गतांक से आगे...
जातक-साहित्य में धर्मोपदेशों की प्रधानता है। बुद्ध ने स्वानुभूत सार तत्व को जन-सामान्य के कल्याण के लिए प्रसारित व प्रचारित किया। यह धर्मोपदेश जातक कथाओं के माध्यम से भी जन-जन तक पहुँचा। इस दृष्टि से देखेँ तो स्पष्ट हो जाता है कि जातक-साहित्य धार्मिक-साहित्य है। कल्पना जहाँ काव्य को मोहक रूप प्रदान करती है, वहाँ हास्यादि भी इस मनोरमता की वृद्धि ही करते हैं। हास्यादि तत्व ऐसे हैं जिनसे पाठक के मन पर अमित प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि हास्य-व्यंग्य और विनोद से परिपूर्ण जातक कथाएँ मानव-मन को प्रभावित करने वाली हैं।
भगवान बुद्ध का यह प्रयास था कि शील और सदाचार के मार्ग पर जनता आ सके। इसके लिए जन-सामान्य को बाध्य नहीं किया जा सकता था किन्तु मानव मन की सहज प्रवृत्ति को आकर्षित करके धर्मोपदेश ग्रहण कराए जा सकते थे। अत: इस कार्य को हास्यादि पूर्ण जातक कथाओं ने सफलतापूर्वक पूर्ण किया। बुद्ध ने अपने सिद्धान्तों, मान्यताओं, शिक्षाओं को घटनाओं, संवादों और परिस्थितियों के माध्यम से प्रकाशित किया। उन्होंने प्रकारान्तर से अन्य सिद्धान्तों का खंडन किया। वस्तुत: जातक चासनी चढ़ी कुनैन की तरह हैं, जिसे श्रोता व पाठक धैर्यपूर्वक ग्रहण कर लेता है। यह चासनी है, हास्य, व्यंग्य व विनोद की। इसके अतिरिक्त अन्य सिद्धान्तों व विधर्मियों तथा विपक्षियों की मान्यताओं पर व्यंग्य करना भी जातककार का लक्ष्य है। इनमें भावनाओं व क्रियाओं में मूर्खता दिखाकर उपहास भी किया है । जातक कथाएँ इस दृष्टि से अत्यन्त रोचक, सार्थक, सोद्देश्य व मनोरम बन गई हैं ।
'पालि जातकावलि' के प्रथम जातक 'सुंसुमार जातक' में बन्दर व मगर का परस्पर वैर तथा बन्दर की प्रत्युत्पन्नमति और मगर की स्थूल बुद्धि का सुन्दर चित्रण किया गया है। मगर का अपनी स्थूल बुद्धि से बन्दर को हरे-भरे प्रदेश में ले जाने का लालच देकर उसे मार डालने का प्रयास करना और बन्दर को मालूम होने पर उसके द्वारा मगर का ठगा जाना, हास्य, विनोद व व्यंग्य का सुन्दर उदाहरण है ।
"हे मगर, तुम्हारा शरीर ही बड़ा है, बुद्धि नहीं। तुमको मैंने ठग लिया अब कहीं और जाओ।" बन्दर के इस संवाद के द्वारा मूर्ख व विपक्षियों का उपहास भी ज्ञात होता है कि केवल शरीर बड़ा होने से ही बुद्धि तीक्ष्ण नहीं होती और ऐसे व्यक्ति घोखा ही खाते हैं।
'चानरिन्द जातक' में भी वानर और कुम्भील के संवाद अत्यन्त हास्यपूर्ण, चुटीले तथा व्यंग्यात्मक हैं, जो पाठक को न केवल चमत्कृत ही करते हैं अपितु उसे हँसाते भी हैं। पत्थर से वार्तालाप करने की कल्पना भी कितनी रोचक है। देखिए–"हे पत्थर, क्या आज जवाब नहीं दोगे ?" फिर से, "हे पत्थर, क्यों मेरी बात का आज जवाब नहीं देते हो?"
