रविवार, 14 मार्च 2021

लघुकथा का उत्स : एक अवलोकन / बलराम अग्रवाल


समकालीन कथा-साहित्य के मध्य हिन्दी लघुकथा ने एक सम्मानजनक स्थान बना लिया है। देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में इस पर शोध हो चुके हैं और लगातार जारी हैं। इस स्तर पर आकर इसके उत्स का अनुसंधान अति-आवश्यक हो गया है। अनेक समकालीन कथा-आलोचक मित्रों का मानना है कि—

1-   लघुकथा एक नव्य कथा विधा है जिसका प्रादुर्भाव बीसवीं सदी के सन् 1971 से सर्व-विदित है। सन् 1971 से पहले संगठित रूप में लघुकथा का विकास नहीं हुआ था, इसलिए उससे पहले की लघु-आकारीय कथाओं को लघुकथा मानना तर्कसंगत नहीं है।

2-   लघुकथा का इतिहास सन् 1971 से ही लिखा जाए। पहली लघुकथा सन् 1971 में प्रकाशित लघुकथा को माना जाए।

यदि पीछे ही जाने की बाध्यता हो, तो पं॰ माधवराव सप्रे की कथा ‘एक टोकरीभर मिट्टी’ को आधार लघुकथा मानकर सन् 1901 से ही इसका इतिहास लिखा जाए। उससे पहले ‘लघुकथा’ को खोजना निरर्थक है। वह सब पौराणिक और धार्मिक साहित्य है। आमजन से उसका कुछ लेना-देना नहीं है।

मेरा मानना है कि सन् 1901(माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरीभर मिट्टी’), सन् 1876-1880 (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की पुस्तक ‘परिहासिनी’), सन् 1874 (‘बिहार बन्धु’ के पृष्ठों पर अंकित ‘नीतिकथा’ आदि शीर्षक तले छपने वाली लघु-आकारीय कथाएँ) अथवा सन् 1826 (‘उदंत मार्तंड’ में प्रकाशित ‘ठट्ठे की बात’) आदि ‘लघुकथा’ के ऐसे पड़ाव हैं,  जिनपर सकारात्मक दृष्टि डालना अति आवश्यक है। फिर, जैसे-जैसे हम अतीत के गहरे सागर में उतरते हैं, वैसे-वैसे ‘लघुकथा’ के अद्भुत माणिकों से हमारा सामना होता है।  इस लेख को पत्रिका की सीमा में ही रखने की सावधानी बरतते हुए बीच के अनेक सोपानों का जिक्र न करते हुए मैं सीधे ॠग्वेद की कुछ ऐसी ॠचाओं की चर्चा कर रहा हूँ जो प्रामाणिक रूप से लिखित साहित्य के प्रथम कथा-संकेत अथवा प्रथम कथा-सूत्र हैं। इनमें सबसे पहला है—‘हे इन्द्र! तुमने गायों का अपहरण करने वाले ‘बल’ नाम के असुर की गुफा का पता लगाया था।’ ( ॠग्वेद 1-6-5)। ‘बल’ नामक असुर कौन था? उसने किसकी गायों को चुराया और क्यों चुराया? ‘इन्द्र’ कौन था और उसने कैसे ‘बल’ की गुफा का पता लगाया? किस चतुराई और संघर्ष के द्वारा गायों को मुक्त कराया? आदि अनेक जिज्ञासाएँ इस एक मंत्र में छिपी हैं। इस एक संकेत के आधार पर ब्राह्मण, उपनिषद और पुराण आदि में छोटी-बड़ी अनेक कथाओं का प्रणयन हुआ है।

