी। जैसे वे स्वस्थ हो जायेंगे, मुझे उनके धुंआधार कविता–पाठ का सामना करना पड़ेगा । सम्भवत: वह रविवार का खाली दिन था । दिन के ग्यारह बजे थे । मैं होटल में खाने के लिये जाने की तैयारी में था । मुझे बस स्टेशन के पास बुढ़िया के होटल का खाना पसंद था । वह लकड़ी के आग से खाना पकाती थी । बढ़िया छौंकी हुई दाल और तुरंत सिकी हुई रोटियों का स्वाद घरेलू था। उसका चेहरा ममतालु था। वह पूछ–पूछ कर खाना खिलाती थी । उसका चार्ज ज्यादा नहीं था । अक्सर मैं वहां अपनी भूख मिटाता था। मैं खाने के लिये बस–स्टेशन जाने ही वाला था कि निर्धन जी का लड़का मेरे सामने आकर खड़ा हो गया, बोला कि पापा ने बुलाया है । वे दोपहर के खाने पर आपका इंतजार कर रहे हैं ।
यानी वह ठीक हो चुके थे । उन्होने ताजी–ताजी दाढ़ी बनायी हुई थी । उनके कपड़े साफ – सफ्फाक थे। चेहरे पर पुलकित होने का भाव था । मैंने पूछा कि क्या वह मियादी बुखार से निकल चुके हैं ? उन्होने खुश होकर–हां कहा ।
भोजन बहुत लजीज था । तमाम व्यंजनों के अलावा मिष्ठान का भी इंतजाम था । बहुत दिनों बाद मुझे सुस्वादु भोजन मिला था । होटल का भोजन लाख उम्दा हो, वह घर भोजन की बराबरी नही कर सकता। निर्धन जी स्वस्थ हो चुके थे । उन्होने छक कर भोजन किया । बीमारी के बाद खूब भूख लगती है। मियादी बुखार में परहेजी खाना बेस्वाद होता है । डाक्टर की ताकीद के हिसाब से खाना पड़ता था। उन दिनों मियादी बुखार बहुत लोकप्रिय था । अक्सर लोग उसकी चपेट में आ जाते थे । वह एक मियाद के बाद पिंड छोड़ता था । इसलिये उसे मियादी बुखार कहा जाता था । बुखार असाध्य रोग नही है लेकिन वह शरीर की धज्जियां उड़ा देता है । भोजन खत्म होने के बाद निर्धन जी असल मुद्दे पर आ गये । उन्होने कहा कि बीमारी की अवधि में उन्होनें बहुत मार्मिक गीत लिखे है । उन्होने पास रखी डायरी खोली और मुझे गीत सुनाने लगे । कुछ गीत पढ़ कर सुनाते थे और कुछ गाकर । उनके गीतों में विराग के भाव थे । कुछ गीतों में मरघट की वीभत्स कल्पना की गयी थी । उन्होने बताया कि ये गीत बुखार के उत्कर्ष में लिखे गये थे । वे एक दर्जन गीतों का परायण कर चुके थे । मैं नमकहराम नही था इसलिये उनके गीतों को ध्यान से सुनने का अभिनय कर रहा था । उनके कमरे की खिड़की से सड़क साफ दिखाई देती थी । मैंने उधर से बलराम को आते–जाते देख रहा था । मैंने खिड़की से उसे करुण–भाव से देखा कि वह मुझे बचा ले । लेकिन नामुराद ने मेरी विनती नही सुनी और मुस्करा कर चला गया ।
निर्धन जी मियादी बुखार में लिखी कविताएँ खत्म हो चुकी थी । मैंनें राहत की सांस ली । लेकिन यह क्या, निर्धन जी ने बेटे से कहा कि वह ऊपर के कमरे से दूसरी डायरी उठा लाये । यह सुनकर मेरे भीतर का धैर्य उठ गया था । इसी बीच बलराम आ गया । उसने मुझे हड़काते हुये कहा – तुम यहाँ बैठे हुए हो, तुम्हारा बास तुम्हे खोज रहा है ।
मैं तुरंत उठा और उसके साथ हो लिया। बास के आने की खबर एक बहाना था। मैंने उससे नाराज होते हुये कहा–यह काम तुम पहले कर सकते थे। उसने जबाब दिया कि वह चाहता था कि वह जीभर अपनी कवितायें सुना लें ताकि तुम्हारी कई शामें बरबाद होने से बच जायं।
काश ऐसा हो पाता ?
