बलराम अग्रवाल |
जिसे हम उपन्यास का समय कहते हैं, वह ऐसा समय था, जब समूचा कैनवस लेखक के सामने लगभग खाली पड़ा था। धार्मिक कथाओं से परिसम्पन्न महाकाव्य आदि की कथाओं-उपकथाओं से ऊब चुके पाठक और श्रोता दोनों को उनसे कुछ अलग चाहिए था, जो तत्कालीन उपन्यासकारों ने विभिन्न रूपों में दिया। पहले खत्री जी आदि ने, बाद में प्रेमचंद, प्रसाद, इलाचन्द्र जोशी, जैनेन्द जी आदि ने। लगभग यही बात कहानी के सम्बन्ध में भी कही जाती है। कहानी ने तो अपने ऊबे हुए पाठक को नयी कहानी, समांतर कहानी, सचेतन कहानी, अ-कहानी आदि से बहलाने की भी कोशिशें कीं। लेकिन कहानी से ऊबे पाठक को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल वस्तुत: लघुकथाकार हुए। लघुकथा ने भी गत 50 वर्षों में अपने क्राफ्ट में अनेक सार्थक परिवर्तन, परिवर्द्धन किये हैं। आज की लघुकथा वही नहीं है जिसे स्वाधीनता से पहले विष्णु प्रभाकर जी, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर जी, आचार्य जगदीशचन्द्र मिश्र जी आदि लिख रहे थे; आज की लघुकथा वह भी नहीं है जिसे स्वाधीनता के बाद और 1975 तक भी अनेक कथाकार लिख रहे थे और जो ‘सारिका’ में छप रही थी। आज की लघुकथा शब्दश: वह भी नहीं है जिसे आठवें-नवें दशक के लघुकथाकार लिख चुके हैं। वह, भले ही वहीं कहीं से प्रस्फुटित होती है, लेकिन एकदम नवीन अन्तर्वस्तु, भाषा, शिल्प और शैली, संकेत और व्यंजना की रचना है। आठवें-नौवें-दसवें दशक से लिखते आ रहे कुछ लघुकथाकार नवीन अन्तर्वस्तु प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं। नयी पीढ़ी उनसे सीख भी रही है, प्रेरणा भी पा रही है और ताजगी प्रदान करने में सहायक भी सिद्ध हो रही है।
सन् 1970 से अब तक अधिक नहीं तो 50,000 लघुकथाएँ तो लिखी ही जा चुकी होंगी । कथ्य की प्रकृति और प्रवृत्ति की दृष्टि से अध्ययन हेतु इन सब लघुकथाओं के दो समूह बनाए जा सकते हैं । एक समूह सन् 1970 से 2000 तक की लघुकथाओं का और दूसरा सन् 2000 से 2023 के अन्त तक अथवा आगे जिस सन् में भी यह कार्य हो, उसके अन्त तक की लघुकथाओं का बनाकर उनके कथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन करें, तभी हमें पता चलेगा कि हम आगे बढ़े हैं या जहाँ के तहाँ खड़े हैं। लघुकथाकार के रूप में हम अपना मात्र प्रचार ही कर रहे हैं या हमारी लघुकथाओं में शाश्वत भी कुछ है। जो लघुकथाएँ कुछेक आत्ममुग्धों द्वारा कुछेक आत्ममुग्धों के लिए आत्ममुग्ध-सी आकलित हों, उन पर समय नष्ट करने का समय समाप्त हो चुका है। आज हमें ऐसी लघुकथाएँ चाहिए जो अपनी गतिमानता सिद्ध करती हों। समय बेशक बहुत तेजी से भाग रहा है। उतनी ही तेजी से लघुकथाएँ भी सामने आ रही हैं। कुछ लघुकथाकार लिखने की जल्दी में हैं। कुछ लघुकथाकारों के सामने दुनिया तेजी से खुल रही है, वे किंचित ठहरकर तेजी से खुल रही इस दुनिया का जायजा लेना चाहते हैं, लिखने की जल्दी में नहीं हैं। लघुकथा को पाठक भी दो तरह का मिल रहा है। एक वो, जिसके पास समझने की समझ नहीं है, उसे सिर्फ रंजन चाहिए या फिर हल्की-फुल्की भावुकता; दूसरा वह, जिसके पास समझने के लिए समय नहीं है; जल्दी-जल्दी पढ़कर वह जल्दी ही भूल भी जाने लगा है। ऐसा लगता है कि बहुत-से लघुकथाकार बस इन दोनों के लिए ही लिख रहे हैं। उनके कथ्य चयन में, भाषा में, शिल्प में सिंथेटिसिटी होती है, संवेदनात्मक संस्पर्श से उनकी लघुकथाएँ निस्पृह रहती हैं। झटपट तैयार की गयी सामग्री जल्दी में रहने वाले पाठकों के लिए ही हो सकती है। सामयिक भाषा में कहें तो वैसी लघुकथाएँ ‘चीनी उत्पाद’ है—गैर-टिकाऊ, गैर-भरोसेमंद और गैर-जिम्मेदार।
टिकाऊ लघुकथाकार की क्या पहचान है? पहली तो यह कि वह विगत से आगे का कथ्य प्रस्तुत कर रहा होता है; और दूसरा यह कि अलग-अलग तकनीकों और शैलियों में एक समान कथ्य को वह दोहराता नहीं है। कथ्य का दोहराव करने वाला कथाकार स्वयं तो लेखन से हट जाने की ईमानदारी दिखा नहीं सकता, आलोचक को ही आगे आकर साहस के साथ इस कार्य को सम्पन्न करना चाहिए। समकालीन जीवन की नवीन समस्याओं को साहस के साथ कह पाने में अक्षम लघुकथाकार को लादे क्यों रखा जाए? वह यदि विषय नये नहीं चुन पा रहा है तो प्रश्न तो नये खड़े कर ही सकता है; और अगर नये प्रश्न भी खड़े कर पाने की योग्यता उसमें नहीं है तो ऐसे दिवालिया व्यक्ति को कथाकार क्यों माना जाए, विधा उसे क्यों झेले? (रचना तिथि 29-5-2023_दोबारा पोस्टेड)
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3 टिप्पणियां:
आपके विचारों से पूर्ण सहमत हूं।
सटीक विश्लेषण
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