ॠग्वेद में वर्णित मंत्रों की विभिन्न घटनाओं को यदि कथा अथवा कथा-संकेत मानें, जोकि सामान्य व्यक्ति के लिए वे हैं भी, तो उन सबके केन्द्र में ‘इन्द्र’ है। वह इन्द्र ही अग्नि है, जल है, सूर्य है, उषा है, पूषा है, अश्विद्वय, मित्र और वरुण आदि है।  इस कथन के प्रमाणस्वरूप अनगिनत मंत्र हैं। ये मंत्र अथवा ॠचाएँ कलात्मक अभिव्यक्ति के अन्यतम उदाहरण आज भी हैं।

अनेक विद्वानों का मत है कि वेद में जो कुछ भी लिखा है, वह ईश्वरीय वाणी है, उनमें कथा देखना मूर्खता है। वे कहते हैं कि वेद-मंत्रों के निहित अर्थ साधारण मनुष्य की समझ से परे हैं। तर्क यह कि उसे समझने के लिए उसी स्तर तक बुद्धि का उन्नत होना आवश्यक है। ध्यान से देखें तो सभी विषय ऐसे हैं जिन्हें गहराई से समझने के लिए बुद्धि का उनके स्तर तक उन्नत होना आवश्यक है। उन्नत अध्ययन से हीन एमबीबीएस डिग्रीधारी व्यक्ति उक्त डिग्री से विहीन अनुभवी चिकित्सक से कमतर सिद्ध होता देखा जा सकता है। नि:संदेह वेद के सभी कथन गूढ़ार्थ लिए हैं, तथापि कथा की दृष्टि से भी उनमें असीम सत्य और संभावनाएँ निहित हैं। न होतीं तो ‘ब्राह्मण ग्रंथों’ में, ‘उपनिषदों’ और ‘पुराणों’ में, तत्पश्चात् जैन एवं बौद्ध कथा-ग्रंथों में वर्णित कथाएँ आकार न ले पातीं। एक बड़ा सत्य यह भी है कि लगभग समूचा ॠग्वेद ‘संबोधन शैली’ में है तो अनेक स्थल कथोपकथन शैली में भी प्राप्त हैं। ॠग्वेद में मुख्यत: निम्न प्रकार की कथाएँ अथवा कथा-संकेत समाहित हैं—

1-           व्यापक नेपथ्य वाली मात्र संकेतात्मक सूत्र-कथाएँ

2-           स्पष्ट अभिमत वाली पूर्ण कथाएँ

ब्राह्मण, उपनिषद और बृहद्देवता आदि ग्रंथों में जो कथाएँ विस्तार से मिलती हैं, वे सब की सब किसी न किसी संकेत रूप में ऋग्वेद संहिता में मिलती हैं। ऋग्वेद में ऐसे बहुत से कथा-संकेत उपलब्ध हैं जिनमें दो या तीन पात्रों का परस्पर संवाद है। अनेक विद्वानों ने इन्हें संवाद-सूक्त भी कहा है। भारतीय साहित्य में अनेक कथाओं का उद्गम इन संवादों से ही हुआ है। इनके अलावा सामान्य स्तुतिपरक मंत्रों में भी अलग-अलग देवताओं के बारे में अनेक मनोरंजक और शिक्षाप्रद कथाएँ मिलती हैं। संहिता में जिन कथाओं का केवल संकेत मात्र है, उनका विस्तृत वर्णन बृहद्देवता तथा षड्गुरुशिष्य की कात्यायन-सर्वानुक्रमणी वेदार्थदीपिका टीका में किया गया बताया जाता है। निरुक्त में भी आचार्य यास्क ने तथा सायण ने अपने वेदभाष्य में उन कथाओं के रूप तथा प्राचीन आधार को बताया, ऐसा कहा जाता है।

हृदय से  निकली आर्त पुकार सुनकर वह अवश्य आएँगे, हजारों रक्षा शक्तियों के साथ प्रकट होंगे।(ॠग्वेद 1-30-8)। इस विश्वास को ‘विष्णुपुराण’ के अन्तर्गत प्रह्लाद की प्रार्थना सुनकर नरसिंह अवतार की कथा के रूप में विस्तार दिया गया है। इन प्रह्लाद के पौत्र असुरों के राजा बलि हुए हैं जिनके नाम पर भारतीय संस्कृति में 'बलिदान' शब्द गौरव के साथ प्रचलित है और हमेशा रहेगा।