निर्धन जी के अलावा खुर्जा के बुलंदशहर के एक अन्य गीतकार शिशुपाल सिंह 'निर्धन' भी थे । वे प्रसिद्ध कवि थे । उनके बारे में त्रिलोचन जी ने मुझे एक किस्सा सुनाया था । एक रात उन्हें सांप ने काट लिया था लेकिन उन्होंने किसी को नही बताया । रातभर तड़फते रहे । सुबह लोगों ने जब उन्हें इस हाल में देखा तो पूछा–आपने हम लोगो को रात में क्यों नही बताया तो वे मासूमियत से बोले – बेकार में आप लोगो को तकलीफ हो जाती । लेकिन सराय गुसाई के निर्धन इतने अहिंसक नहीं थे । वे कविता सुनाकर मेरा वध कर देते थे ।
बुलंदशहर में रहते हुए घर की बहुत याद आती थी । हमारे मकान मालिक अच्छे आदमी थे । हर तीज – त्योहार में मुझे भोज में आमंत्रित करते थे । वे घर जमाई के साथ रहते थे । उनकी लड़की गोल – मटोल थी । उनकी लड़की उनकी अकेली संतान थी । दामाद बहुत विनम्र और प्रेमिल थे । वे अपनी दुकान पर काम करते थे ।
बलराम की शादी, एक यादगार घटना थी । वह मध्यवित्त परिवार का नागरिक था । संयुक्त परिवार में रहता था । पिता बहुत सज्जन आदमी थे । उसके चाचा की अब भी याद आती है । उनकी साहित्य में दिलचस्पी थी । वे संवेदनशील व्यक्ति थे । घर में ज्यादा जगह नहीं थी । उसके चाचा ने बलराम की शादी के बाद अपना कमरा खाली कर दिया था लेकिन शोर–शराबे के बीच वह पत्नी के साथ सहज नहीं था । जैसे वह प्रेम निवेदन के लिये भूमिका बनाता, आसपास से स्त्रियों और लड़कियों की हंसने- खिलखिलाने की शरारती आवाज आती थी । उसकी प्रेम–मुद्रा भंग हो जाती थी । सुहागरात का सपना अधूरा रह जाता था । इस कवायद में कई दिन बीत गये थे। फिर उसने प्रेम–क्रीड़ा के लिये पास में एक कमरा किराये पर लिया । वह रात को कमरे पर चला जाता और सुबह मुंह–अंधेरे लौटता था । उसके चेहरे पर आते–जाते प्रसन्नता के भाव साफ दिखाई देते थे । मुझे बलराम की इस हालत पर एक हिंदी फिल्म की याद आती थी । जिसमें नायक के सामने यही समस्या थी । नायक की सुहाग–सेज किचन में सजाई गयी थी लेकिन जोड़ा आसपास की असुविधाजनक आवाजों से विचलित हो जाता था । मां बाप उसकी इस परेशानी को समझकर सिनेमा चले गये ताकि उन दोनों को अकेला रहने का वक्त मिले । लेकिन इसी बीच मेहमान आ टपके और वे तड़पकर रह गये । अंत में वे होटल की शरण लेते हैं लेकिन वहां रेड पड़ जाती हैं और उन्हें पति–पत्नी होने के प्रमाण देने में देवी–देवता याद आ गये थे ।
बलराम ने मधुर–मिलन का जो रास्ता खोजा था, उसमें जीवन और कथा के सूत्र खोजे जा सकते हैं। कहानियां इसी तरह के अनुभव से बनती हैं। उन दिनों को याद कर बलराम को जरूर रोमांच होता होगा । भागती–दौड़ती जिंदगी में ये लम्हें जरूर सुकून देते होंगे ।
