शुक्रवार, 26 मार्च 2021

समकालीन लघुकथा और ‘अतिरिक्त’ के अंक-2 / बलराम अग्रवाल

 दिनांक 20-3-2021 से आगे… समापन किस्त

अंक छ:नवम्बर 1972। इसमें किशोर काबरा  की ‘ईसा और मैं’बृजेन्द्र नाथ वैद्य की

‘बिल्कुल हो जायगा’, कृष्ण कमलेश की ‘चेहरा दर चेहरा’,जगदीश कश्यप की ‘मुखौटा प्रिय’ तथा भगीरथ की ‘प्रतिबद्धता’ लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि ‘अतिरिक्त’ ने अबोधतावश पहन रखा ‘लघु कहानी’ का चोला अंक छ: में पूरी तरह उतार फेंका था। अंक-6 में प्रकाशित सभी लघुकथाएँ क्रमश: निम्न प्रकार हैं:

ईसा और मैं / डॉ॰ किशोर काबरा

ड्राइंग रूम की शोभा बढाता सूली पर लटका ईसा का खिलौना बड़ा सलौना. पर खिलौना आखिर खिलौना. बच्चे आखिर बच्चे. बच्चों ने ईसा को सूली से उतार दिया. पूछा तो बोले-बेचारे को तकलीफ होती होगी. मैं भभक उठाये क्या जाने कल के छोकरे बड़ों की इज्जत करना? अरे ! ईसा तकलीफ सहेगा या नहीं, पर यहाँ कोई देखेगा तो क्या कहेगा ? और मैंने ईसा को पुनः सूली पर लटका दिया. ड्राइंगरूम फिर चमक उठा.

बिल्कुल हो जायगा / बृजेन्द्रनाथ वैद्य

नेताजी की शिकायत सुनने गया था. आपके विभाग में बड़े घपले हो रहे हैं, सीनियर तो पड़े हुए हैं और नए प्रमोट होते जा रहे हैं. आखिर सिफारिश का बोलबाला कब तक चलेगा ? जनतंत्र में ऐसा नहीं होना चाहिए .... उनकी शिकायत रजिस्टर में दर्ज कर दी गई... फिर वे कुर्सी से सर टिकाते हुए बोलेआपके यहाँ बांकेबिहारी है न ; उनका प्रमोशन केस ....जी साब, कल ही हो जायगा ...बिल्कुल हो जायगा साब।

तभी, घडी का बड़ा सूचक तेजी से आगे बढ़ गया था, दूसरा कुछ धीरे से। दोनोंएक और न्याय-अन्याय की पुकार पर समझौता कर लेते हैं।

चेहरा दर चेहरा / कृष्ण कमलेश

इस बार जो आदमी अन्दर आया, बेहद पिए हुए था। एकबारगी वह उस पर झपट पड़ा।

पहले पैसे। उसकी पपड़ाई हथेली पर एक तुड़ा-मुड़ा नोट आ गया। ...उसे बेहद तकलीफ हो रही थी, पर वह चुपचाप पड़ी रही। ....साली हरामजादी में दम ही नहीं है। मुफ्त के पैसे लेती है। लड़खड़ाते हुए वह बाहर निकल गया। पेंट के बटन ठीक करने का भी उसे होश नहीं था।

एक कराह के साथ वह उठ बैठी। अंगिया से तुड़ा-मुड़ा नोट निकालकर देखा। उजाले में अच्छी तरह देखा। नकली था। उसने अंगिया उतार फेंकी। कपड़े की दो गेंदें लुढ़ककर कोने में चली गईं, टकराई और ठहर गईं।

मुखौटा प्रिय / जगदीश चन्द्र कश्यप

एक दिन उसने प्रसिद्धि का मुखौटा कहीं से प्राप्त कर लिया। मेरी और उसकी दोस्ती की रेखाएँ तब बिल्कुल समानांतर हो गई थीं।

वह किसी कॉलेज में प्रोफ़ेसर था। उसके संपर्क में कितनी ही लड़कियाँ आई—शिष्याओं के रूप में। जैसे-जैसे वे उसका मुखौटारहित चेहरा देखतीं–किनारा करती जातीं। कहीं मुखौटे का औचित्य ही खत्म न हो जाय—उसने निहायत ही खानदानी, प्रखर व सर्विस में लगी एक लड़की से विद्रोह कराया और धर्मपत्नी के रूप में प्रतिष्ठापित किया।

एक दिन एक लड़की वही मुखौटा लिए उसके घर पर उपस्थित हुई। तबसे वही लड़की उसकी सब कुछ है। उसकी धर्मपत्नी के अधिकार उसने छीन लिए हैं—ऐसी मुझे खबर मिली है।

प्रतिबद्धता / भगीरथ

उसने जीवन के सपने संजोये थे। पर वे चटखते रहे, टूटते रहे। ठीक उस शीशे की तरह, जिसमें उसकी असली शक्ल कई खानों में विभक्त होकर टूटने का एहसास दे जाती है। पर बुद्ध जीवन [इच्छाविहीन] कैसे कर कल्पना होगी !

बेकारी के दिन व्यतीत करते हुए कितना फ्रस्ट्रेशन हुआ था उसे। सब सम्बन्ध अर्थहीन और निरर्थक हो गए थे। ये दिन मानसिक तौर पर बहुत ही यातनाजनक होते हैं। वह करीब-करीब विक्षिप्त-सा हो गया था।

वह पूर्ण विक्षिप्त होने से बच गया। उसे नौकरी मिल गई। पैसा पास में आया। उसकी कद्र हुई। यहाँ तक कि उसने खुद अपनी कद्र की।

वह सरकारी नौकरी में है, इसलिए वह सरकारी विचार से प्रतिबद्ध है। उसकी अपनी किसी मूल्य के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है; क्योंकि उसका मूल्य उसकी भूख है, उसकी असुरक्षा है। इसीलिए उसकी प्रतिबद्धता भी शायद उनसे ही है।