‘भागवतपुराण’ और ‘वामनपुराण’ में विष्णु के वामन अवतार की कथा आती है। बताया गया है कि बलि इतना बलशाली था कि उसने अपने राज्य का विस्तार करने की नीयत से एक बार इन्द्रलोक पर ही चढ़ाई कर दी और उसे जीत लिया। वह दानशील प्रकृति का था इसलिए जीतने के बाद इन्द्रलोक की एक-एक वस्तु को दान में देना शुरू कर दिया। उसने इन्द्र का ऐरावत हाथी और नन्दनकानन भी दान कर दिया। हारे हुए सारे देवताओं को साथ लेकर त्रस्त इन्द्र विष्णु की शरण में चले गये। उन्होंने बलि से छुटकारा दिलाने की गुहार उनसे की। बहुत छोटे कद के गरीब ब्राह्मण का रूप बनाकर विष्णु दान माँगने के लिए बलि के यहाँ पहुँच गये। कहा—‘मेरा नाम वामन है। गरीब ब्राह्मण हूँ। कुछ माँगने आया हूँ ताकि आराम से रह सकूँ।’ बलि के गुरु शुक्राचार्य उस समय उसी के पास बैठे हुए थे। उन्होंने देखते ही पहचान लिया कि यह कौन है। उन्होंने बलि के कान में कहा—‘यह विष्णु है। छल करने को आया है। मुझसे पूछे बिना तुम इसे कोई भी वस्तु दान मत करना।’

लेकिन बलि ने शुक्राचार्य से कहा—‘गुरुदेव, यह जो कोई भी हो, दान देने का अपना नियम मैं नहीं तोड़ सकता।’ फिर वामन के रूप में सामने खड़े विष्णु से बोला—‘बिना संकोच के कहिए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?’ वामन ने कहा—‘महाराज, अपने राज्य में मुझे मेरे तीन पग के बराबर जमीन दे दें ताकि मैं सुख से रह सकूँ।’ बलि ने हथेली पर जल लेकर दान देने का संकल्प लिया और वामन से कहा—‘महाराज, आप जिधर चाहें उधर तीन पग धरती नाप लें।’ यह सुनते ही विष्णु ने वामन वाला रूप छोड़कर बलि को अपना विराट रूप दिखा दिया। पहले पग में उन्होंने इस भूमंडल को नापा और दूसरे पग में द्युलोक को जिसे आम बोलचाल में हम स्वर्ग कह देते हैं। तीसरे पग के लिए विष्णु जी ने स्वयं बलि से ही पूछा—‘बताओ, तीसरा पग कहाँ रखूँ?’ बलि ने कहा—‘अब तो मेरा सिर ही बाकी बचा है। यहीं रख दो।’ बस, तीसरा पग विष्णु ने उसके सिर पर रखकर उसे पाताल में पहुँचा दिया और कलियुग के अंत तक उसे वहीं का राजा बने रहना का वरदान भी दे दिया।’

‘वामन अवतार’ शीर्षक से यह एक पुराण-कथा है जो भिन्न-भिन्न पुराणों में भिन्न-भिन्न तरह से मिलती है। लेकिन इसका मूल ॠग्वेद की ॠचाओं में ही मिलता है। जिन ॠचाओं को केन्द्र में रखकर वामन के तीन पग की कथा रची गयी, वे और उनके संभावित गूढ़ तात्पर्य यों हैं—वेद के अनेक सूक्तों में शरीर को पृथ्वी माना गया है। शरीर में रस, रुधिर, मांस, अस्थि, मज्जा, मेदस और वीर्य इन सात धातुओं को सात धाम की संज्ञा दी गई है। (ॠग्वेद 1-22-16)।  सात धाम यात्रा से तात्पर्य भी शरीरगत इन सात धातुओं के बीच परिभ्रमण करना, इनकी रक्षा में तत्पर रहना है।

