रचना
डर / बलराम अग्रवाल
दोनों अगल-बगल बैठे थे।पहला किसी चिंता में मग्न था। "बहुत चुप है आज!" कुछ देर उसे निहारता रहने के बाद दूसरे ने पूछा, "बात क्या है?"
"बात!" दोस्त का सवाल सुन पहले ने धीमे स्वर में कहा, "सोचो तो बहुत बड़ी है, न सोचो तो कुछ भी नहीं।"
"हुआ क्या?"
"हुआ यह कि, " पहले ने बताना शुरू किया, "कल रात, लिखने की अपनी मेज पर बैठा मैं कुछ सोच रहा था कि एक युवती कमरे में दाखिल हुई। मुस्कुराते हुए उसने अभिवादन किया और सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई।"
"फिर?"
"उसने कहा कि वह एक अन्तरराष्ट्रीय कहानी सर्वे के भारतीय प्रतिनिधिमंडल की सदस्य है। बोली, आप वरिष्ठ कथाकार हैं। कृपया अपनी 30 ऐसी कहानियों की सूची मुझे दें, जिन्हें आप उच्च स्तरीय मानते हों।"
"यह तो कोई मुश्किल काम नहीं था।" दूसरे ने कहा।
"यार, बिरला ही कोई कथाकार होगा जिसे अपनी सभी कहानियों के शीर्षक याद रह गए हों!"
दूसरा इस तर्क का तुरंत प्रतिवाद नहीं कर पाया।
"उनमें भी, श्रेष्ठ का चुनाव!" पहले ने कहना जारी रखा, "मेहनत जरूर करनी पड़ी, लेकिन अपनी पसंद की 30 श्रेष्ठ कहानियों की सूची बनाकर मैंने उसके आगे रख दी।"
"फिर?"
"सूची को देखकर उसने कहा, इन्हें कृपया अपनी दृष्टि से वरीयता के क्रम में लिख दें। मैंने वह भी कर दिया।"
"फिर?"
"उस नई सूची पर क्रमांक 16 से 30 तक के नामों को अपने हाथ में पकड़े पेन से उसने एक बॉक्स में बंद कर दिया; फिर मुझसे कहा, ऊपर की 15 में से यदि 10 कहानियों का चुनाव करना हो, तो आप किन्हें चुनना चाहेंगे?
इस तरह उसने पाँच कहानियाँ और अलग करवा दीं।"
"यानी सिर्फ दस कहानियों की सूची अपने पास रखी?" दूसरे ने पूछा।
"अरे नहीं, " पहले ने दुखी अंदाज में कहा, "बोली--इन 10 कहानियों को सम्पादक अगर 5-5 की दो किस्तों में छापना चाहें, तो जिन 5 को आप पहले छपवाना चाहेंगे; उन्हें कृपया पहले, दूसरे, तीसरे... स्थान के वरीयता क्रम में लिख दें।"
"यह तो कोई मुश्किल काम नहीं था।" दूसरे ने कहा।
"यार, 300 में से 30 कहानियों के नाम चुनने में ही मेरी ऐसी-तैसी हो गई थी और तुम कह रहे कि यह कोई मुश्किल काम नहीं था!" पहले ने गुस्सेभरी तेज आवाज में कहा। दूसरे को उसका यह अंदाज बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा; लेकिन उसने प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
"मैं उसके शिकंजे में फँस चुका था और अब वह चालाक युवती उसे कसे जा रही थी।" पहला कुछ देर बाद अपने-आप में बुदबुदाया फिर स्पष्ट आवाज में बोला, "इतना कर चुकने के बाद मैंने झिड़ककर उसे भगा देना चाहा, लेकिन... न जाने क्या सोचकर वह क्रम भी बना दिया।"
"फिर?"
"फिर वह हुआ जिसकी मुझे सपने में भी उम्मीद नहीं थी।" पहले ने दुखी स्वर में कहा।
"क्या?"