जीवन परिधि में बँध गया। परिधि सुनहरे प्रकाश वाली। उसके अन्दर एक भयंकर घुटनभरा अंधकार और वह प्रकाश की चकाचौंध में अंधकार में ही डूबा रहा।

[भगीरथ जी के अनुसार, ‘प्रतिबद्धता’ शीर्षक यह लघुकथा ‘आत्महंता’ शीर्षक से ‘पेट सबके हैं’ (1996) में प्रकाशित हुई लेकिन कुछ परिवर्तित रूप में]

अंक सात, दिसंबर 1972 में शशि कमलेश का एक लेख ‘आठवाँ दशक और लघुकथा का रचना औचित्य’ प्रकाशित हुआ। इस लेख में वर्णित चिंताएँ कुछेक बदलावों के अथवा सुधारों के बावजूद आज भी ज्यों की त्यों हैं। शशि कमलेश के लेख के अतिरिक्त इस अंक में मात्र एक ही रचना समा सकी, वह है—रमेश जैन  की लघुकथा ‘कुतिया’। प्रस्तुत हैं शशि कमलेश का लेख तत्पश्चात् रमेश जैन की लघुकथा :

आठवाँ दशक और लघुकथा का रचना औचित्य / शशि कमलेश

ये उपेक्षित लघुकथाएँ

हर काल खण्ड समाज के विकास क्रम में कुछ न कुछ अलग होता ही है तो फिर साहित्य की विधा उस अलगपने से , उस बदलाव से अछूती कैसे रह सकती है. मिनी नवगीत मिनी कविता लघुकथा मिनी रूपक आदि के आंदोलनों से जिनमे पर्याप्त अर्थवत्ता भी है. लघुकथा का अभियान ज्यादा पुराना और एक हद तक ज्यादा सही भी लगता है.

संस्कृत के पंचतंत्र और हितोपदेश, फिर खलील जिब्रान और हिंदी साहित्य में रावी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, हरिशंकर परसाई, हंसराज अरोड़ा, डॉ श्रीनिवासन,कमलेश भारतीय,मोहन राजेश,सुशीलेंदु, रमेश यादव, लक्षमेंद्र चोपड़ा,रमेश बतरा कृष्णा अग्निहोत्री भगीरथ कृष्ण कमलेश बृजभूषणसिंह मधुप मगध शाही लक्ष्मीकांत वैष्णव पुरुषोत्तम चक्रवर्ती अवधेश अमन शशि राजेश विष्णु सक्सेना आभा जोशी सुषमा सिंह तक में यह सिलसिला चला आ रहा है.शताधिक लघुकथाएँ इसी दशक में इधर उधर छपी है लेकिन सामायिक लेखन के नाम पर की गई किसी भी टिपण्णी में उनका जिक्र क्यों नहीं है? यह मेरी समझ के बाहर है.शायद लघुकथाओं का कोई सुरक्षित शिविर न हो या क्या पता अधिकांश लघुकथा को अपनी केन्द्रीय विधा मानकर न चल प् रहे हों और इसे महज पास टाइम मानते हों.

सारिका, कात्यायनी, अमिता, अंतर्यात्रा, रूपाम्बरा, कहानीकार, सप्तांशु, शताब्दी, सौर चक्र, जनसंसार, भास्कर,मिलाप, स्वदेश,अतिरिक्त आदि पत्र पत्रिकाएं जहाँ लघुकथाएँ निरंतर छपती रहती है वहां मरुगंधा,कहानी,नै कहानियां निहारिका आदि लघुकथाएँ छपने से परहेज करती है. व्यवसायिकता के कारण आम तौर पर सोलह या सत्रह फुलस्केप साइज़ के पृष्ठों की कहानी ही छपती है. लम्बी कहानी नारा भी शायद इसी लिए शुरू हुआ. फिर लम्बी कहानी को लेकर सारिका ने काफी हाय तौबा भी मचाया, क्या लघुकथा के खिलाफ साजिश नहीं है ?लोग चुटकले छाप सकते हैं, रंग-व्यंग्य छाप सकते हैं लेकिन लघुकथाओं के साथ अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं का यह सौतेला व्यवहार गंभीर चिंता और खेद की वास्तु है.

गलत आरोपों की शिकार लघुकथाएँ

लघुकथा एक सुगठित विधा है. सामान्यत: यह पैनी, सीधी और कंडेंस्ड होती है. कुछ इतनी कि किसी एक क्षण को जीती लगे, घेरती लगे.शायद यह किसी फॉर्म की तलाश है. कितनी ही चीजों से लघुकथा को अलग होना पड़ा है. गुलिस्ता-बोस्ता की उद्देश्य परकता, नीति कथाओं का केन्द्रीयपन, गद्यगीत की भावुकता आदि आदि. इसीलिए संत्रास [श्री हर्ष ], मांस [हंसराज अरोड़ा], अलगाव [रूपकिशोर मिश्र], प्रतीक्षा [रमेश यादव], चेहरा दर चेहरा [कृष्ण कमलेश] में गजब की बेववता है. और ये लघुकथाएँ अपने में सधी हुई है. प्रतीक्षा में अस्वीकृत और बाद में अवसरवादी बनजाने वाले लेखकों से अधिक लेखकीय और प्रकाशकीय व्यवस्था पर तीव्र व्यंग्य है.

कहने वाले कुछ भी कह सकते हैं. यह भी कि अधिकांश लघुकथाएँ जो आज छपती है, बड़ी कथाओं का छोटा रूप है या ये छोटी कथाओं में तबदील हो सकती है. दोनों ही बातें यह प्रमाण देती हैं कि विधा की उस हैसियत तक ये कथाएँ नहीं पहुंची है. जब तक ट्रांसफर संभव न हो, लघुकथा हार जाती है.

