भाई भगीरथ के सौजन्य से ‘अतिरिक्त’ के अंक चार से अंक बारह तक की स्कैंड प्रतियाँ मेल पर मिली हैं। उनका आभार। उनके अनुसार—‘अतिरिक्त का पहला अंक जनवरी 1972 में प्रकाशित हुआ था।’
उन्होंने प्रथम तीन अंकों की स्कैंड
प्रतियाँ क्यों नहीं भेजीं? यह प्रश्न मन में उत्पन्न होना स्वाभाविक था। मैंने
अपनी लाइब्रेरी खखोड़ी। ‘अतिरिक्त’ के पहले अंक की एक फोटोप्रति डॉ॰ शकुन्तला किरण
के पुस्तक संग्रह से मुझे मिली थी। उक्त अंक में रमेश (यह निश्चित ही रमेश जैन रहे
होंगे जो ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ में भी भगीरथ जी के सहयोगी थे),
रघुवीर, हेमंत और भगीरथ की कविताएँ थीं। आकार की दृष्टि से उक्त कविताओं को
‘क्षणिकाएँ’ भी कहा जा सकता है।
भगीरथ जी के अनुसार—‘अंक दो
मार्च 1972 में व अंक तीन अप्रैल 1972 में छपा।’
उनका स्पष्ट कहना है कि ‘प्रारंभिक अंकों में लघुकथा को
लेकर कोई खास सामग्री नहीं थी।’
अतिरिक्त के अंक 2 की फोटोप्रति
भी डॉ॰ शकुन्तला किरण के संग्रह से मिल चुकी थी। उक्त अंक भी कविता-केन्द्रित ही था।
कोई अन्य सामग्री उसमें नहीं है। उक्त अंक में जगदीश मंडलोई, गिरीश, गोविंद गौड़,
रमेश, ओमप्रकाश चतुर्वेदी, रघुवीर बिन्द्रा तथा वी॰ रमा की एक अंग्रेजी कविता का
भगीरथ द्वारा हिन्दी अनुवाद प्रकाशित है।
अंक 3 की प्रति न तो भगीरथ जी
से मिल पाई, न शकुन्तला जी से। अनुमान है कि वह अंक भी कविता-केन्द्रित ही रहा
होगा अथवा कविता-बहुल अंक। इसलिए यह कहना कि (अंक 4 से पहले के) प्रारम्भिक अंकों
में लघुकथा को लेकर कोई खास सामग्री नहीं थी, गलत है। उन्हें स्वीकारना चाहिए कि
प्रथम तीन अंकों में वस्तुत: लघुकथा को लेकर कोई सामग्री थी ही नहीं।
‘अंक चार,’ जैसाकि भगीरथ जी ने
लिखा है—‘मई 1972 में आया। उसमें भगीरथ की ‘एक भयानक ख़ामोशी’ और ‘कछुए’, अंसार अनंग की निरोध, रमेश जैन की जंतु, प्रोटोन इलेक्ट्रोन न्यूट्रोन लघुकथाएँ छपी थीं।’ बेशक, आज भगीरथ जी
ने इन्हें ‘लघुकथा’ कहा है, लेकिन उनके द्वारा उपलब्ध कराई गई फोटोप्रति में
पत्रिका के मुखपृष्ठ पर ‘लघुकथा मासिक’ के स्थान पर ‘लघु कहानी मासिक’ छपा है।
25-5-1972 को रावटभाटा से छपे इस अंक में उसके पाठ पर, जिसे ‘सम्पादकीय’ भी कहा जा
सकता है, एक नजर डालिए—
‘प्रिय भाई,
प्रत्येक विचारशील व्यक्ति
वर्तमान समय में विचारों की भीड़ से कुछ शब्द चाहता है जो उसे थोड़े समय में
