वह दौर बहुत पीछे छूट गया। यहाँ तक कि शिगूफा छोड़ने वाले भी, मरे मन से ही सही, थक-हारकर रुख बदल बैठे। लघुकथा-लेखन से जुड़ी पीढ़ियों में गत सदी के आठवें दशक से लेकर इस सदी के दूसरे दशक तक, कुल पाँच दशक की भिन्न-भिन्न पीढ़ियों के लेखक-आलोचक विद्यमान हैं। इनमें पुरानी पीढ़ी के जिन लोगों ने लघुकथा सम्बन्धी अपने मन्तव्य को प्रारम्भ से ही स्पष्ट रखा है, उनमें भगीरथ परिहार, अशोक भाटिया, रामेश्वर काम्बोज हिमांशु, सुकेश साहनी, सतीश राठी का नाम लिया जा सकता है। जगदीश कश्यप का मन्तव्य भी स्पष्ट था लेकिन वे कुछेक दुर्भावनाओं के चलते अनर्गल वक्तव्य देने और अपनी पीढ़ी के लेखकों को नीचा दिखाने के प्रयासों से बाज नहीं आते थे। उनकी इस दुष्प्रवृत्ति ने लघुकथा के साथ-साथ स्वयं उनका भी कम नुकसान नहीं किया। आठवें दशक के प्रति वह इतने अधिक मोहित थे कि नवें दशक पर कम ही बात करते थे; लेकिन एक बार उन्होंने नवें दशक के लघुकथा-कार्यों का श्रेय स्वयं को ही देने का प्रयास भी किया था। बहरहाल, अपने आप को आगे रखने की उनकी कमजोरी को नजरअंदाज कर दिया जाए तो लघुकथा को लेकर उनके मन्तव्यों की स्पष्टता को नकारा नहीं जा सकता।
अभी, एक आलोचना पुस्तक पढ़ते हुए 'आधुनिक लघुकथा में गम्भीरता है न कि हास-परिहास' उपशीर्षक से निम्न पैरा पढ़ने में आया :
भारतेन्दु हरिशचन्द्र की 'परिहासिनी' से उद्धृत 'अंगहीन धनी' में एक धनिक और उसके नौकर मोहना की कथा है। धनिक के पास उसके कुछ प्रतिष्ठित मित्र भी बैठे हैं। बत्ती बुझाने के लिए वह घण्टी बजाकर मोहना को बुलाता है। मोहना कमरे में आता है और बत्ती बुझाकर हँसते हुए कमरे से बाहर चला जाता है। दूसरे नौकरों द्वारा हँसी का कारण पूछने पर वह कहता है कि धनिक के पास पन्द्रह हट्टे-कट्टे जवान बैठे हैं पर किसी से भी बत्ती नहीं बुझी ।
हालांकि इसमें व्यंग्य है । एक घटना है। लघुता है। कसाव है। व्यंग्यात्मक अंत है। कम पात्र हैं। सरल और पात्रानुकूल भाषा है। वर्णनात्मक शैली है। रचना अनुसार शीर्षक है। ये सब होते हुए भी इसमें गम्भीरता नहीं है। ऐसा लगता है, जैसे हँसी-मजाक हो। भारतेन्दु जी ने यह रचना परिहास हेतु ही लिखी थी। इसलिए यह रचना लघुकथा की कई विशेषताओं को लिए हुए भी परिहास के कारण पूर्ण लघुकथा की कोटि में नहीं आती।
भारतेन्दु हरिशचन्द्र की एक अन्य रचना 'अद्भुत संवाद' भी 'परिहासिनी' से ही उद्धृत की गई है। यह संवाद शैली में है। दो ही पात्र हैं और इस रचना का उद्देश्य भी यह है कि सम्भ्रान्त परिवार के लोग स्वयं कार्य न करके दूसरों से लेना चाहते हैं। इसमें घोड़े वाले और दूसरे आदमी के आपसी संवाद हैं। इसमें भी लघुकथा के कुछ तत्त्व संवाद शैली, कसाव, सरल भाषा, लघुता, कम पात्र, प्रश्न शैली, एक घटना आदि स्पष्टतः दिखाई देते हैं किन्तु बातचीत में केवल मात्र हास-परिहास दिखाई देने के कारण इस रचना में गम्भीरता का लोप हो जाता है। आधुनिक लघुकथा गम्भीरता चाहती है न कि हँसी-मजाक।
सन्दर्भित दोनों लघुकथाएँ:
1- अंगहीन धनी
एक धनिक के घर उसके बहुत से प्रतिष्ठित मित्र बैठे थे। नौकर बुलाने को घंटी बजी। मोहना भीतर दौड़ा, पर हँसता हुआ लौटा; और नौकरों ने पूछा, "क्यों हँस रहे हो?" तो उसने जवाब दिया, "भाई सोलह हट्टे-कट्टे जवान थे। उन सभों से एक बत्ती न बुझे, जब हम गए तब बुझे।"
2-अद्भुत संवाद
'ए जरा हमारा घोड़ा पकड़े रहो। "
"यह कूदेगा तो नहीं।"
"कूदेगा! भला कूदेगा क्यों ? लो संभाल लो।"
"यह काटता है ?"