ऐसे लोग जो बाल की खाल निकालने के आदी हैं उन्हें एंटीकरप्शन [मोहन राजेश], वह [शशि कमलेश], शक [राजकुमार कपूर], गिनती [श्याम नारायण बैजल]सिर दर्द का इलाज [विनोद प्रिय] आदि लघुकथाएँ पढ़नी चाहिए. जहाँ तक मैं जानती हूँ, कोई भी लघुकथा ऐसी नहीं है जो बड़ी कथा में तबदील नहीं की जा सके और कोई भी कहानी ऐसी नहीं जिसका लघुकथा में रूपायन संभव न हो.आरोप लगाने वाले कुछ भी आरोप लगा सकते हैं लेकिन कथाओं का रिवाज उनके इल्जामों से सवालिया कटघरे में नहीं आयगा.

गोष्ठियों के निष्कर्ष

मथुरा, भोपाल, पिंजोर, नसीराबाद, हैदराबाद, ग्वालियर, ब्यावर, आदि विभिन्न शहरों में लघुकथा के रचना औचित्य को लेकर विचार गोष्ठियां आयोजित की गई. गोष्ठियों में प्रायः सभी इस बात पर सहमत प्रतीत हुए कि लघुकथाएँ आधुनिक युगबोध को लेकर बड़ी ईमानदारी से चल रही है. संत्रास [श्री हर्ष ], जहाँ एक क्षेत्र, एक दायरे विशेष की मानसिकता उभारती है वहां भीड़ [ लक्षमेंद्र चोपड़ा] किसी दायरे में यकीन नहीं रखते. युगधर्म [लक्ष्मीकांत वैष्णव] बाहरी और भीतरी दोनों स्तर पर चलती है, स्थितियों और आक्रोश की उनमे बड़ी गहरी पकड़ है. संतोष, कृपा, दया [विष्णु सक्सेना] एक सूक्ति कथा या बोधकथा जैसी प्रतीत होती है लेकिन उसका रूपक विधान रेखांकन योग्य है. लघुकथा के लिए रूपक [एलीगेरी] आउट ऑफ़ डेट हो गया है या नहीं, यह कह सकना खतरे से खली नहीं है.क्योंकि समकालीन हिंदी कहानी के नाम पर भी रूपकों, प्रतीकों, बिम्बों के सहारे रचना तंत्र बुना गया है.

अन्य लघुकथाओं में : एक युवक सिफारिश, रिश्वतखोरी और अन्य स्थानीय मुद्दों से समझौता न करने के कारण ओवर एज हो जाता है [ओवर एज-आभा जोशी]. एक व्यक्ति जो फ़ौज में भारती होने जाता है उसे छाती के बदले पेट का माप पहले दिखाई देता है [पेट का माप-सुशी लेंदु]. एक व्यक्ति जो भीड़ भाड़ की समस्या से त्रस्त है महानगर बोध उसे आहत किए हुए है सडक पार करना चाहता है और सडक पार नहीं कर पाता [वह शशि कमलेश]. आदमी आज जानवरों से भी गया बीता है और उसकी लड़ाई गधों की लड़ाई से भी गई गुजारी है [गंदर्भ युद्ध- प्रताप अपराजित], ज्योतिष और हस्तरेखा का ढोंग करने वालों की कलई खुलती जा रही है [पामिस्ट- मोहन राजेश], लबादा ओढ़े हुए ईमानदारी भीतर से कितनी नंगी है [व्यक्तित्व-मधुप मगधशाही ].सामाजिकता के नाम पर बाराती कितना शोषण करते हैं [बाराती-श्रीकांत चौधरी], आदमी किसी की सहानुभूति का पात्र बनना नहीं चाहता [कछुए –भगीरथ] आदि ऐसी दर्जनों लघुकथाएँ हैं जो समाज के ऊपरी और भीतरी तौर पर चलने वाले कयास को ध्वनित करती है. [कांच का घेरा-अवधेश कुमार अमन ]इकाई के टूटने की ऐसी ही छन्न सी आवाज है.

प्रश्न-प्रतिप्रश्न

बहरहाल, लघुकथाएँ लिखी जा रही है और लिखी जाती रहेंगी. सिलसिला सदियों पुराना है लेकिन सिलसिले को देखने वाली आँख [आँखें] कुछ और साजिशों में लगी है. कुछ सवाल अनायास उभरते हैं क्या नई लिखी जानेवाली हर कथा बासी नहीं लगती है ? शायद फार्मूलाबाजी के कारण जो अब लघुकथाओं में भी आ गई है. यदि कोई रचनाकार लघुकथा के लिए ही विशुद्ध रूप से समर्पित रहे तो बात कुछ बन सकती है जैसे रावी लेकिन जो लोग हर विधा में अपनी टांगअड़ाए रखना चाहते हैं जैसे प्रभाकर माचवे वे लोग सामायिक लेखन का न तो सही प्रतिनिधित्व करते हैं और न कर सकते हैं. समय तो उस फ़िल्टर पेपर की तरह है जिसमें काम की चीज छन कर रह जाती है.

कुतिया / रमेश जैन

मैली चादर पर पड़ी सलवटें धुआँ खाई छत तक रही है. वह नि:शब्द कमरे के एक कोने में खड़ी बिस्तर देख रही है.शायद उसे बाहर से आते शोरगुल की तनिक भी चिन्ता नहीं है. पर वह अधिक देर तक वैसा नहीं कर पाई. बाहर का शोर तेजी से अन्दर घुसाने लगा. दोपहर बासी मुर्दे की तरह सड़ने लगी. बच्चे भी बाहर आपस में गाली गलौज करने लगे.

पिछले वर्ष इसी बिस्तर पर मरते समय उसके पति से कहा था कि वह उसके बच्चे को पढ़ा लिखाकर होशियार बनाएगी. पर कुछ दिनों से वह मुन्ने को होशियार बनाने के चक्कर में स्वयं असुरक्षित रहने लगी है . कभी वह तो कभी वह. अब तक पता नहीं किस किस को अपने शरीर पर चढ़ा चुकी है.

वक्त कोड़े लगाता रहा, वह खाती रही.