***
बुलंदशहर में नौकरी का कामकाज चलता रहा । बुरे दिन बहुत बुरे नही थे । उन्ही दिनों में बलराम जैसा मित्र मिला ।सिंघल , सक्सेना और गौमत मिले । उनसे कुछ तजुर्बे हासिल हुये । घर से बाहर निकलने का डर जाता रहा । हरिऔध की कविता – एक बूंद की याद आती रही , जिसें प्राइमरी स्कूल के दिनों में पढ़ा था , जिसमें एक बूंद बादलों की गोद से निकल कर क्या सोचती है । कही वह धूल में न मिल जाये लेकिन वह सीप के खुले मुंह में गिर कर मोती बन जाती है । कवि आगे कहता है कि इसी तरह लोग घर से बाहर निकलते तो उनके भीतर झिझक रहती है । मेरी नियति मोती बनने की नही थी लेकिन किसी बूंद की तरह धूल में नही मिला । मैंने यह जाना कि जिंदगी तप कर जिंदगी बनती है । इस छोटी नौकरी में मैंने बड़े सपने देखने नही बंद किये थे बल्कि वे मेरी आंख के साथ चलते रहे । मेरे साथ इससे बड़ी नौकरी के सपने थे । कम से कम तनख्वाह इतनी हो कि मेरी प्राथमिक जरूरते पूरी हो सके । एक अदद जीवन – साथी का इंतजाम हो सके , जिसके कंधें पर सिर रख कर इत्मीनान की सांस ले सकूं ।किसी के सामने हाथ न पसारना पड़े । यह सब सोचना मेरे लिये अस्वाभाविक नही था । मैंनें कई जगह अप्लाई किया हुआ था , इंटरव्यूं दिये हुये था कही से कोई जबाब नही आता था , कही से खेद की सूचनायें आती थी ।..
कहावत है कि तूफान के बाद इंद्रधनुष उगते है । गांव से रिडायरेक्ट होकर मेरे पास सिनेमा – विभाग का आदेश आया । आदेश पढ़ कर मैं नाच उठा । यह खबर मैंने दफ्तर में सुनाई । दफ्तर के लोग प्रसन्न हो गये । लोगो ने कहा कि हम जानते थे कि तुम इस नौकरी में नही रहोगे । तुम्हारे जैसे कबिल आदमी की कुंडली में अच्छी नौकरी लिखी है । मेरे बारे में लोगो के विचार अचानक उदात्त हो गये थे । मैं नही बदला था , मेरी नौकरी बदली थी । उसका फर्क साफ दिखाई दे रहा था । मुझे एक सप्ताह में ट्रेनिंग के लिये लखनऊ जाना था । यानी इस बीच लोगो से विदा ले लेना था । बुलंदशहर में जो अपनापा मिला था , उसे छोड़ते हुये दुख हो रहा था ।
उस जमानें में इस नौकरी की बहुत प्रतिष्ठा थी । सिनेमा देखना मेरी कमजोरी थी । मैं घर से झूठ बोल कर सिनेमा देखता था । कभी एक्ट्रा – क्लास के बहाने तो किसी दोस्त के बीमारी की आड़ लेकर घर से लापता हो जाता था । जेब में सिनेमा देखने के पैसे नही होते थे तो उधार मांगने मे कोई लाज – शर्म नही आती थी । दफ्तर के लोग कहते कि तुम्हारी तो लाटरी खुल गयी । यह बहुत अच्छी पोस्ट है । जो लोग मुझे दया के साथ देखते थे , वे हसरत से देखने लगे । मेरा चुनाव कमीशन से हुआ था । मुझे उस गली को छोड़ना था – जहां कविता की धारा बहती थी । जिस जगह हम रहते हैं , उससे विदा होने के बाद उसके महत्व का पता चलता है । बलराम , निर्धन , चंचल , सक्सेना और गौमत सचमुच उदास थे लेकिन वे इस बात से खुश थे कि मुझे बेहतर नौकरी मिल रही है । मुख्यालय में ट्रेनिंग के बाद पोस्टिंग की जगह का पता चलेगा । मैं न जाने क्यों आश्वस्त था कि मेरी पोस्टिंग मेरे जनपद के आसपास होगी यानी इस इलाके से मैं अंतिम रूप से विदा हो रहा था । पता नही अब इन लोगो से दुबारा मिलने का अवसर मिलेगा या नही ?