"नहीं काटेगा, लगाम पकड़े रहो।"
“क्या इसे दो आदमी पकड़ते हैं, तब सम्हलता है?"
"नहीं।"
"फिर हमें क्यों तकलीफ देते हैं? आप तो हई हैं।"
दोनों का प्रकाशन सन्दर्भ : परिहासिनी, 1875
इन दोनों रचनाओं के साथ मैंने उक्त टिप्पणी को व्यापक विचारार्थ 'लघुकथा साहित्य' पर पोस्ट किया और प्रमुख रूप से निम्न प्रतिक्रियाएँ पाईं :
मनोरंजन सहाय : यदि कथा में लघुकथा के सभी तत्त्व मौजूद हैं तो केवल इस आधार पर कि इसे केवल हास्य के लिये लिखा गया है, उसे विधा विशेष की श्रेणी से बाहर रखना सहज प्रतीत नहीं होता।
'अंगहीन धनी' शीर्षक कथा के अंत में नौकर का संवाद तो शीर्षक की सार्थकता का प्रतीक है।
दूसरी कथा के संवादों का पूर्ण ज्ञान नहीं हो पाया है।
आजकल तो मामूली से चुटकुलों पर और उन्हीं की भाषा में लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं और साहित्यिक ग्रुप्स के मंचों पर सादर प्रकाशित-प्रसारित की जा रहीं है।
भारतेंदु जी का काल तो इस विधा का शैशवकाल ही था।
उमेश महादोषी : पहली बात तो लघुकथा मनोरंजक होकर भी गंभीर हो सकती है। दूसरे, अन्य विधाओं की तरह लघुकथा की भी विकास यात्रा को ध्यान में रखा जाना चाहिए। सम्पूर्णता में विकसित होने तक कई तत्वों का समावेश होता है। इसलिए उक्त दोनों रचनाओं को लघुकथा में स्वीकृति मिलनी ही चाहिए।
जो मित्र लघुकथा को केवल गंभीरता के आधार पर चिन्हित करना चाहते हैं, उन्हें 'गंभीरता' को भी परिभाषित करना चाहिए।
बलराम अग्रवाल : कई गम्भीर बातें हँसकर भी कही जाती हैं और वह हँसी भीतर तक चीर डालने वाली होती है।
शुभ्रा झा : सर, कई बार अप्रत्यक्ष रूप मे गंभीर बात प्रत्यक्ष रूप से हंसी-ठिठोली में भी प्रस्तुत होती है । भावों का प्रतिपादन महत्वपूर्ण है, माध्यम अलग हो सकते है ।
सतीशचन्द्र श्रीवास्तव : जो बात गंभीरता से नहीं कही जा सकती, वही बात अक्सर हास-परिहास में बड़ी आसानी से कह दी जाती है।
इसलिए, मात्र हास-परिहास के कारण किसी लघुकथा को पूर्णतः लघुकथा नहीं माना जा सकता। ये बात गले नहीं उतरती, जबकि उसमें लघुकथा के सभी तत्व मौजूद हों। हास-परिहास भी अभिव्यक्ति का महत्वपूर्ण भाग है। इसे अन्यथा नहीं लिया जा सकता और नहीं इसके कारण किसी भी लघुकथा को खारिज या कमजोर कहना उचित होगा।
डॉ. श्याम गुप्त : आधुनिक लघुकथा गम्भीरता चाहती है न कि हँसी-मजाक।—यह मानक किसने बनाया??---आधुनिक तथाकथित लघुकथाकार--लघुकथा व कथाकारों को अपनी चेरी बनाकर रखना चाहते हैं---अन्यथा ऐसे कथन का कोइ औचित्य नहीं है---किसी भी विषय पर लघुकथा लिखी जानी चाहिए अन्यथा प्रगति रुक जायगी ...-
उपरोक्त दोनों कथाएं बहुत दूरस्थ सन्देश देती हैं एवं मेरे विचार से सम्पूर्ण लघुकथाएं हैं --- अब कोइ यह न कहे कि लघुकथा में सरोकार नहीं होना चाहिए ---
डॉ. संध्या तिवारी : "आधुनिक कथा में गम्भीरता है न कि हास परिहास"--सबसे पहले तो मुझे यह शीर्षक समझ नहीं आया।
"आधुनिक लघुकथा में गम्भीरता होनी चाहिए, न कि हास-परिहास"--यह शीर्षक कुछ ऐसा होना चाहिए था।
चूंकि ये लघुकथाएं भारतेन्दु जी की हैं और यह बात जग-जाहिर है। इसलिए इसे कोई भी काटेगा नहीं।
परन्तु यह किसी गुमनाम लेखक की होती तो यहां अखाड़ा खुद गया होता।
उपरोक्त टिप्पणियों में जो बात निकलकर आई, वह ठीक है कि जो रचना की गई उस पर देशकाल वातावरण आदि का जबरदस्त प्रभाव होता है और जब ये लघुकथाएं लिखी गई होंगी तो कहने-सुनने की इतनी आज़ादी नहीं रही होगी, जितनी आज है। उस समय को देखते हुए ये कथायें स्तरीय हैं, लेकिन हमेशा से ही क्लासिक की अपनी पहचान अपनी मांग रही है। ये लघुकथाएं लघुकथा की श्रेणी में भले ही हों, क्लासिक नहीं हैं, और जिसने भी आलोचनात्मक टिप्पणी की है उसका मानना क्लासिक लघुकथा से रहा होगा।
किसी भी विधा में कोई भी विधा घुसपैठ बना लेती है। शर्त इतनी है कि पैबंद सरीखी अलग से न छिकी हो।--ऐसा मेरा मानना है।
कांता रॉय (संध्या तिवारी की टिप्पणी पर प्रश्न) : जी, मेरा भी प्रश्न यही है कि अगर यह किसी नए रचनाकार ने लिखा होता तो क्या वह स्वीकार्य होती?