बिस्तर से ध्यान हटाकर वह सोचने लगी –जल्दी ही रुपयों की व्यवस्था न हो पाई तो मुन्ने को किसी अच्छे स्कूल में दाखिला नहीं मिल पाएगा. वह नहीं चाहती –मुन्नू इन गंदे बच्चों की सोहबत में किसी मामूली स्कूल में अपनी जिंदगी सड़ने दे.

वह दृढ निश्चय में खो गई.

उसने तय किया –वह शाम को रामू गाड़ीवान से मिलेगी. पन्द्रह बीस मिनट की तो बात है. फिर वह निश्चिन्त हो गई.

अंक आठजनवरी 1973 इसमें मात्र दो लघुकथाएँ हैं—कृष्णा अग्निहोत्री की ‘न्याय’ तथा श्रीहर्ष की ‘आदेश’। ‘रचना बोध’ स्तम्भ के अंतर्गत अन्य पत्रिकाओं के बारे में चर्चा प्रस्तुत की गयी है। अंक-8 की दोनों लघुकथाएँ निम्न प्रकार हैं:

न्याय / कृष्णा अग्निहोत्री

उसका पिता शहर का नामी वकील....वह एक योग्य होनहार, एम ए एल एल बी लड़का, पिता ने बेटे से स्वतन्त्र रहकर कार्य करने का अनुरोध किया, परन्तु वह शासक बनकर सबके साथ न्याय करने को आतुर था.

बुद्धिमान बेटे का चयन सिविल जज के लिए हुआ. वह बहुत अच्छे ढंग से कार्य करता रहा लेकिन नई पीढ़ी का महत्वाकांक्षी युवक और आगे बढ़ने लगा, भाग्य से आइ ए एस की लिखित परीक्षा में वह मेरिट लिस्ट में आ गया, इंटरव्यू कार्ड पाते ही पिता कि वे उसके लिए भागा दौड़ी करेंगे, बेटे को अपमान का अनुभव हुआ.

-नहीं पिताजी, चाहे मैं इंटरव्यू में किसी भी नंबर सिलेक्ट हूँ, आप यह सब मत करिए, जो लड़का मेरिट में है वह सिलेक्ट तो होगा ही.

इंटरव्यू संपन्न हुआ बुद्धू साथियों का सिलेक्शन हुआ,रोष एवं ताव में आकर लड़के ने सेन्ट्रल गवर्नमेंट को इंटरव्यू में हुए अन्याय के प्रतिरोध में एक आवेदन भेजा.

उन्होंने उसके विभाग को लिख कि फैसला करें, कुछ दिनों बाद न्याय विभाग से एक लिफाफा मिला कि तुम्हारी सेवाओं की अब शासन को आवश्यकता नहीं.

लड़के अब समझ में नहीं आ रहा था कि न्याय मांगने कहाँ जाए? .

आदेश / श्रीहर्ष

प्रधानमंत्री अपने शयन कक्ष में आदमकद शीशे के सामने खड़े होकर चहरे को पौंछ रहे थे और शीशे में ही किसी नए मुहावरे को खोज रहे हैं .रजत जयंती तक तो गाड़ी चल गई आगे क्या होगा? आराम हराम से लेकर गरीबी हटाओ समाजवाद लाओ तक की यात्रा में बहुत कुछ बना बिगाड़ा लेकिन अब कैसे चलेगा ? पसीने की बूँदें ललाट पर उभर आई-शीशा हंसने लगा ! एयर कंडीशन कमरे में भी पसीना ! शीशा ही बोलने लगा –मुहावरा झुनझुने की तरह जनता में बजता है और फिर अपनी आवाज खोकर जनता के सिर से टकराने लगता है, तब चरों ओर खलबली मचती है, एक के बाद एक परेशानी.

निजी सचिव का प्रवेश- सर ! फिर सब प्रान्तों में लोग एक साथ्मिलकर नारे लगाने लगे हैं-क्या सारी चलें उल्टी पड़ने लगी है ? ...यस सर ... चीजों के दाम .... ठीक है ...ठीक है, मैं अख़बार पढता हूँ, यह सब दिखावटी चीखना चिल्लाना है.देश का स्तर जब उठेगा, चीजों के दाम भी बढ़ेंगे, जिन्हें यह देश महंगा लगे वे किसी दूसरे देश में चले जाएं , कौन कहता है गरीबी नहीं मिट रही है ? मैं कल ही हवाई जहाज से गाँवों को देख रहा था मुझे छोटे छोटे बच्चों की आँखों में मुस्कान की चमक दिखाई दी.मुझे विश्वास हो गया कि देश से गरीबी मिट रही है.

दूसरा सचिव- कुछ संसद सदस्य देश की महंगाई के बाबत आपसे मिलाने आए हैं...—उन्हें कह दो कि अभी इस समस्या पर विचार करने का समय नहीं आया है, हमें अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर सोचना-विचारना चाहिए.

बाहर-जनता एक स्वर में चीजों के बढे दामों के प्रतिवाद में नारे लगा रही है, भीतर प्रधानमंत्री पांडिचेरी की माताजी द्वारा भेजे गए लाल फूलों को सिरहाने रखकर पलंग में धंस रहे हैं.उनके आदेशानुसार पुलिस गोली चला रही है.

अंक नौ। इस पर महीना अंकित नहीं है, मात्र 1973 अंकित है। यह अंक ‘नारी अंक’ था। इसमें प्रभा सिंह की ‘सत्याग्रही’कमलेश धवन की ‘चश्मा दर चश्मा’कृष्णा अग्निहोत्री की ‘मातम’ लघुकथाएँ थीं। इनके अलावा कृष्ण कुमार भट्ट पथिक की ‘अतिरिक्त विचार’ शीर्षक से एक सामान्य टिप्पणी प्रकाशित है।

यहाँ एक तथ्य की ओर सभी का ध्यान दिलाना जरूरी समझता हूँ। यह कि ‘कमलेश धवन’ जगदीश कश्यप का ही छद्म नाम है। बेशक, इस नाम की लड़की उनके परिचय में थी, लेकिन वह लेखिका नहीं थी। जगदीश ने प्रेम के वशीभूत हो उस नाम के साथ संयुक्त रूप से, सह-लेखक का प्रयोग करते हुए भी कुछ रचनाएँ लिखीं। बाद में, जैसा कि उस काल में होता ही था, झगड़ा हुआ। बात थाने तक पहुँची और उन्हें ‘सरस्वती पुत्र’ भी लिखनी पड़ी।