काफी-कुछ दे सकें।
वर्तमान तेवर का लघु कहानी के
माध्यम से अभिव्यक्तिकरण ‘अतिरिक्त’ का उद्देश्य है। कहानी 750 शब्दों से अधिक न
हो तथा स्पष्ट लिखी हो।’
इस नयी घोषणा के साथ अंक 4 ‘अतिरिक्त’
का सम्भवत: पहला अंक था। इस अंक में ‘अतिरिक्त’ के प्रकाशन एवं सम्पादन जुड़े लोग
‘लघु कहानी’ के ही समर्थक थे; नव्य विधा के रूप में उन्हें ‘लघुकथा’ की जानकारी रही
अवश्य होगी, लेकिन उसकी स्वीकृति का स्पष्ट प्रमाण इस अंक तक नहीं मिलता है। फिर
भी, इसमें प्रकाशित रचनाओं को ‘लघुकथा’ की श्रेणी में रखा जा सकता है। इसमें प्रकाशित
रचनाएँ निम्नप्रकार थीं:
एक भयानक ख़ामोशी / भगीरथ
दवाई खरीदने मुझे गाँव से कसबे
जाना पड़ा। रास्ते में दो गाँव पड़ते हैं। इन गाँवों में अधिकतर नीची जाति के लोग ही
रहते हैं। जिन्हें गाँव में भी शिड्यूल कास्ट कहते हैं। ऊंची जाति के घर हैं लेकिन
बहुत ही कम। उनका प्रभुत्व आज भी पुजारी [मठाधीश ब्राह्मण] जमींदार व बनिए के रूप
में जरुरत से ज्यादा है। उनकी यह ज्यादती निचे तबकेवालों के लिए सिर्फ अनादर और
अपमानपूर्ण जिंदगी के अतिरिक्त कुछ नहीं देती। वे भी गोबर कर के कीड़ों की तरह सड़ते
बास मारते वातावरण को अपने बिल्कुल अनुकूल पाते हैं- सरकारी जोंकें उस वातावरण में
शोषण की प्रक्रिया दृढ करती हैं।
मैंने साइकिल से अभी एक गाँव ही
पार किया था कि अँधेरा हो गया। पगडण्डी पर साइकिल तेजी से भाग रही है। इतनी तो पी
डब्लू डी की सड़कों पर नहीं भागती। जमीन समतल और कड़क थी। अँधेरा वह भी सुनसान
बियावान का- भय अवश्य लगता है।साइकिल और तेज करता हूँ शरीर पसीने पसीने हो जाता है।
दिनभर की गर्माहट अभी तक वातावरण में फैली हुई थी। मैं बिल्कुल हांफ जाता हूँ।मैं
अतिशीघ्र अगले गाँव तक पहुँचना चाहता हूँ। वहां सुस्ताकर प्यास बुझा सकूँ।
मैं बिल्कुल गाँव के पास पहुँच
जाता हूँ। दो-तीन नीम के पेड़ों के नीचे जाजम पर बैठे कुछ लोग पंचायती कर रहे थे।
अवश्य कोई सामाजिक मसला रहा होगा। कुछ बूढों को उत्तेजक अवस्था में देख रहा था।
शायद पंचों का किसी ने परोक्ष अथवा अपरोक्ष विरोध किया होगा। मुझे इन सबसे इसलिए
मतलब नहीं है कि इस समय बहुत प्यास लग रही है। मैं केवल पानी पीना चाहता हूँ।
उन तीन पेड़ों में से एक पेड़ के
सहारे दो-एक मटके रखे हुए थे। मैंने वहां पहुंचकर एक व्यक्ति से पानी पिलाने का
