27 अक्टूबर, 2018 को ‘लघुकथा कलश’ सम्पादक योगराज प्रभाकर को लिखे मेल की प्रति— प्रिय योगराज जी, ‘लघुकथा कलश, महाविशेषांक-2’ पृष्ठ 228 पर सविता इन्द्र गुप्ता की लघुकथा 'सीढ़ियाँ' छपी है। इसे पढ़ते हुए मुझे हरिशंकर परसाई की लघुकथा ‘लिफ्ट’ और पारस दासोत की लघुकथा ‘वह फौलादी लड़की’, दोनों एक-साथ याद आयीं। यहाँ इन तीनों रचनाओं को क्रमश: पढ़िए और विचार कीजिए कि सफल स्त्री पर चारित्रिक गिरावट का लांछन लगाना इतना आसान क्यों है? ये लांछन उपजे किस मानसिकता हैं? इनमें यद्यपि परसाई जी की लघुकथा पतित पुरुष की ही मानसिकता व्यक्त करती है, लेकिन इस्तेमाल तो स्त्री ही हुई। सविता की पात्र अंत में एक द्वंद्व से गुजरती है और पारस जी की पात्र तो नारी-सुलभ सौम्यता ही खो बैठती है। स्त्री को ही इस नियति से क्यों गुजरना पड़ता है। पुरुष के पास क्या सिर्फ दंभ है? या फिर, जीवन में क्या खोया, क्या पाया के ऐसे द्वंद्व से कभी वह भी गुजरता है? नहीं, तो क्यों? हाँ, तो किस तरह? चर्चा इस विषय पर करनी है। समकालीन लघुकथा को टाइप्ड विषयों से बाहर निकालने के लिए यह आवश्यक है। सविता की लघुकथा में स्त्री का इस द्वंद्व से गुजरना समकालीन लघुकथा में स्त्री के चरित्र-चित्रण में एक बदलाव को रेखांकित करता है। इन सभी लघुकथा के माध्यम से आइए, उस पर बात करें: ॥1॥ लिफ्ट /हरिशंकर परसाई वे दोनों एक ही विभाग में बराबर के पद पर थे। उनके दफ्तर दूसरी मंजिल पर थे। वे अक्सर फाटक पर मिल जाते और साथ-साथ सीढ़ियाँ चढ़कर अपने कमरों में पहुँच जाते। विभाग में एक ऊँचा पद खाली हुआ। दोनों उसके लिए कोशिश करने लगे। ऊँचे पद का दफ्तर चौथी मंजिल पर था। उनमें से एक को छुट्टी लेकर अपने गाँव जाना पड़ा। दूसरा कोशिश करता रहा। उसकी कोशिश के प्रकार के सम्बन्ध में दफ्तर में कानाफूसी होने लगी। पहला, छुट्टी से लौटकर आया, तो उसके कान में भी लोगों ने वे बातें कह दीं, जो वे एक-दूसरे से कहा करते थे। फाटक पर वे दोनों फिर मिल गये। पहला सीढ़ी की तरफ मुड़ा और दूसरा लिफ्ट की तरफ। पहले ने कहा, "आज सीढ़ियों से नहीं चढ़ोगे?" दूसरे ने कहा, "मुझे तो अब चौथी मंजिल पर जाना है न! वहाँ सीढ़ियों से नहीं चढ़ा जाता। लिफ्ट से जाना चाहिए।" पहले ने कहा, "हाँ भाई, लिफ्ट से चढ़ो! हमारी लिफ्ट तो 35 साल की, और मोटी हो गयी है।" ॥2॥ वह फौलादी लड़की / पारस दासोत समय के साथ कदम मिलाती लड़की ने, जब उस दिन भी, हमेशा की तरह अपनी रट लगायी--"मुझे फौलाद की बना दो!" समय ने, न चाहते हुए भी, उसकी जिद रखने हेतु, उसे फौलाद की बना दिया। फौलाद की बनने के बाद, लड़की ने देखा--उसके अमूल्य आभूषण भी फौलाद में ढल गये हैं। वे प्यारभरे झोंकों से न तो हिलते हैं, न डोलते हैं। उन्होंने धीरे-धीरे अपना अर्थ, अपनी