सत्याग्रही / प्रभासिंह

वे सत्याग्रह करने आई थी। भूखमरी, बेरोजगारी, पिछड़ापन दूर करने और शिक्षा व्यवस्था को नया मोड़ देने के लिए।

वे राजनीति नहीं समझती थीं फिर इन सारी समस्याओं से ग्रस्त थी। जाड़े की हड्डी कंपा देने वाली सर्द रातों के लिए, एक कम्बल तक उनके पास नहीं था। और शरीर पर चिथड़े ही चिथड़े थे।

दल की ओर से सत्याग्रह और फिर गिरफता्री में, महिलाओं का नाम आ जाने से सत्याग्रह का रिकार्ड कायम हो जाता। बस इसी आधार पर वे सत्याग्रही दल के नेताओं द्वारा फुसलाकर लाई गई थी।

तीन दिनों के निरंतर प्रयास के बाद भी वे जेल नहीं ले जाई गई तो नेताओं के लिए वे बेकार साबित होने लगी और वे लोग उन्हें टरका देने के उपाय सोचने लगे।

चौथे दिन दल के नेताओं ने सुबह में कार्यालय खाली पाया। वे चली गई थी पर कार्यकर्ताओं के धोती, लोटा और कुछ कम्बलों के साथ ही।

वे अपने अभियान में सफल रही थी, जबकि नेताओं का सत्याग्रह विफल गया था।

चश्मा दर चश्मा / कमलेश धवन

उसने पिता को बताया कि वह उससे प्रेम करती है और उसीसे विवाह करेगी. पिता उत्तेजित नहीं हुए उन्होंने उसे एक चश्मा दिया.

उस चश्मे से जब उसने अपने प्रेमी को देखा तो वह एक वहशी, गन्दा और नीच आदमी लग रहा था. अपनी माँ को गन्दी गन्दी गालियाँ देता हुआ पीट रहा था. बुढ़िया चिल्ला रही थी. वह लेखक के स्थान पर गुंडा था.

उसने घबरा कर चश्मा उतार दिया. जब उसने प्रेमी का दिया चश्मा लगाया –वह उसमें एक खानदानी महान लेखक व प्रतिष्ठित व्यक्ति को देख रही थी. जिसकी आगोश में उसने कितनी ही हसीं रातें बिताई थीं. चारों ओर रंगीनी थी-चांदनी रात और मौन प्रेमालाप में दोनों घंटों डूबे रहते.

उसने तत्काल ही पिता द्वारा दिया गया चश्मा जमीन पर दे मारा, जिसके छोटे छोटे कण उसकी अँखियाँ चुंधिया रहे थे.

मातम / कृष्णा अग्निहोत्री

मिनी बस की बीस-पच्चीस सीटें. लगभग चालीस सवारी. कुछ सीट मोढों पर और कुछ खड़ी हुई.

वे थे पांच, शीघ्रता से चढ़े. कुछ परेशान, त्रस्त और घबराए हुए.

हाय री बहना धक् से रह गई. भाभी बेचारी शादी के लिए पहनावा लेकर गई रही और रास्ते में हार्ट फेल हो गया.

हाथ में तार देखकर मैं तो सिटपिटा गई, छोटे-छोटे बच्चे, परीक्षा का समय और घर में काऊ नाहीं! जैसे-तैसे इन्तजाम करके आई हूँ. न जावे तोऊ बदनामी. एक ठो भाभी रही. वैसे अपन बहन की पहचान रही तो कीमती कपडे ले गई रहे, मोर तो बच्चों को एक कमीज का कपड़ा भी मुश्किल से देत रही.

यही बात तो कहने को आती है, कभी सुख में उसने नन्द समझकर याद नहीं किया. अब कहाँ तो मंदसौर और कहाँ बरहानपुर. सौ रुपये टूट जाएंगे! समझ लो पानी में गए.

हाँ री मरनेवाली ने जीते जी तो बांधकर रखा नहीं और मरकर भी कष्ट दे रही है जाड़े में.

बडवाहा आ रहा है, तुम लोग वहां उतरना. उनके साथ के आदमी ने कहा.

क्यों?

अरे अभी तो खण्डवा फिर बरहानपुर पूरे छ घंटे में पहुचेंगे. रातभर जगे हैं. वहां जाने से तो मातम करना ही पड़ेगा, यहीं डटकर नाश्ता पानी कर लो. जैसे-तैसे नींद की झपकी लेकर वहां के रोने धोने को ताकत जुटा लो.

‘अतिरक्त विचार’ / कृष्ण कुमार भट्ट पथिक

प्रिय भाई,

दिसंबर अंक. शशि कमलेश का लेख ऊपरी सतही बात कहता है. उपलब्धि के नाम कमलेश ने अपने लोगों के नाम ही गिनाए हैं. यह बात आम पाठक के लिए नासमझी की बात है कि लघुकथा की महत्ता बताने के लिए लम्बी कहानी को क्यों कोसा गया है? लघुकथा की रचना प्रक्रिया लेख से गायब है और लेख के उदाहरण बताते हैं कि लेखक केवल लघुकथा लिख रहा है. एक अच्छी बात यह है कि ‘अतिरिक्त’ लघुकथा को समर्पित है और उसके पिछले अंक प्रमाण हैं कि ‘अतिरिक्त’ की लघुकथाएँ नपुंसक नहीं है. आदमी के चेहरे के आसपास घूमती है. यह तो आपके भावी प्रयास ही बताएँगे कि ‘अतिरिक्त’ आज के आदमी को कितना पकड़ सका है, हाँ, ‘अतिरिक्त’ कुछ करने का आश्वासन जरुर दे रहा है.