आग्रह किया।उसने मेरी तरफ देखकर कुछ अनुमान लगाया फिर बोला –‘थे कूण हाक में हो।’
‘म्हू बामण हूँ।’ मैं बोला पर मुझे तकलीफ हुई। वह स्तब्ध सा हाथ में लोटा उठाए रहा।
न मटके का ढक्कन खोला- न लोटा भरा न पानी पिलाया। ‘म्हें लोग मेगावर हौ, बामणों
ने पोणी पावे नै कांई नरक में जाणों है। उसने नरक और पाप के भय से पानी नहीं
पिलाया। मैं झुंझला उठा। मुझे इस समय पानी से मतलब है –चमार भंगी से नहीं। मैं
कहना चाहता हूँ –प्रिय भाई यह सब दकियानूसी परम्पराएं है हम सब बराबर है। यह
भेदभाव स्वार्थों का मुखौटा है। प्रजातंत्र और समाजवाद पर एक लेक्चर झाड़ने की
इच्छा तीव्र हुई। किन्तु प्यास और इच्छा के बावजूद बिना बोले वहां से चल दिया। गला
इतना सूख चुका था कि मुझे तकलीफ होने लगी। रात के सन्नाटे में अवाले [जानवरों के
पानी पीने का हौद] पर जाकर प्यास बुझाई–चोरों की तरह। सन-सन की आवाज से हवा चल रही
थी। पेड़ चन्द्रमा की परछाईं में विभिन्न आकारों में भूत-प्रेत की तरह लग रहे थे।
एक भयानक ख़ामोशी मुझे अपने में लपेटने को आतुर थी।पांव तेजी से ऊपर-नीचे आ जा रहे
थे।
[नोट:भगीरथ जी के अनुसार, कुछ परिवर्तन
के साथ 'ख़ामोशी' शीर्षक से यह रचना
उनके पहले लघुकथा संग्रह 'पेट सबके हैं' (1996) में छपी]
कछुए / भगीरथ
संबधो का सौंदर्य सामाजिकता एवं
नैतिकता पर निर्भर करता है, लेकिन उनकी ठोस नींव आर्थिक आधारों
पर टिकी होती है। यह एहसास अनुभव के आधार पर परिपक्व होता गया । स्वार्थो को
नैतिकता का जामा पहनाकर मुझ पर ओढा दिया गया था। मैं उस लबादे से मुक्ति चाहता था।
मगर वह मुझे और दबोच लेता ।
संबधों के निर्वाह में , सामाजिक
जिम्मेदारियों और नेतिक मान्यताओं को ढोने में मेरी समस्त शक्ति खप जाती है ,
फिर भी संबधों के फोडे रिसने लगे, क्योंकि
अर्थोपार्जन की मेरी अपनी सीमाएं थी और उनकी आकांक्षाएं सीमाहीन।
मैनें कछुए की तरह अपने पॉंव
अंदर समेटने आरम्भ कर दिए। चारों तरफ चारदीवारी , जिसकी खिडकियॉं
भी नहीं खुलती थी। नितांत एकाकी जीवन ! एकाकीपन की ऊब । झुंझलाहट । क्रोध की एक
तीव्र अनुभूति , जो केवल लिखे हुए कागज फाड ने तक सीमित है।
सुनसान सडक पर रात गए घूमना।
चौकन्ना बना देखा करता हूँ कि कहीं लोगों की ऑंखे मुझ पर न टिकी हों। लोग यह न
समझें कि मैं अकेला हू।, रात में भटके जल पक्षी की तरह
बेचारा!