"उस सूची को देखते ही उसने कहा--सर, स्वयं चुनी हुई 30 में से 25 कहानियों को तो आप ही निचले पायदान पर रख चुके हैं। खेद की बात यह कि पाठकों और आलोचकों की संयुक्त राय के आधार पर तैयार श्रेष्ठ कहानियों की जो सूची हमारे पास है, उसमें इन पाँच में से एक का भी नाम नहीं है।"
"ओह!" दूसरे के कंठ से निकला।
"मैं तो 'ओह' भी नहीं कह पाया था, " पहला बोला, "उसका निर्णय सुनकर बेहोश-सा हो गया।"
"हे भगवान!" दूसरे ने चिंता जताई, "फिर क्या हुआ?"
"चैतन्य हुआ तो कमरे में सिर्फ मैं था।" पहले ने कहा।
"यानी कि वह जा चुकी थी!" दूसरे ने आश्चर्य व्यक्त किया।
"आई ही कब थी!" पहले ने ठंडे स्वर में कहा, "पत्नी-बच्चे सब बाहर गए हुए हैं। सिक्योरिटी गार्ड्स को 'डोंट डिस्टर्ब' बोल रखा था। फ्लैट अंदर से बंद। मेरा कमरा अंदर से बंद। रात, दो बजे का समय। कौन आ सकता था!!!"
"डर!" दूसरे ने सधे स्वर में कहा।
पहले ने नजरें उठाकर बगल में देखा--वहाँ दूसरा कोई नहीं था।
सिर्फ वह था, निपट अकेला।
आलोचना
निडर होकर लिखी गई बलराम अग्रवाल की 'डर लघुकथा
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समकालीन लघुकथाकार बलराम अग्रवाल की निहायत ही ताज़ातरीन लिखी लघुकथा 'डर' जिसे लघुकथाकार ने 2021 के नवम्बर माह की 25 तारीख यानी अपने 70वें जन्मदिन से मात्र एक दिन पूर्व प्रणीत किया है।
बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ आनन-फ़ानन में निर्मित न होकर गहरी विचारशीलता का प्रतिफलन होती हैं। उनकी लघुकथाओं में मनोविज्ञान के स्वर मुखरित हुए मिलते हैं जो मानव मन की अवस्थाओं तथा मानव मन पर पड़ने वाले प्रभावों को विवेचित करते हैं। उनकी लघुकथाओं में मनोविज्ञान का होना लघुकथाओं को दुरूह बनाने हेतु प्रयोजित नहीं होता है प्रत्युत लघुकथाओं का तात्विक अध्ययन किए जाने की तरज़ीह लेकर उपस्थित हुआ करता है। जहाँ मनोविज्ञान है वहॉं
लेखकीय चिन्तन लेखक की गवेषणात्मक शक्ति का परिचय देता मिलता है। विशेषकर जब लेखक या लघुकथाकार 'डर' सरीखी पृथक भावभूमि की लघुकथा निर्मित कर पटल पर लाता है।
प्रायः रचना के साथ उस रचना के प्रकाशन की तीव्र लालसा जुड़ी होकर उस रचना को सम्पादन की दिशा में अग्रसरित किए जाने की उत्कण्ठा रचनाकार के मन को अनवरत रूप में सालती रहती है? तबतक, जबतक लेखक रचना को प्रकाशन का रास्ता नहीं दिखा देता या जबतक उसकी रचना कहीं से प्रकाशित होकर उसकी आँखों की खुराक़ नहीं बन जाती!
बलराम अग्रवाल की लघुकथा 'डर' कथ्य का ऐसा रचनात्मक उत्पाद है जिसके ऊपर 'प्रकाशन विषयक ग्यारेन्टी' का मार्का चस्पां नहीं होकर प्रकाशन बाबत असमञ्जस की स्थिति से पगा है!