अंक दस  महीना  इस पर भी अंकित नहीं। वर्ष 1973। इसमें अनूप कुमार जैन की ‘समाजवाद का मुखौटा’मधुप मगधशाही की ‘सॉरी’ और जगदीश किंजल्क की ‘नियुक्ति’ लघुकथाएँ प्रकाशित हैं। 

समाजवाद का मुखौटा –अनूपकुमार जैन

जनप्रिय नेता विशाल जनसमूह के आगे आह्वान कर रहा था—भाइयों हमें समाजवाद लाना है और उसके लिए सभी को तैयार रहना है. अब कोई भूखा नहीं रहेगा –सबको रोटी, कपडा, मकान मिलेगा. जिनके पास फालतू पैसा है, उससे छीनकर जरूरतमंद लोगों में बांटा जायगा. इस पर तालियों की गडगडाहट हुई.

सुना नहीं, मैंने कहा बाहर निकल जाओ,सुबह सुबह आ जाते हैं साले.’ मैं ठिठक गया. जनप्रिय नेता लॉन में टहल रहा था. उस आदमी की गोद में कुम्हलाया बच्चा आतंकित सा इधर-उधर देख रहा था. सेठजी, मेरी बीबी की हालत खराब है, दवा दारू के लिए पच्चीस रुपये और दे दो.

हूँ’ एक तो चार दिन से काम पर नहीं आ रहा है और उल्टा तुझे पच्चीस और दूँ. पचास रुपये महीना लेता है और अब तक सत्तर रुपये ले चुका है. जाओ मैंने दूसरा नौकर रख लिया है. मेरे जितने रुपये निकलते हैं,जाओ माफ़ किए.

सेठजी, मेरी गरीबी का ख्याल करके ऐसा जुल्म न ढाओ और फूट-फूट कर रोने लगा.

हूँ’ गरीबी मिटने का ठेका मैंने ही लिया है क्या? देश में और लोग मर गए. अपने नेताओं के पास जाओ जो गरीबी मिटा रहे हैं, मांगो उन्हीं से पैसा. भाइयों, फालतू पैसा जरूरतमंद लोगों में बांटा जायेगा आदि शब्द मेरे कानों में पिघले शीशे की तरह खौलने लगे.

सॉरी –‘मधुप’ मगधशाही

गोया क़यामत के बाद उसका नंबर आया, ‘मे आई कम इन सर’ उसने [आया राम –गया राम] पल्ले के बाहर खड़े होकर कहा.

कम इन’ भीतर से आवाज आई. वह अन्दर आ गया. सामने लम्बी सी मेज के पीछे दबे आदमी ने उल्लू की तरह आँखे मिचमिचाकर पूछा- नाम ? ‘जी, गौतम.’कुछ पढ़े लिखे ?’ ‘जी, मैं ग्रेजुएट हूँ.’तो आप जा सकते हैं,’ और कुर्सी पर के आदमी की नजर उसके सिर से ऊपर फोकस लाईट की तरह उठ गई.

मगर मैं तो नौकरी के लिए...’’ उसने फोकस को अपनी सीध में उतारने की गरज से कहा.

ठीक है, लेकिन हमें लेबर के लिए मामूली पढ़े लिखे या अपढ़ आदमी की जरूरत है; ग्रेजुएट की नहीं.

उसने साहस से काम लिया, कहा, ‘क्लेरिकल जॉब भी कहाँ मिलता है सर! उधर तो सारी सीटें पहले ही से भरी है, इधर भी नहीं मिला तो ...’

मज़बूरी है.’ उस व्यक्ति ने सहानुभूति में चेहरे को सिकोड़ लिया , ‘एक ग्रेजुएट लेबर का काम करे, यह अपमान होगा मुझको पसंद नहीं. सॉरी

उसने सोचा –सामनेवाले ने साफ-साफ यह नहीं कहा कि एक ग्रेजुएट से लेबर का काम होगा नहीं. वह लौट पड़ा.

नियुक्ति – जगदीश किंजल्क

सरकार ने तीन सदस्यों की एक इंटरव्यू कमिटी नियुक्त की. कमेटी ने चार सौ उम्मीदवारों का साक्षात्कार लिया. कुल सोलह स्थान भरे जाने थे. साक्षात्कार के मध्य एक एम् ए बी एड लड़की आई और साक्षात्कार देकर चली गई.

बड़ी इंटेलीजेंट लड़की है.’ खन्ना ने आँखे मटकाकर कहा.

माना लड़की इंटेलिजेंट है. इस पद के लिए सर्वथा उपयुक्त है पर कैंडिडेट किसकी है?’ तिवारीजी ने गंभीरता से पूछा,पर उनका प्रश्न अनुत्तरित रहा.

किसी मंत्री का फोन है इसके लिए? चड्ढा ने उत्सुकता से पूछा. तिवारी ने कमिटी के हेड के नाते सिर हिला दिया.

थैली वाली भी नहीं यह?’ खन्ना के चेहरे पर आशा की लहरें दौड़ रही थीं.

नहीं यार, यह मात्र कैंडिडेट है.’ तिवारी जी ने उदास होकर कहा. इस पर चड्ढा ने घूरते हुए कहा, ‘तब क्या राय है इसके बारे में?’

ख़ामोशी में कुछ पल बीते पर तभी खन्ना ने कमेन्ट किया, ‘हटाओ यार जाने दो. ऐसे सूटेबल कैंडिडेट तो न जाने कितने मिलेंगे. पर हम किस किस को लेंगे? फिर इसके लिए तो...’

इस बीच तिवारी जी ने आवाज लगा दी, ‘नेक्स्ट कैंडिडेट.’