मैं लोगों की सहानुभूति का
पात्र नहीं बनना चाहता। मैं हमेशा डरा करता हॅं कि कहीं कोई सहृदय (?) व्यक्ति मेरे पास पहुचंकर मेरे अंतरतम को छू न ले, क्योंकि
मैं रोना नहीं चाहता।
निरोध /अंसार अनंग
आज रामूजी को नहलाया गया है।उनके
कपडे बदल दिए गए हैं। हर माह यही होता है ठीक पांचवीं तारीख पर। रामूजी जो कभी राम
बाबू रह चुके हैं सब कुछ स्वीकार सा कर लेते हैं। वैसे उनके स्वीकार-अस्वीकार का
अब अर्थ भी क्या रह गया है। उन्होंने कई बार सोचा –वे क्यों है? किन्तु
इसका उत्तर उन्हें कभी नहीं मिल पाया। उन्होंने उत्तरहीनता को ही उत्तर की तरह
स्वीकार कर अथवा प्रश्नोत्तर की उलझन से बचने के लिए इस विषय पर सोचना बंद कर दिया
है। किसे मालूम –वे ही जीते हैं या एक आकार उन्हें जीता है। जिसके विषय में कहा
जाता है-वे रामबाबू हैं। वे इसे भी चुपचाप मान लेते हैं।
आज वे जिला कोषालय जाएँगे नहीं।सच
तो यह है-वे आज ट्रेजरी ले जाए जाएँगे आज पांच तारीख जो है। पेंशन प्राप्ति की
नियत तिथि। पहले वे पहली से चक्कर काटा करते थे।किन्तु जब से पेंशन बाबू ने उन्हें
झिड़का, समझाया
–तब से उन्होंने हर माह की पांचवीं को प्राप्ति का निश्चित दिन मान लिया है।
अभी कल ही सत्तू ने कितने प्यार
से उन्हें समझाया था- अब तो जूते बदल ही डालो व ढंग के कपडे भी आ जाय तो क्या हर्ज
है, पर
वे जानते हैं कपडे और जूते भूमिका है-पेंशन प्राप्ति का वातावरण बनाने की आज सत्तू
ने उन्हें नए चमरौंधे पहना दिए,प्रकाश कैसी उत्कंठता से उनकी
जरूरतें पूछ रहा है, लगता है नियमित ही ऐसा होता है बिलकुल
बनावटीपन नहीं लगता। चार बजे वे पेंशन प्राप्त करेंगे, तांगे
से उन्हें घर लौटाया जायगा। पुनः वाही, वे पानी के लिए बार
बार चीखकर कहेंगे तब कहीं कसैला मुंह बनाता प्रकाश उन्हें पानी का गिलास देगा।
प्रकाश जैसा बच्चा भी उन्हें आज
के बाद महत्वहीन समझता है।वे हिल उठाते हैं।उनकी आँखें बंद हो जाती हैं, कहीं
पढ़ी कविता का भाव उनमें गूँजता है।सम्बन्ध और निरोध दोनों उपयोग के पश्चात् भुला
दिए जाते हैं। उन्हें लगता है वे निरोध है।
जंतु / रमेश जैन
अंतराल बाद स्थिति बोध हुआ तो
जीवन को अद्भुत जंतु की तरह घनेरे जंगल की गहरी खाई में फंसा पाया।
नरभक्षी समझने की प्रवृति का
शिकार बन जिस उबड़-खाबड़ रास्ते पर चल रहा हूँ—न तो खतरे से खाली है—न निश्चित।
तीखे नाखूनों से शरीर खुजलाता—जख्म
गहराता अनिश्चित क्षेत्रफल को प्रभावग्रस्त करता रहा।
जिस खाज को दूर करना था-चलती-
रुकती रही-पर जख्म जो धीरे-धीरे सेप्टिक बनता जा रहा है—नहीं सहा जाता।
मुंह से रिसते रक्त को पंजे से
पौंछता व संचित द्रव को विषाक्त बनाता अनचाही व्यथा में घुल रहा हूँ।
पता नहीं—पतझड़ से और पत्ते हैं
भी या नहीं ?