संध्या तिवारी (प्रत्युत्तर) : कान्ता रॉय जी, बिल्कुल। लेकिन आज में और भारतेंदु युग में जमीन-आसमान का अंतर आ चुका है। आरंभ में सृजन उतना परिपक्व नहीं होता, लेकिन आगे की पीढ़ियां यदि वहीं दोहराती रहें तो विधा का विकास कैसे होगा, और विधा के विकास के लिए आने वाली पीढ़ी को उसमें सुन्दरता, कुछ नई बात , कुछ तकनीक के स्तर पर गुणवत्ता, शब्दों का चयन, अर्थ गाम्भीर्य और भावों की गहनता मानीखेज हो जाती है।
इसलिए आज यदि कोई लघुकथा साधक ऐसी रचना लिखे तो हास्य का पात्र तो होना ही चाहिए।
कांता रॉय (प्रतिप्रश्न) : आज के संदर्भ में जब इसकी चर्चा करें तो वर्तमान परिदृश्य को भी साथ लेकर बात करें। अन्यथा ऐसी रचनाएं पढ़कर नई पीढ़ी गफलत में पड़ सकती है।
बलराम अग्रवाल (प्रत्युत्तर) : ऐसी रचनाएँ ससन्दर्भ पढ़ी जाती हैं। उसके बाद भी यदि कोई गफलत में पड़ता है तो बेशक पड़ा करे।
विरेंदर वीर मेहता : इस पोस्ट पर टिप्पणी करने से पहले सर्वप्रथम यह विचार करना भी जरूरी होगा कि किसी रचना पर किसी गंभीर आलोचक की टिप्पणी को एक सिरे से नकारा जाना एक अच्छी परंपरा नहीं होती। साथ ही टिप्पणी किस काल और किस नजरिए से की जाती है, उसका भी अपना एक महत्व है।
बहरहाल इस टिप्पणी के संदर्भ में एक बात अवश्य ही स्वीकार योग्य नहीं है कि आधुनिक लघुकथा में गम्भीरता है हास-परिहास नहीं।
प्रस्तुत दोनों लघुकथाओं भले ही एक व्यंग्य के साथ समाप्त होती है लेकिन उनके शीर्षक की गहराई में देखा जाए तो न केवल कथा के अंत में किए गए हास्य जनित व्यंग्य में कहे गए अनकहे की गूंज सुनाई देती है बल्कि इस कथा को गंभीर कथा की श्रेणी के समकक्ष रखने के योग्य भी कही जा सकती है।
रजनीश दीक्षित : गंभीरता की वजह से रचना को लघुकथा श्रेणी में मान्यता मिलना और हास्य का पुट होने से लघुकथा की श्रेणी से बाहर कर देना, लघुकथा पर एक और अंकुश लगाने वाली बात हो गई।
पुष्पा जगुआर : चूकि भारतेंदु जी अपने काल को दोनों लघुकथाओं में स्पष्ट रूप से हास्य -परिहास के द्वारा प्रत्यक्ष किया है, जहाँ पूर्ण स्वतंत्रता नहीं होती है वहाँ व्यंग्यात्मक शैली की तेवर आते हैं।अतः लघुकथा में शीर्षक से लेकर सारे तत्व मौजूद होते हुए भी गम्भीरता का लोप है, किन्तु सामंतवादी परम्परा की बात खुल कर आया है। जिसे 'अंगहीन धनी' और 'अद्भुत संवाद' में हास्य परिहास के द्वारा नौकर का आत्मिक दर्द और उस आदमी का आत्मिक विद्रोह साफ व्यक्त हुआ है। लघुकथा को लघुकथा के मानक न मानना अपनी परिभाषा की कसौटी पर तौलना है। बावजूद इसके, कुछ हो न हो लघुकथा के बीज तो है ।
राजश्री झा : अंगहीन धनिक संपुट लोक लघुकथा हैं, सभी पुट, अलग-अलग उद्देश्यों को कहती, परिहास्य की उत्तरोत्त क्षणिकता प्रदेय है, पात्र-विमर्श है।
अब, इस सम्बन्ध में 'पालि साहित्य का इतिहास' पुस्तक में लिखित डॉ. पुष्पा अग्रवाल का यह आलेख प्रस्तुत है :
आलेख आगामी अंक में...
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