 अंक ग्यारह  पर भी महीना  अंकित नहीं। अनुमानत: माना जा सकता है कि यह नवम्बर माह रहा होगा। वर्ष 1973  में प्रकाशित इस अंक में धनराज चौधरी की  ‘आधुनिक’बलराम ‘रवि रश्मि’ [बलराम अग्रवाल पहले इसी नाम से लिखते थे—भगीरथ की टिप्पणी] की ‘अपने पाँव’, कृष्ण कमलेश की ‘अपरिभाषित’ लघुकथाएँ प्रकाशित हैं। अंत में नौवें अंक की लघुकथाओं पर प्रतिक्रिया देते हुए मधुप मगधशाही और हंसराज अरोड़ा के पत्रांश छपे हैं।

आधुनिक –धनराज चौधरी

द्युमत्सेन पुत्र सत्यवान क्लब से थका हारा रात बारह बजे घर पहुँचता है. पीक थूक, ताला खोल, सुवेगा अन्दर ली. अश्वपति पुत्री सावित्री निद्रामग्न है. वह पास आ प्यार से पुकारता है, ‘सावित्री!’ सुप्त पत्नी अविचलित रहती है. सर्द हाथ प्यार से सावित्री के चेहरे पर फेरता है. निद्रा में विघ्न पड़ने पर नेत्र बंद किए ही वह गुस्से में पूछती है, ‘क्या है?’

खाना डालो प्रिये!’ सत्यवान के स्वर में मिठास है. पर वह अनसुना कर देती है. अपमान सा महसूस करते हुए वह दोहराता है, ‘खाना लगाओ भई!’मुझे नींद आ रही है, खुद ही ले लो.’ और रजाई मुंह पर खींच लेती है. लाचार सत्यवान मुड़ते हुए बडबडाता है, ‘कलयुग तेरी दुहाई! यह जन्म-जन्म की साथिन कथित पतिव्रता, मेरे लिए आरामदेह रजाई तक नहीं छोड़ सकती. क्या आशा करूँ क्लब में कट करते समय शापवश यदि मृत्यु हो जाय तो मेरी प्राण भिक्षा के लिए यमराज का पीछा करेगी.’

अपने पाँव- बलराम ‘रवि रश्मि’

दो साल पहले ही डायरी में लिखा था आत्म सम्मान की रक्षा के लिए मैं सब कुछ बलि चढ़ा दूंगा. उन दिनों पिता के हाथ मेरे आधार थे.

कुछ दिनों पूर्व अपने पांवों पर खड़ा होना निश्चित किया. सर्विस के लिए अनचाही पटरियों के समानांतर दौड़ना पड़ा. सम्मान समाप्त! अनजाने लोगों के सामने याचनाएं की आत्म सम्मान समाप्त!! सभी समझाते- भई सर्विस में सभी का भला बुरा सुनना पड़ता है.

जी, मैं स्वीकारता.

सोर्स लगाकर एब्जोर्ब हो जाना आसान है-काम करना नहीं, फाइल को ट्रे में पटक कर बॉस कहता है- यह ऑफिस है बाप का घर नहीं.

‘......’ मैं सॉरी भी नहीं कह पाता हूँ.

गेट आउट!’ तुरंत आज्ञा पालन करता हूँ. अपने पांवों की बजाय पिता के हाथों पर खड़ा होता –तो अभी इसकी मक्खी झाडे देता.

अपरिभाषित –कृष्ण कमलेश

सुखी दाम्पत्य जीवन को परिभाषित करना इतना आसान होता तो वह बड़े मजे में कह देता ......वह सुखी है, क्योंकि ....

लेकिन वह दुखी भी नहीं था. क्या नहीं था उसके पास, दहेज़ में मिली नई कार, पुश्तैनी बंगला, नौकर-चाकर, दोस्तों के बेफिक्र ठहाके ....क्लबों की रंगीनियां.

वह इस सब में सरोबार डूब चुका था. इन सारी रंगीनियों में ....लेकिन..... ! कुछ था ऐसा, जो कभी भी कचोट जाता उसे. पीने को बढ़िया शराब और पिलाने को नाजनीन साकी. शराब उसे अब खुमार नहीं देती –महज एक आदत या जरुरत जो भी कह लें.

जिस्म बदलते हैं, बिस्तरों पर बिछानेवाली चादरों की तरह. कोई हम बिस्तर उसे स्वर्गीय सुख नहीं देता.

बदले बैडशीट, बदले हम बिस्तर. बदले सन्दर्भों में वही ऊब पाए. लड़की ठंडी हो या गर्म उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. लड़की चाहे पेशेवर हो या ठेठ गृहस्तिन...

-और उसे लगता कोठे की औरत और कोठी की औरत में कोई फर्क नहीं है.

अतिरिक्त विचार

अंक -९ की तीनों ही लघुकथाएँ काफी सुन्दर है, सत्याग्रही [प्रभा सिंह] भीतर के नंगेपन को बड़े चमत्कारी ढंग से सामने लाती है. ’चश्मा-दर-चश्मा [कमलेश धवन] बदलते हुए विचार-मान्यताओं का सबूत है और मातम [कृष्णा अग्निहोत्री] खोखली परम्पराओं के बीच हमारी सही स्थिति [तस्वीर] . –‘मधुप’ मगधशाही

जहाँ प्रभासिंह ने आज के सत्याग्रह कर्ताओं के असल विवेक तथा नेताओं की तिकड़म को जाहिर किया वहीँ उन्होंने आन्दोलन को असफल भी करवा दिया जबकि आमतौर पर ऐसा होता नहीं. कुमारी कमलेश धवन को चाहिए कि वे न तो पिता का न प्रेमी का वरना अपना चश्मा ही व्यवहार करें कृष्णा जी ने आज के रिसते संबंधों को उभरा है. -हंसराज अरोड़ा

 अंक बारह  महीना इस पर भी अंकित नहीं है। 1973 में प्रकाशित इस अंक को ‘बंगला मिनी गल्प अंक’ कहा गया है। इसमें रमानाथ राय की ‘जगह’शिवशंकर दत्त की ‘समय’ और आशापूर्णा देवी की ‘रिस्क’ रचनाएँ प्रकाशित हैं।

अतिरिक्त [लघुकथा से प्रतिबद्ध] 

बंगला मिनी गल्प- एक परिचय 

महानगर बोध को लिए इस बार तीन बंगला लघुकथाएँ. ‘अतिरिक्त’ के लिए इन कथाओं का अनुवाद सुपरिचित कवी कार्तिकनाथ गौरीनाथ ठाकुर ने. 