खुजली का भ्रम देकर खटमल की तरह
रेंगता किसी के जीवन में जहर घोल रहा हूँ व सारा शरीर नीला बना रहा हूँ।
दोषारोपण के बावजूद सारा दोष
हितैषी अथवा सुरक्षा कवच बनकर किसी अन्य प्रभाव ग्रस्त जंतु के मत्थे मढ़ रहा हूँ।
टर्र टर्र करते मेंढक, हू
हू करते सियार, चिकी मिकी बोलते झींगुर झिंगुर, प्रकश का भ्रम देते जुगनु के बीच एक आवाज बनकर चीख रहा हूँ।
नीचे बहुत नीचे–सुख की तलाश
करता व दुःख प्रजन्य बियावान में भटकता मकड़ी के जले की तरह वातावरण से घिरा अब तक
जीवित हूँ।
प्रोटोन-इलेक्ट्रोन-न्युट्रोन /
रमेश जैन
प्रोटोन- रेलगाड़ी चल रही है।शरीर-शरीर
में घर्षण है। विक्षिप्त-सा अपने स्थान पर खड़ा हूँ। विद्याणु का प्रहार मुझे
आतंकित कर रहा है। मई क्लिवाणु की तरह क्रिया में रत हूँ।
इलेक्ट्रोन- रेलगाड़ी चल रही है।
अजीब हलचल मच रही है।नेपथ्य का प्रभाव गुरुत्वाकर्षण की तरह चुम्बकीय बना रहा है।
प्रतिक्रियाहीन अवहेलना कर चुपचाप स्थिति भोग रही हूँ।
न्युट्रोन- रेलगाड़ी चल रही है।
लहरें आलिंगन में दूब रही है-उफ़ ! कभी मैं भी किनारा था।
भगीरथ जी के अनुसार—‘अंक पाँच
अगस्त 1972 में प्रकाशित हुआ।’ देखने पर पता चलता है कि ‘अतिरिक्त’ का यह पहला अंक
है जिसमें ‘लघुकथा’ शब्द का स्पष्ट दृष्टि के साथ समावेश हुआ। श्री त्रिलोकीनाथ
ब्रजवाल की टिप्पणी ‘अतिरिक्त विचार’ के साथ उक्त अंक में निम्न लघुकथाएँ प्रकाशित हुई—सुदर्शी के॰ सोंधी की ‘चीख’, कीर्ति कुमार पंड्या की ‘कीचड़ की
मछली’, शशि कमलेश की ‘निष्कृति’, एल आर कुमावत की ‘तलाश’, सुशीलेंदु की ‘पेट का माप’
तथा मोहन राजेश की ‘एंटी करप्शन’!
पाठकों द्वारा आकलन के लिए वे सभी
लघुकथाएँ क्रमश: यहाँ उद्धृत है :
‘लघु-कहानी मासिक’ अतिरिक्त
वर्ष 1 अंक
5 अगस्त 1972
अतिरिक्त विचार –
हम लघुकथा की ऐसी और किसी हद तक
खोई हुई विधा को फिर से जगाना चाहते हैं. आज औसत आदमी के पास फुर्सत कम से कम रह
गई है. इसलिए मिनी कविता, मिनी नवगीत आदि के नए- नए और सही-
सही आन्दोलन चल पड़े हैं. ये आन्दोलन कपड़ों के फैशन की तरह बदलनेवाले या कुछ अरसे
में ख़तम हो जाने वाले नहीं है. ये हमारे समसामयिक परिप्रेक्ष्य की अनिवार्यता से
फूटे हैं. लेकिन लघुकथा इस तरह का चौकानेवाला या नया आन्दोलन नहीं है. संस्कृत
साहित्य के हितोपदेश, पंचतंत्र और उधर खलील जिब्रान फिर इसी
शती के रावी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, हंसराज अरोड़ा और डॉ श्रीनिवासन की किंचित कथाओं से गुजरता हुआ लघुकथाओं का
यह काफिला आज अपने मूल्याङ्कन का दावा करता है, यह दावा उसे
बहुत पहले करना चाहिए था, समीक्षकों को बहुत पहले इस तरफ
ध्यान देना चाहिए था लेकिन अब लघुकथाएँ स्वयम चीख-चीखकर, चिल्ला-चिल्लाकर
यह बात कह रही हैं ...आठवें दशक के नवलेखन में लघुकथा प्रत्यावर्तन हो सकती है.
किन्तु यह युगबोध की अनिवार्यता है. साहित्य की सभी विधाओं की अपेक्षा लघुकथा
सर्वाधिक सशक्त विधा बनने की संभावना और सामर्थ्य अपने भीतर समेटे हुए हैं.