विष्णु ने विशेष पुरुषार्थ किया है कि कदम को तीन प्रकार से रखा है। (ॠग्वेद 1-22-17)। तीन पग से तात्पर्य है कि विकासशील मनुष्य ने केवल शरीर, केवल मन और केवल मस्तिष्क की उन्नति न करके तीनों की ही उन्नति की है। शरीर को निरोग बनाया है, मन को निर्मल और मस्तिष्क को तीव्र बुद्धि वाला बनाया है। यह देह पार्थिव है इसलिए विष्णु के कदमों को धूल में सना बताया है। इसी धूल से बनी पृथ्वी जाना है।

विष्णु ने तीन कदमों को विशेष रूप से रखा है। (ॠग्वेद 1-22-18)। तीन भावनाओं को यज्ञ कहा गया है—बड़ों का आदर, बराबर वालों से प्रेम तथा छोटों को दयापूर्वक कुछ देना। मन की व्यापकता (विष्णु), इंद्रियों की आत्मवश्यता (गोपा) और शरीर की नीरोगता (अदाभ्यः) के बिना किसी भी धर्म का पालन संभव नहीं है।

विष्णु के (ऊपर कहे) कर्मों को देखो। क्योंकि वह अपने कर्मों को (पस्पशे) बारीकी से देखता है अर्थात् उनका स्वयं आकलन करता हुआ दोषों को दूर करता है। इंद्र के सदा साथ रहनेवाला सखा बनता है। (ॠग्वेद 1-22-19)।

महर्षि दध्यंग आथर्वण की कथा के संकेत ऋग्वेद संहिता के प्रथम मंडल के सूक्त 116 की 12वीं ऋचा, सूक्त 117 की 22वीं ऋचा तथा 10वें मंडल के 48वें सूक्त की दूसरी ऋचा में एवं शतपथ ब्राह्मण (14-4-5-13) और बृहद्देवता (3-18-14) में मिलते है। वैदिक महर्षि दध्यंग ही पौराणिक दधीचि नाम से प्रसिद्ध हैं। वेद में दध्यंग के अश्व सिर से वज्र बनने का उल्लेख है तो पुराण में उनकी देह की हड्डियों से बने वज्र के द्वारा वृत्र के वध का वर्णन है। मूल कथा में कोई विशेष अंतर नहीं है। महर्षि दधीचि के आदर्श चरित्र का चित्रण दोनों में समान है। दध्यंग के अश्व सिर की कथा भी अत्यंत रोचक है। इसी सिर से उन्होंने अश्विनीकुमारों को मधुविद्या सिखाई थी। इस मिथक का उपयोग कर गिरीश कर्नाड ने ‘हयवदन’ नाटक लिखा था जो बहुमंचित हुआ और बहुचर्चित भी रहा। इस तरह वेद में वर्णित कथा-सूत्रों ने आज के कथाकार और नाटककार तक भी अपनी पहुँच बनाई है। कथाकारों-विचारकों को प्रभावित करने का यह क्रम अनन्त काल तक चलते रहना है।  

ऋग्वेद के 10वें मंडल के 108वें सूक्त की 11वीं ऋचा सरमा-पणि संवाद है। इनके अलावा भी ‘पुरुरवा-उर्वशी संवाद’, ‘अपाला-इंद्र संवाद’, ‘लोपामुद्रा-अगस्त्य संवाद’ अनेक संवाद ॠग्वेद में हैं। देवासुर संग्राम की लगभग 12 घटनाएँ संकेत-कथा के रूप में ॠग्वेद के विभिन्न सूक्तों की ॠचाओं में विद्यमान हैं।