मेरे पास कोई खास सम्पत्ति नही थी । बस एक टीन का बक्सा , एक टुटही स्टोव , कुछ जरूरी बर्तन और कुछ किताबें थी । सबसे ऊपर थी हमारी स्मृतियां । वे आजीवन हमारे साथ रहती है । यह संस्मरण इसका सुबूत हैं । इसे मैं बहुत सालों बाद लिख रहा हूं ताकि मैं जीवन की यंत्रणा से मुक्त हो सकूं ।
लखनऊ ने जवाहर भवन की नौवीं मंजिल पर मेरी ट्रेनिंग माह भर चली । विभाग के नियमों – अधिनियमों के बारे में बताया गया । मेरे ट्रेनर -अधिकारियों ने बताया कि यह पद प्रतिष्ठा का पद है । किसी शहर का सिनेमा – मालिक उस शहर का प्रतिष्ठित व्यक्ति होता है । जिला – प्रशासन में उसकी धमक होती है । वह जिलाधिकारी के काफी करीब होता है इसलिये उसके लिये कोई काम असम्भव नही है । यह सुन कर हम लोगो के चेहरे गर्व से भर जाते थे । ट्रेनिंग के अंतिम दिन हमें पोस्टिंग के आदेश मिलने थे । मेरा दिल तेजी से धड़क रहा था । पता नही किस जिले की लाटरी निकले । आदेश खोला तो उसमें – पिलखुवा – गाजियाबाद लिखा हुआ था । यह बुलंदशहर के पास का जिला था । मेरी अपने ग़ृहजनपद के पास रहने की कल्पना धराशायी हो चुकी थी । मैं यथार्थ के धरातल पर आ चुका था । फिर बैतलवा उसी डाल पर । उस इलाके का दाना – पानी मेरी किस्मत में लिखा हुआ था ।
दूसरे दिन झोला – झंडा लेकर गाजियाबाद कचहरी में उतरा । तब का गाजियाबाद इतना विकसित और भींड़ भरा नही था । पुराने गाजियाबाद से बाहर के इलाके आबाद हो रहे थे । शहर में ढ़ाबें खूब थे लेकिन कायदे का होटल नही था । मैं कहां कायदे का आदमी था । घर में नही दाने , अम्मा चली भुनाने । उन दिनों के ढ़ाबे की खूब याद आती है । भले ही बैठने की साफ –सुथरी जगह न हो लेकिन भोजन स्वादिष्ट मिलता था । मैं ढ़ाबों की दाल पर फिदा था । बिना सब्जी से काम चल जाता था ।
जिला कार्यालय में अपनी ज्वानिंग देकर पिलखुआ रवाना हुआ । यह कस्बा गाजियाबाद – हापुड मार्ग पर स्थित था । रहने के लिये अस्थायी ठिकाना मिल गया था । मुझे बलराम का ध्यान आया तो मैंनें उसे चिट्ठी लिखी । वह भी मेरी तरह खुश हुआ । फिर मिलना – जुलना शुरू हुआ । बलराम ने गाजियाबाद में जगदीश कश्यप से मेरी मुलाकात करायी । वे रेलवे – स्टेशन के पास गली कीर्तन में रहते थे । स्टेशन रोड पर नगरपालिका के बने छोटे से कमरे में उनसे मुलाकात होती थी । वे बच्चों को शार्ट – हैंड सिखाते थे । इस लिपि के वे अच्छे जानकार थे । उन दिनों आफिस में काम करनेवालों के लिये शार्ट – हैंड अनिवार्य योग्यता मानी जाती थी । बलराम ने बताया कि जगदीश कश्यप लघुकथा के पितामह है । इन्होने लघुकथा के लिये आंदोलन चलाया हुआ है । वे दिल से अच्छे लेकिन स्वभाव से अराजक थे । किसी न किसी लघुकथाकार की खाट खड़ी करते रहते थे । उन्होने मुझे भी लघुकथा लिखने के लिये प्रेरित किया । बलराम भी लघुकथाकार था । मैं कविता लिखता था । फिर लघुकथा लिखने की कोशिश की । उस समय जगदीश कश्यप , बलराम अग्रवाल के साथ रमेश बतरा , महाबीर अग्रवाल , अनिल कौशिश , शकुंतला महावर जैसे लोग इस क्षेत्र में सक्रिय थे । उन्ही दिनों सारिका का लघुकथा विशेषांक प्रकाशित हुआ था , जिसमें देश – विदेश की लघुकथायें प्रकाशित की गयी थी । लघुकथा पर लम्बी – लम्बी बहस चल रही थी । कुछ लोग इस विधा को साहित्य की विधा नही मानते । वे कहते थे कि लघुकथा कहा.नी की हत्या है ।
गाजियाबाद में जगदीश के अलावा कुंवर बेचैन , जगदीश बत्रा और अनिल कौशिश से परिचय हुआ । उन्ही दिनों कुंवर बेचैन का गीत – संग्रह – पिन बहुत सारे का प्रकाशन हुआ था । उनके गीत मुझे बहुत पसंद था । उसमें मध्यवर्गीय जीवन के बिम्ब थे । वे गीतों में नये प्रयोग कर रहे थे । आगे चल कर वह मंच से जुड़े और निरंतर उनकी प्रतिभा का हनन होता गया । उनकी भाषा बदलती गयी । व्यवसायिकता कैसे कवि या लेखक को नष्ट करती है , वह इसके उदाहरण थे । जगदीश कश्यप और बलराम ने लघुकथा का दामन कभी नही छोड़ा । पिलखुवा में रहते हुये मैं दिल्ली , गाजियाबाद और हापुड़ घूमता रहता था । मुझे साहित्य का असाध्य रोग था । कवियों – लेखकों से मिलना मुझे सुख पहुंचाता था । यह आदत अब तक बनी हुई है । जगदीश विवादप्रिय था । वह लेखकों के खिलाफ लम्बे लम्बे पत्र लिखता था । जहां तक मुझे याद है कि वह मिनी – युग नाम से लघुकथा की एक पत्रिका निकालता था ।
मेरी मुलाकात वहां सोमप्रकाश शर्मा से हुई जो सोमेश्वर नाम से कहा.नियां लिखते थे । सारिका की लम्बी कहानियों की श्रृंखला में उनकी लम्बी कहानी – "चीजें तेजी से बदल रही हैं" प्रकाशित हुई थी। यह कहानी सम्भवत: 1972 के आसपास प्रकाशित हुई थी । इस कहानी में बदलते हुये मध्यवर्गीय जीवन के टूटते हुये मूल्य और आधुनिक होते हुये समाज के बारे में थी । मैं अपने छात्र जीवन में था । वह कहा.नी मेरा पीछा करती रही । उसके लेखक से मिलकर मुझे अपार खुशी हुई । सोमेश्वर आजाद तवियत और बोहेमियन स्वभाव के थे । वे दादरी के सुदूर गांव में पढ़ाते थे । एक बार मुझे तांगे से मुझे अपने स्कूल ले गये थे । वह तांगे की यादगार यात्रा थी । खाली सड़क पर घोड़े की टाप फिर तांगेवाले का घोड़े को ललकारना , एक दृश्य रच रहे थे । सड़क के दोनों तरफ फसलें थी – जो हवा में लहरा रही थी । उनसे मेरी दोस्ती हो गयी । उनके पार स्मृतियों का खजाना था । वे कुबेरदत्त ,अचला शर्मा जैसे लेखकों के समकालीन थे । फिल्मों के नायकों और रंगमच के अभिनेताओं के अभिनय के बारे में उन्हे गहरी जानकारी थी । अभी कुछ साल पहले हिंदी की एक पत्रिका नें जब उनकी इस प्रसिद्ध कहा.