—त्रिलोकीनाथ ब्रजवाल
चीख / सुदर्शी सौन्धी
मार्च की मस्त सुबह । चार बजे
नामालूम सी धुंध । बादलों के पार से झांकता उजाला । उसने शाल कसकर अपने चारों तरफ
लपेट लिया। पापा के कमरे की खिड़की खुल गयी है , थोडी ही देर
बाद वे ओवरकोट पहनेंगे, फिर सिगार मुहॅं में दबाये सीढियों
से नीचे उतर आयेंगे रोज की तरह वह मुस्करा देगी ठीक वैसे ही झुके -झुके जैसे
अर्दली मुस्कराता है । क्या नहीं है उसके पास, एक आलीशान
कोठी, दो दो इम्पाला , एक पापा की ,
एक उसकी । दो - दो टेलिविजन सेट, हिन्दी,
पंजाबी अंग्रेजी, संस्कृत की सारी पुस्तकें
सारे संदर्भ ग्रंथ .... । जरा घंटी दबाने पर नौकर हाजिर हो जाता है । पास ही पानी
रखा हो तो भी वह खुद होकर तो पानी ले ही नहीं सकती। डनलप के गद्दों पर लेटे रहो
या विलायती धुन पर घूमते रहो ... । या कामू काफ्का की किताबें पढते रहो ! एक सही
अहसास । पूरी कालोनी में सबसे ऊंची और सबसे आलीशान कोठी है उसकी ... । होली है आज
पर किसके साथ खेलें...पिछलें इक्कीस साल से यह दर्द उसे कुरेदता रहता है....किसी
पडोसी बच्चे या समवयसा से गुलाल ही लगवा ले, पर पापा मानेंगे,
उनकी नजर में तो सारे पडोसी बौने है , और पापा
बौनों का साथ एक पल भी गवारा नहीं करते, उसे लगता है ,
वह चीख पडेगी वैसे ही , बेमतलब , फिजूल मे।
कीचड़ की मछली / कीर्ति कुमार
पंड्या
अस्पताल में दाखिल होने के
दूसरे ही दिनसे अनिरुद्ध उस मछली के लिए चिंतित हो गया था. वह आया तो था अपनी बीमारी
का इलाज कराने, लेकिन उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे वह भी
उसी की भांति अस्तित्व की रक्षा के लिए तडप रहा है. ....आखिर वह मछली कितने दिन
जीवित रहती? बार-बारअनिरुद्ध के मन में यही खयाल जागता...
हाँ वह उस मछली को जिन्दा रखेगा ....क्योंकि उसे अपने अस्तित्व की रक्षा, अपनी जिजीविषा का भी ख्याल आ जाता, लेकिन उसे तो
जीने के लिए पत्नी अनुपमा और पुत्री नीता का संबल प्राप्त है. किन्तु बेचारी उस
मछली को सहारा कौन देगा और कैसे ? उसे लगा, वह झूठ है, वह तड़पती हुई मछली सच है और बस....
निष्कृति / शशि कमलेश
दृष्टि और मन...कार्डिगन के
फंदे युनगिन रहे थे. समानांतर सूत्रों से काम नहीं चलता, कुछ
सूत्र आड़े भी पड़ने चाहिए.
कसन. ची ची की पुकार ने ध्यान
आकृष्ट किया. भयभीत कातर सी प्रास[फेंकना फेंकी जाने वाली वास्तु की क्षैतिज दूरी, मार]
प्रीसा संगिनी को चिड़ा चोंच मार मारकर सुरक्षित शिविर से बाहर निकाल रहा था थी....सहने
भर को सहती रही चिड़िया. आहत मन लिए अनजानी दूरियों में खो गई ....किस्मना खत्म हुआ,
मैंने निष्कृति की सांस ली.
ची ची ची ची और अधिक कारण –आहत
स्वर नजरें उठीं. चिड़ा अपनी तिरस्कृता संगिनी को ढूँढ रहा था, पुकार
रहा था, पागल सा सर पटक रहा था. आहत विस्मित चेतना खुद में
प्रतिबिम्ब उफेरने लगी. क्या तुम भी ऐसे ही .....