कुम्भील ने सोचा कि 'अन्य दिनों में यह पत्थर इस वानर को जवाब देता होगा' अतः आज मैं जवाब दूँगा।"
कुम्भील यह न सोच सका कि पत्थर कैसे बोल सकता है! एक सामान्य-सा सिद्धान्त है कि असत्य से सत्य को जाना जा सकता है। यह सिद्धान्त यहाँ भी लागू दिखाई देता है। वानर इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण व्यवहार से कुम्भील की कपटता को जान लेता है ।
अंत में कुम्भील उसकी प्रशंसा भी करता है--"हे वानर, जिसको तेरे समान ये चारों धर्म प्राप्त हैं—सत्य, धर्म, धृति और त्याग, वह शत्रु को जीत लेता है।" इस प्रशंसा से शत्रु का उपहास (स्वयं द्वारा) जहाँ स्पष्ट है, वहाँ प्रत्युत्पन्नमतित्व व विनोद की झलक भी मिलती है ।
जातक कथाओं में इस प्रकार के प्रसंगों की कमी नहीं है । 'बक-जातक' में भी हास्य और विनोद का पुट अत्यन्त सुन्दर है। केकड़े और बगुले का मामा-भानजे का सम्बन्ध व तदनुरूप वार्तालाप शुद्ध हास्य की सृष्टि करता है । इतना ही नहीं बगुले की मरण-भयभीत दशा का वर्णन भी अत्यन्त विनोदकर है ।
सम्पूर्ण जातक हास्य व विनोद का वातावरण उपस्थित करता है ।
'सोहचम्म जातक' में भी विनोद की पर्याप्त सामग्री है। बनिये का गधे को सिंह चर्म पहनाकर खेतों में छोड़ देना और स्वयं विश्राम करने का प्रसंग अत्यन्त विनोदपूर्ण है। किन्तु गधे की आवाज से किसानों का भय दूर होना और फिर उसकी पिटाई होना, ये सभी हास्यपूर्ण स्थितियां तो हैं ही, साथ ही नीति सिद्धान्तों की पोषक भी हैं। 'भले बुरे सब एक से जब लौं बोलत नाहि'--इसका सुन्दर उदाहरण है यह जातक ।
'न-च-जातकं' में भी हास्य की झलक है। व्यक्ति कभी-कभी अति प्रसन्न होकर ऐसे कार्य कर डालता है, जिसके कारण वह उपहास का पात्र तो बनता ही है, अन्यों के लिए हास्य की स्थिति भी उत्पन्न करता है। मोर की जब बहुत प्रशंसा होती है और हंस की बेटी उसे पति रूप में पसन्द करती है, तो प्रसन्नता के अतिरेक में मोर सब-कुछ भूलकर नाचने लगता है और वह नाचते-नाचते नंगा हो जाता है, जिसके फलस्वरूप न तो उसे हंसदुहिता मिलती है और न प्रशंसा।
"वाणी मनोज्ञ है, पीठ सुन्दर है, गर्दन वैदूर्य मणि के समान है तथा चार हाथ लम्बी पाँखें हैं, किन्तु नाचना आने मात्र से तुझे मैं अपनी पुत्री नहीं दूँगा।"
'उलूक जातक' के द्वारा भी हास्य उत्पन्न होता है। काक का यह कहना कि—"देखो, राज्यभिषेक के समय इसका (उल्लू का) मुख ऐसा है, इसके क्रोधित होने पर कैसा होगा ?" उपहासात्मक तो है ही; अदर्शनीय व्यक्तियों पर व्यंग्य भी है ।
'चम्मसारक-जातक' तो वस्तुतः शुद्ध हास्यपूर्ण है। किसी परिव्राजक का मेढ़े को अपना आदर-सत्कार करने वाला समझना हास्यपूर्ण ही है। मेंढ़ा पीछे हटता है उसे मारने के लिए वह उसे आदरसूचक समझकर कहता है--"यह पशु उत्तम स्वभाव का है । सुन्दर और प्रिय आचरण वाला है, जोकि जाति और मंत्र से युक्त ब्राह्मण का सत्कार कर रहा है। यह श्रेष्ठ और यशस्वी मेंढा है।"
परिव्राजक की यह गाथा पाठक को हंसी से लोट-पोट कर देती है।
इसके अतिरिक्त 'वैदब्भ जातक', 'उच्छंगजातक', आदि के द्वारा भी हास्य व विनोद की झलक प्राप्त होती है ।
विवेचन के आधार पर सहज ही हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जातकों में हास्य, विनोद व व्यंग्य के वातावरण के द्वारा रोचकता, नवीनता, ग्राह्यता का समावेश स्वतः ही हो गया है। हास्यादि का जातकों में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है, यह निर्विवाद है ।
(डॉ. पुष्पा अग्रवाल की पुस्तक 'पालि साहित्य का इतिहास', पृष्ठ 69-73 से साभार)
नोट : नि:सन्देह, इस लेख में कुछेक जातक कथाओं को उद्धरण स्वरूप प्रस्तुत किया गया है, लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि हास्य, व्यंग्य व विनोद आदि केवल जातकों का ही विषय रहे हैं अथवा हैं।--बलराम अग्रवाल
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