लघुकथा 'डर' एक ऐसे सृजनरत कहानीकार को केन्द्र में रखकर घटित होती है, जिसके पास उसकी लिखी कहानियों की लम्बी फ़ेहरिस्त है। संयोगवश अंतरराष्ट्रीय कहानी सर्वे के भारतीय प्रतिनिधि मण्डल की सदस्य प्रकाशन बाबत उस कहानीकार से मिलती है और उससे उसकी लिखी 30 श्रेष्ठ कहानियों की सूची माँगती है। कहानीकार अपनी लगभग 300 कहानियों में से 30 कहानी का चयन कर उसके आगे रखता है। अंततः बात यह पैदा होती है कि वह अपने द्वारा चयनित 30 कहानियों में से फिर 15 श्रेष्ठ कहानी का चयन करें। बात यहाँ तक आती है कि वह उनमें से कोई 10 कहानियों का चयन करे और अंततः सर्वे मण्डल की सदस्य उसे निर्दिष्ट करती है कि इन 10 कहानियों में से 5-5 कहानियों के 2 सैट तैयार करे। इसके बाद वरीयता के क्रम में छपवाने की दृष्टि से चयनित 5 कहानियों को क्रम से विभक्त करे । इस जटिल कार्य को भी प्रकाशन की तीव्र लालसा में वह सम्पादित करता है। यहीं आकर बलराम अग्रवाल की लघुकथा 'डर' यू-टर्न लेती है। जब लेखक द्वारा चयनित की गईं 5 लघुकथाओं का वह उसके पास रखी उस फ़ेहरिस्त के माध्यम से मिलान करती है कि उसके पास आलोचकों द्वारा अबतक जिन चुनिन्दा कहानियों की समीक्षा की गईं हैं उन कहानियों में आपकी लिखी कोई कहानी देखने में नहीं आई है।
यहीं आकर लघुकथाकार बलराम अग्रवाल को अपनी लघुकथा 'डर' को विराम दे देना चाहिए था। इसी जगह रुककर 'डर' एक उम्दा व्यंग्यात्मक लघुकथा होने का तमगा बेशक़ हासिल कर सकती है।
लघुकथा में आगे का ब्यौरा उस सर्वेयर की उपस्थिति को काल्पनिक बना देता है जो लघुकथा की सृजन प्रक्रिया को बलात् खण्डित करने का लेखकीय आरोपित प्रयास ही है !
बलराम अग्रवाल ने 'डर' लघुकथा का कथानक उनकी उर्घ्वगामी दृष्टि से उतारा है अतः इस कथानक का अंत अधोगामी न दिखाकर लघुकथा का रचनात्मक सौष्ठव बचाया जा सकता है।
अन्त में, एक बात को कहना और ज़रूरी है कि लघुकथा 'डर' का पात्र अपनी रचनाओं के प्रकाशन के तारतम्य में महत्वाकांक्षी है, लेकिन फ़क़त रचना प्रकाशन को लेकर उम्मीद जताने के बदले उसे चाहिए कि वह समकालीन आलोचना एवं युगीन आग्रहों से कटिबद्व होकर अपने रचना विधान को जन्म देने का निर्णय स्वयं से ले।
तथापि मैं बलराम अग्रवाल को उनकी इस ताज़ातरीन लघुकथा 'डर' को लेकर उनको बधाई देता हूँ कि उन्होंने रचनात्मकता में दिनोदिन बढ़ते कुहासे पर प्रस्तुत लघुकथा के माध्यम से सृजनकर्ताओं की धुंधली दृष्टि को नज़र का चश्मा पहनाने की सकारात्मक कोशिश की है।
● डॉ. पुरुषोत्तम दुबे
शशीपुष्प
74 जे ए स्कीम न 71
इन्दौर (म.प्र.)
मोबाइल 9329581414
(नोट : 11-12-2021 को पोस्ट किया। एक पुरानी पोस्ट पर लिखने के कारण पुरानी तारीख दिखा रहा है)
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