जगह- रमानाथ राय 

बस रुकते न रुकते दस आदमी  घुसे. तेरह आदमी भी हो सकते हैं. उसके बाद एक लड़की ने ज्योंही चढ़ने की कोशिश की, बस स्टार्ट हो गई  

-भीतर जाइये. अन्दर गया.

-पाँव हटाइये. पांव हटाया.

-हाथ हटाइये. हाथ हटाया.

-घूमकर खड़ा रहिए. घूम कर खड़ा हुआ.

-सीधा होकर रहें. सीधा होकर खड़ा हुआ.

-किसी को कहीं धक्का लगा. आँख नहीं है क्या?

डंडा पकड़कर खड़ा रहा. पीछे से किसी ने ठेल दिया. झुकाते ही सामने से किसी ने धक्का दे मारा. इसके बाद संभल कर खड़ा होते ही एक आदमी ने बायीं ओर से धक्का दिया. साथ ही साथ और एक आदमी ने दायीं ओर से धक्का दिया. मेरा पांव किसी के पैर पर पड़ा.

-ओह! देखकर खड़ा रहें.

देखकर खड़ा होते ही और एक आदमी के पांव के ऊपर लात पड गई. असभ्य.

फिर पांव रखे जाने पर किसी की देह पर पांव लग गया.

-पक्का पूरा जानवर है तो ! 

फिर पांव रखने की जगह खोजने लगा.

-हुआ क्या आपको?

-बस से उतार दें इन्हें. एकदम देहाती है.

-ये सारे लोग क्यों जो.....

खूब बिगड़ गया. डंडे से हाथ हटा लिया. इच्छा हुई घूंसा मारू. हाथ अटक गए. इच्छा हुई लाठी मारूं. पांव फंस गए. इच्छा हुई....इच्छा हुई...फिर दुरस्त होकर खड़ा होने की कोशिश की. 

किन्तु दोनों पांव कहाँ रखूँगा? हाथ दोनों ?

[मिनी पत्रिका ‘बिंदु’ अप्रेल 70 ]        

समय- शिवशंकर दत्त 

दो बजे दोपहर में मेरा इंटरव्यू था. नौकरी की गारंटी. निकल पड़ा रास्ते में. काठ फोड़ धूप, जलती-भुनती दोपहर. घडी की बेल्ट का रिंग टूट गया. झुंझला गया मन. पास ही जूते का मोची. दीवार से उठंग कर ऊंघ रहा है. देखकर ही गुस्से से दहक उठा. पुकारा, इस रिंग को देखो तो. वह आँख मूंदे ही बोला-यह झंझट झमेले का काम है, सवा रूपया लगेगा.

सवा रूपया क्यों जो इच्छा हो ले लो, मगर झटपट कर डालो, देर हो रही है.

ऍन वक्त उसके नाम टेलीग्राम आया. वह बोला, ‘बाबू पढ़ दीजिए तो. मैंने पढ़ कर कहा, ‘तुम घर जाओ तुम्हारी बहू –

बात छीन कर वह बोला, ‘बची हुई तो है? मैंने घडी हाथ में लेकर हंसते हुए कहा, ‘बर्खुरदार बचा लिया. कितना लोगे? वह रोनी सी सूरत बनाकर घडी की सुई की तरफ ताकता हुआ बोला, ‘ओह, सत्यानाश, अब ट्रेन और मिलेगी नहीं-जो इच्छा हो दीजिए. जल्दी कीजिए देर हो रही है. [मिनी एक्स अप्रेल 70 से ]

   रिस्क- आशापूर्णा देवी 

‘टूर में जाने के समय बहू की रखवाली करने का भार दोस्त पर देकर जा रहे हो तुम? उस पर भी बैचलर दोस्त,’ 

जमाई बाबू हा-हा कर हंसने लगे,

‘यह तो देख रहा हूँ कि बिल्ली को मछली अघोरने के लिए रख छोड़ना.’

‘बात क्या बेहद सटीक नहीं हुई जमाई बाबू?

‘दुनिया भी तो अव्वल सभ्य नहीं हुई है, भाई. क्या आपकी ऐसी ही धारणा है कि इन सात दिनों के दरम्यान मेरा दोस्त मेरी औरत को लेकर भाग जाएगा ?’

‘भागकर हो सकता है, नहीं जाएगा –

जमाई बाबू ने बुजुर्गों जैसी हंसी हंसी, स्त्रियाँ तुरंत ही पैर के नीचे की जमीन नहीं छोड़ती है. लेकिन मन के फिसलने में कितने क्षण लगेंगे? जमाई बाबू जोर-जोर से हंसने लगे.

‘तो मन का.’  निखिल सेन भी जोर-जोर से हंसने लगे.’ जो मन सात दिनों के सुयोग में ही भाग जा सकता है, उस मन के रहने पर ही क्या और चले जाने पर ही क्या?’

‘बात ही बात में तो कहा जाता है, घी और आग की रिस्क लेने की जरुरत ही क्यों, बाबा?’

‘निश्चय ही, पहले तो सोचा नहीं –अभी सोचता हूँ वैसा ही यदि हो; क्योंकि आवश्यकता खूब तीव्र और प्रबल हो सकती है.’

[‘उस पार से ]

भगीरथ जी ने अनुसार—‘इसके बाद वह ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ संकलन की तैयारी में लग गये थे। वह कहते हैं, कि—बाद में ‘अतिरिक्त’ के जो अंक छपे, वे कविता को लेकर थे।’ उनके अनुसार—‘लघुकथा को लेकर ‘अतिरिक्त’ की इतनी-सी गाथा है।’ लेकिन हम जानते हैं कि लघुकथा को लेकर ‘अतिरिक्त’ की यह  गाथा ‘इतनी-सी’ न होकर ‘बहुत-बड़ी’ है, अपने आप में एक इतिहास है।

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