नी के पुन; प्रकाशन की योजना बनाई और उसके लिये सोमेश्वर से सम्पर्क किया तो यह कहा.नी उनके पास नही मिली । यह कहा.नी कमलेश्वर ने पत्रिका के सम्पादक को उपलब्ध कराई । उन दिनों उन्होनें लिखना बंद कर दिया था । मैंने उनके न लिखने पर सवाल उठाया तो वह बोले कि अगर मैं अपनी प्रकाशित कहा.नियों से बेहतर नही लिख पाता तो लिखने का क्या अर्थ है । सिर्फ लिखने के लिये लिखने का कोई औचित्य नही है । गाजियाबाद प्रवास के बाद मेरे तबादले – दर – तबादले होते रहे । जिंदगी में समस्यायें कम नही थी । एक को हल करो तो दूसरी सामने तैयार खड़ी हो जाती थी । मित्रों में केवल बलराम ऐसा था जो मुझसे जुड़ा रहा । मुलाकातों के मौसम कम होते गये । कुछ साल पहले जगदीश कश्यप हमसे रूखसत हो गये । उन्हें पीने का ऐसा रोग लगा कि वे अपने आप को बचा नही सके ।
गाजियाबाद प्रवास में विद्याभूषण अग्रवाल को नही भूला जा सकता । वे हिंदी के बरिष्ठ लेखिका ममता कालिया के पिता और रबींद्र कालिया के श्वसुर थे । वे रेडियो स्टेशन के निदेशक के पद से सेवामुक्त हुये थे । एक तरह से वे हम नये लेखकों के अभिभावक थे । हमें उनके साथ गप - शप करना अच्छा लगता था । उनके पास साहित्य के अनंत किस्से थे – जिसे वह मनोयोग से सुनाते थे । वे हमारे हेड – मास्टर और हम उनके छात्र थे । उनकी पास किताबों का जखीरा था लेकिन किसी को देते नही थे । हम उनकी किताबें देख कर ललचाते थे । जब उन्हें मालूम हुआ कि मैं पिलखुआ में रहता हूं तो उन्होने कहा कि वहां , एक गृहस्थ साधु भक्त रामशरण दास रहते है । वे सनातनी है । यह नाम मेरे लिये अपरिचित था । उनकी अवधारणायें अलग थी । उन्होनें हमें बताया कि जिसके पास अस्त्र नही है , वह अहिंसक नही हो सकता है । सभी देवी – देवताओं के हाथों में अस्त्र हैं । जब अग्रवाल साहब ने पूंछा – क्या भारत को परमाणु बम बनाना चाहिये तो उन्होने कहा – जरूर बनाना चाहिये । उनकी बातें सुनकर हम उत्तेजित हो जाते थे । उन्होने कहा कि गुस्सा तो जबाब देनेवालों को होना चाहिये , प्रश्न पूंछनेवालों को नही ।
वे दुर्दांत सनातनी थे । उनके पास हर बात के तर्क थे । वे सनातन धर्म के अंध – समर्थक थे । जिसे हम ढ़ोंग समझते थे , उसे वह अपने तर्क से सही साबित करने की कोशिश करते थे । असहमति – सहमति के बीच वे हमें बहुत दिलचस्प लगे । वे अपनी अवधारणाओं पर अडिग रहते थे । उनके घर में असंख्य मूर्तियां थी । वे हर मूर्ति की व्याख्या अपनी तरह से करते थे । वे प्रसिद्ध पत्रकार शिवकुमार गोयल के पिता थे । उनसे मिल कर मुझे अच्छा लगा था लेकिन इतना अच्छा नही कि उनसे पुन; मिलने की इच्छा हो ।