तलाश / एल. आर. कुमावत ‘राज’
रात गहरा रही थी. काली तहें
चम्बल के किनारे पार पहाड़ों और चम्बल के जल के आदित्य को पी रही थी. झोंपड़ियों से
हल्का प्रकाश अज्ञान में छिपे ज्ञान की भांति चमक रहा था.कृशान्गिनी चम्बल निर्वसन
बह रही थी.धांय रुकी हुई आवाज ने जमी हुई बर्फ के सन्नाटे व रात्रि की नीरवता को
भंग कर दिया.खेडा नांगल में चीख पुकार के साथ भगदड़ मच गई. गाँव की बीच हवेली में
सेठ नरौबीलाल व उसका परिवार डाकू सरदार हरमुख के सामने काँप रहा था. डाकू सरदार ने
हवाई फायर करते हुए फडकती आवाज में कहा-सेठ हम डाकू हैं.और तब तक डाकू रहेंगे जब
तक इस दुनिया में यह हालत रहेगी कि कुछ लोग सिर्फ हुक्म देते हैं और कुछ लोग सिर्फ
काम करते हैं. हम उस समाज के खिलाफ हैं जिसके हितों की रक्षा करने के लिए तुम जैसे
लोगों को ठेके पर आज्ञा दी गई है , हम बन्दुक की
नोंक पर डाका डालते हैं. तुम कागज और कलम की नोक पर इन्सान की इज्जत,धन,जमीं,धर्मौर जिस्म पर डाका
डालते हो. उस सेठ की समझ में नहीं आ रहा था , वह समर्पण करे
या मरण कबूल कर ले. ठोकरें खाने पर मजबूर कर देती है. फिर वे जीवन के अँधेरे की ओर
ढकेलता हुआ बीहड़ों के अन्धकार में खो जाता है. सरदार एक आवाज सस्थ चीख पड़ा...दस
वर्ष पहले मेरा बाप इस हवेली से रोता चीखता सब कुछ लुटाकर बाहर निकला था . आज मैं
तुम्हें इस हवेली से बाहर धकेलने आय हूँ. फिर वही धायं धायँ ... चम्बल का कुछ नहीं
बिगाड़ा वह अब भी ...निर्वसना बह रही है. लेकिन यह प्रतिशोध की ज्वाला कब तक दहकती
रहेगी ? क्या कभी औसत आदमी की तलाश पूरी हो सकेगी? और क्या सफेदपोश डाकू बराबर सर उठाते रहेंगे ?
पेट का माप / सुशीलेन्दु
अफसर बोलता जा रहा था....हाइट
पांच फीट छः इंच ....चैस्ट चौतींस छत्तीस.....वेट एक सौ पैतालींस पौंड ....क्वाइट
फिट तुम इधर आ जाओ जवान।
युवक किनारे खिसक गया और चारों तरफ
देख कर झिझकता हुआ बोला....सर।
यस बोलो क्या बात है ?
युवक सहमता हुआ बोला....सर आपने
मेरी लम्बाई सीना वजन आदि को मापा परंतु .... परंतु आप शायद मेरे पेट का माप लेना
भूल गये, सर
मैं तो केवल पेट भरने के लिए ही......वह आगे नहीं बोल पाया।
ऑफीसर ने युवक को बड़े ध्यान से
देखा और फिर हो - हो कर हॅंसते हुए बोला ....यहॉं सीना का माप लिया जाता है जवान पेट
का नहीं और सच तो यह है यंगमेन आज की दुनिया में कम से कम अपना पेट हो भी तो
उन्हें मापा जाय आज तो हरेक इन्सान का पेट टुकड़ो - टुकड़ो में बट
कर बिखर चुका है ....उन्हें हम कहॉं ढूढते फिरें.....उन्हें कहॉं कहॉं खोज कर मापा
जाय, युवक हक्का -बक्का सा ऑफिसर को देखता रहा जो अब दूसरे
जवान के सीने पर टेप रख रहा था!