वेद में वर्णित कथाओं ने हजारों वर्ष की यात्रा की है। इन हजारों वर्षों में अपने अस्तित्व को काल और आवश्यकता के अनुरूप उन्होंने आख्यान, उपाख्यान, गाथा, बात, ख्यात, लोककथा, धर्मकथा (दृष्टांत, उपदेश, बोध आदि), किंवदंती, कहावत, मुहावरे, चुटकुले,  आदि कथा के लघु से लघु और दीर्घ से दीर्घ अनेक रूपों में बचाकर रखा है। ऐसा भी समय आया, जब वे लिखित साहित्य से अन्तर्धान होकर वे लोककंठी हो गयीं और पीढ़ी दर पीढ़ी लोकगायकी और लोककथावाचकी के रूप में स्वयं को जीवित रखा। एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक की यात्रा में मौखिक बातों के रूप में अनचाहा, अनजाना परिवर्तन हो जाता है, यह एक मनोवैज्ञानिक और प्रामाणिक तथ्य है। वेद से चले हुए कथा-सूत्रों और कथा-संकेतों में परिवर्तन नहीं आया होगा, हम दावा नहीं कर सकते। आज जिसे हम समकालीन लघुकथा कह रहे हैं, उसका विकास नि:संदेह ‘चुटकुले’ जैसे तीक्ष्ण और मारक रूप के साथ हुआ है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने इसकी शुरुआत  अंग्रेजों और अंग्रेजीदांओं के विरुद्ध ‘व्यंग्यपरक’ साहसिक अभियान चलाकर की। नि:संदेह, समकालीन लघुकथा आज मनुष्य के हितार्थ सभी विषयों को प्रस्तुत करने में समर्थ एक चुटीली और गम्भीर कथा-विधा है। सामान्य जन की हर पीड़ा को अभिव्यक्ति देने की सामर्थ्य इसमें है; लेकिन ‘व्यंग्य’ की तीक्ष्णता और ‘संकेतपरकता’ आज भी इसके अकाट्य अस्त्र हैं। माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरीभर मिट्टी’ भी व्यंग्य की धार का ही प्रमाण प्रस्तुत करती है। भारतेंदु हरिश्चन्द्र जिस उद्वेलन को संकेतात्मक रखते हैं, उसी को सप्रे जी ने आध्यात्मिक चेतना के दर्शन से जोड़ने का यत्न किया है। भारतेंदु कचोट उत्पन्न करते हैं और सप्रे जी द्वंद्व की जमीन तैयार करते हैं। आज का लघुकथाकार उस द्वंद्व को उद्वेलन में परिवर्तित करने की दिशा में यत्नशील है। अपने उत्स से लेकर अब तक ‘लघुकथा’ की इन विभिन्न भावभूमियों की पड़ताल और आकलन भी आवश्यक रूप से शोध का विषय है।

(शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘लघुकथा का वैदिक युग’ से एक अंश)

साभार : वेब पत्रिका 'लेखनी' (सं॰ शैल अग्रवाल, लघुकथा विशेषांक, मार्च-अप्रैल 2021)

संपर्क:एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032

मोबाइल:8826499115

ई-मेल:2611ableram@gmail.com

  लेख के मध्य में आये संदर्भित श्लोक :

1-   आ घा गमद्यदि श्रवत्सहस्त्रिणीभिरूतिभिः। वाजेभिरुप नो हवम्।। ॠ. 1-30-8।।

2-   अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे। प्रथिव्या सप्त धामभिः।। ऋ. 1-22-16।।

3-   इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा निदधे पदम्।समूढ़्हमस्य पांसुरे।। ऋ. 1-22-17।।

4-   त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः। अतो धमींणि धारयन्।।ऋ. 1-22-18।।

5-   विष्णोः कमींणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे। इंद्रस्य युज्यः सखा।। ऋ. 1-22-19।। 

1 टिप्पणी:

Niraj Sharma ने कहा…

महत्वपूर्ण कार्य है यह। निःसंदेह यह पुस्तक संग्रहणीय होगी।