पहचान खो दी है। परिणाम यह हुआ, फौलाद बनी लड़की, ताप पर न तो फैलती, न ही अपनी सुगंध छोड़ती। वह तो केवल मूर्ति बनकर रह गयी। एक ऐसी मूर्ति, जिसमें जान तो है, लेकिन धड़कन नहीं है। वासना तो है, पर प्रसव-आनंद नहीं है। बच्चा तो है, लेकिन उसके पास त्यागरूपी आभूषण… ! आभूषण तो है, पर वह प्यारभरे झोंकों से न तो हिलता है, न डोलता है। आज, जब फौलाद बनी लड़की के पास उसकी राह पर पास ही, समय चल रहा था, वह यकायक समय को, अपने पास देखकर उससे बोली, "मुझे आपसे जरूरी बात करना है, मैं आपसे कल मिलूँगी!" दोनों, अपनी-अपनी राह, व्यंग्यभरी मुस्कान लेते, चल रहे थे। ॥3॥ सीढ़ियाँ / सविता इन्द्र गुप्ता आई.सी.यू. में पिछले तीन माह से रात-दिन दवाइयाँ, ड्रिप्स, ऑक्सीजन, ब्लड ट्रांसफ्यूजन आदि से वह तंग आ चुकी है। सीमित मात्रा में शायद नशीली दवाएँ भी नियमित रूप से दी जा रही हैं, जो उसे ज़िंदा रखने के लिए जरूरी हैं। आधी सोई, आधी जागी-सी हालत में उसे रह-रह कर अपना बचपन याद आ रहा है। बचपन में सीढ़ियाँ चढ़ने का शौक था। सब रोकते रह जाते थे लेकिन वह खटाखट चढ़ जाती थी। चढ़ती चली गयी ... स्कूल टीचर्स, अमीर साथी और हैड ऑफ़ डिपार्टमेंट, सभी के कन्धों पर चढ़ कर ... एक के बाद एक सीढ़ी ... पापा की नाराजगी को पैरों तले रौंदते हुए, माँ के दिए संस्कारों को कुचलते हुए ... जग हँसाई को नकारते हुए। किसी से लाभ उठाने में वह किसी भी हद तक जाने को तैयार रहती थी। प्रबंधन में असाधारण योग्यता के बलबूते पर वह एक कम्पनी की सी.ई.ओ. बनी, तो उसने कंपनी के वारे-न्यारे कर दिए थे। कम्पनी का मालिक उसका मुरीद हो गया था। मालिक ने अपनी पत्नी को तलाक दे कर उसे साथ रहने को फुसलाया। वह तुरंत मान गई लेकिन कम्पनी मालिक को उसने एक ऊँची सीढ़ी से अधिक कुछ नहीं समझा था। लिव-इन की पहली रात को कम्पनी के पचास प्रतिशत शेयर उसके नाम कर दिए गए यानी पचास करोड़ रुपये, साथ में दबे पाँव एच.आई.वी. वायरस भी। अन्धेरा सब कुछ लीलता जा रहा है। नर्स घबरा कर डॉक्टर को बुलाती है। वह बेहोशी में बड़बड़ा रही है, "स्मार्ट हूँ ...सुन्दर हूँ ... करोड़ों का बैंक बैलेंस है ... डॉक्टर ! मेरा सब कुछ तुम्हारा ...बस मुझे बचा लो ... उफ़्फ़ ... इतना अँधेरा ... क्यों कर रखा है ? ये बहुत लम्बी सीढ़ी कौन लाया है ?" |
बलराम अग्रवाल के लघुकथा सम्बन्धी आलोचना व समीक्षापरक विचारों का मंच। नन्हें-से वट-बीज से निकले हुए अकेले अंकुर ने सम्पूर्ण वन में ऐसा विस्तार कर लिया है कि सारे वृक्ष उसके नीचे आ गए हैं। (गाथा सप्तशती 7/70)
शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023
समकालीन लघुकथा और स्त्री, पुरुष जीवन के द्वंद्व / बलराम अग्रवाल
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