ऐन्टीकरेप्शन / मोहन राजेश
होटल के सभी कोनो पर रात गदरा
गयी थी। ग्राहकों को खाने के साथ पीने को देशी_ विदेशी भी 'सर्व' की जा रही थी, एक कोने
में जरा सी फुसफुसाहट हुई ।
वह आबकारी इन्सपेक्टर कह रहा
था......यार कोई माल......वाल हो तो ......मैनेजर इधर -उधर कनखियों से देखते हुए
फुसफुसाया, सर मिल तो सकता था, पर
आज कल 'ऐन्टीकरेइशन' में नये ऑफीसर आये
हैं, थोड़े दिन देखना पडेगा,
........दोनों का मुंह एक बारगी उतर सा
गया,
थोडी ही दूर दूसरी सीट पर बैठा 'दूसरा'
पैग खाली करते हुए गुर्राया, देखना क्या है ?
अरेन्ज करो न । 'एन्टीकरेप्शन तो यहॉं बैठा है
।
........इन्सेपक्टर और मैनेजर के चेहरे
खिल गये........ वे ही नए ऑफीसर थे, .....कुछ देर बाद वहॉं
गंगा बही फिर बहती गंगा में हाथ धो लिये,
पाँचवें अंक को भी यद्यपि ‘लघु कहानी
मासिक’ बताया गया है; तथापि त्रिलोकीनाथ ब्रजवाल और शशि कमलेश की संयुक्त टिप्पणी (शशि कमलेश का
नाम सम्भवत: भूलवश छपाई में छूट गया था, जिस कारण त्रिलोकीनाथ ब्रजवाल के नीचे उसे
पेन से लिखा गया है) में ‘लघुकथा’, ‘लघु-कथा’ तथा ‘लघु कथा’ लघुकथा के लिए
प्रयुक्त तीनों ही शब्द-रूपों का प्रयोग हुआ है। यह इस बात का द्योतक है कि उस समय
तक ‘अतिरिक्त’ ‘लघुकथा’ संज्ञा पर स्वयं को स्थिर नहीं कर पाया था। मैं समझता हूँ
कि इस दिशा में त्रिलोकीनाथ ब्रजवाल और शशि कमलेश की प्रेरणा का उल्लेख अवश्य किया
जाना चाहिए। उनकी टिप्पणी का प्रथम वाक्य ही लघुकथा के प्रति उनकी निष्ठा और
समर्पण का द्योतक बनकर सामने आता है। लिखा है—‘हम लघुकथा को ऐसी और किसी हद तक खोई
हुई विधा को फिर से जगाना चाहते हैं।’
‘अतिरिक्त’ के अंकों की एक
विशेषता तो यह थी कि डाक पते को छोड़कर लगभग सभी जगह देवनागरी अंकों का प्रयोग किया
गया था। दूसरी यह है कि—इसके किसी भी अंक पर संपादक का नामोल्लेख नहीं है। किसी का
भी नाम लिखे बिना केवल ‘संपर्क—सी3-बी/59, फेज़ 2, रावतभाटा(राजस्थान)’ लिखा है।
निश्चित ही यह उक्त काल में भगीरथ जी का डाकपता था। हो सकता है कि नौकरी करते हुए
किसी भी अन्य अर्थात् राजनीतिक, गैर-राजनीतिक, यहाँ तक कि साहित्यिक अथवा
सांस्कृतिक गतिविधि में भाग लेने से पूर्व सक्षम अधिकारी की अनुमति प्राप्त करने
के ‘हौवा’ बने नियम ने यह रुकावट पैदा की हो। अंक नौ से ‘संपादन’ के स्थान पर
‘सहयोग’ शब्द का उपयोग करते हुए उसके नीचे दो नामों (रमेश जैन व भगीरथ परिहार) को
एक करके ‘रमेश भगीरथ’ छापा गया है। निश्चय ही यह युक्ति भी अपने आप को विभागीय नियमों
के क्रूर-पंजों से दूर रखने के लिए ही अपनायी गयी थी।
शेष आगामी अंक में…
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