पिलखुआ रहते हुये हमारा केंद्र हापुड का सम्भावना प्रकाशन था । बलराम का आना – जाना लगा रहता था । एकाध बार जगदीश कश्यप भी आया लेकिन अपनी तुनुकमिजाजी के कारण वह खुद परेशान और लोगो को मुसीबत में डालता रहता था । अराजकता उसका प्रिय गुण था । दूसरे अराजक अमितेश्वर था । ये लोग न रहे तो महफिल में रौनक नही रहती थी । हापुड़ में बाबा नागार्जुन और व्यंग लेखक रबींद्रनाथ त्यागी का आना – जाना था । उन दिनों वे अपूर्ण – कथा नाम से एक उपन्यास लिख रहे थे । वे डिप्रेशन के साध्य रोगी थे ।शुरूवाती प्रेम के एक हादसे में बिदीर्ण हो चुके थे । दवाओं ने उन्हें जबाब दे दिया था । किसी मनोचिकित्सक ने उन्हें रायटिंग थेरेपी का सुझाव दिया । वे मेरठ कैंट के सर्वोच्च अधिकारी थे । वे उपन्यास का अध्याय लिख कर लाते थे और उसे पढ़ कर जार – जार रोते थे । बाद में यह उपन्यास हिंद पाकेट बुक्स से प्रकाशित हुआ । उन दिनों लेखक नफीस आफरीदी हिंद पाकेट बुक्स में सम्पादक थे । रबींद्र त्यागी ने हमें बताया थ कि तुम्हारा और बलराम का चेहरा एक दूसरे से मिलता है । हमने गौर से देखा तो बात सही निकली । बाद यह बात प्रमाणित भी हो गयी।
गाजियाबाद के डासना में टूरिंग टाकीज चल रहा था । मैं डासना से शो चेक कर गाजियाबाद रवाना हो चुका था । इसी बीच बलराम पिलखुआ पहुंचा , वहां उसे मालूम हुआ कि मैं डासना गया हुआ हूं । वह शाम के अंधेरे में डासना पहुंचा तो मैंनेजर ने यह समझा कि मैं पुन; लौट आया हूं । उसने बलराम से कहा – सर क्या बात है , आप लौट क्यों आये । बलराम ने कोई प्रतिवाद नही किया । सम्भवत: उसे मेरे भ्रम में मिठाई का डिब्बा मिल गया था ।
बलराम स्केच अच्छा बनाता था । एक बार बाबा नागार्जुन का स्केच बना कर उन्हें चकित कर चुका था । बढ़ती उम्र में याददाश्त दगा देती रहती है । कुछ किस्से मुझे याद है , कुछ बलराम की स्मृति में जरूर होगे । इन्ही किस्सों से जिंदगी चलती रहती है । हम पीछे मुड़ कर उन वक्तों को याद करने का सुख उठाते रहते है । हमारा जीवन इन्ही कहा.नियों से बनता – बिगड़ता रहता है । हम दोनो के चेहरे एक दूसरे से मिलते है और विचारों में भी साम्यता है लेकिन जीवन और उसकी परिस्थियां अलग – अलग हैं । अलग – अलग शहरों में हमारी स्मृतियों की जागीरे हैं । मिलने – जुलने के अवसर कम होते जा रहे है । बलराम शाहदरा – दिल्ली में रहता है और मैं धार्मिक शहर अयोध्या में रहता हूं । शायद हमारे जैसे लोगो के लिये फिराक ने लिखा था – अब याद – ए – रफ्तगां की हिम्मत नही रही / यारों ने इतनी दूर बसाई है बस्तियां ।
.............................................
स्वप्निल श्रीवास्तव – 510- अवधपुरी कालोनी- अमानीगंज – फैज़ाबाद – 224001
मोबाइल फोन - 09415332326
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें