[प्रस्तुत प्रश्नावली 22 सितम्बर 2021 को डॉ. संजीव कुमार की ओर से वाट्सएप पर प्राप्त हुई थी। 27 सितम्बर 2021 को उन्हें इस प्रश्नावली के उत्तर भेज दिए थे। दिनांक 12 मार्च 2023 को 'इंडिया नेटबुक्स' की ओर से दिल्ली के मयूर विहार स्थित होटल प्लाजा में सम्पन्न साहित्यकार सम्मान समारोह में प्रश्नोत्तर केन्द्रित उनकी दो पुस्तकें भी लोकार्पित की गयीं। उम्मीद है, प्रस्तुत प्रश्नोत्तरी भी उनमें से किसी एक पुस्तक में स्थान पा गयी होगी।
पुस्तक में प्रस्तुत प्रश्नोत्तरी को क्या शीर्षक दिया गया है, नहीं मालूम; बहरहाल मैं इसे अपनी ओर से एक शीर्षक देकर यहाँ दे रहा हूँ। ]
1- साहित्य सृजन में आपकी रुचि कैसे उत्पन्न हुई? किस साहित्यकार से आपको लिखने की प्रेरणा मिली?
साहित्य सृजन में मेरी रुचि पाठ्य-पुस्तकों से इतर साहित्यिक रचनाएँ पढ़ने से ही उत्पन्न हुई। पिताजी गीताप्रेस गोरखपुर की कथा-पुस्तकें लाते थे और छोटे चाचाजी धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, चन्दामामा आदि।
डॉ. बलराम अग्रवाल |
डॉ. संजीव कुमार |
मेरी पहली रचना 1969 में महात्मा गांधी की जन्म शताब्दी के दौरान उनके ऊपर ही लिखा गया एक लेख था। वह लेख हमारे विद्यालय की वार्षिक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।
3- साहित्य की किस-किस विधा में आपने काम किया है? और किस विधा में आपकी रुचि सर्वाधिक है?लघुकथा, कहानी, कविता, बालसाहित्य, आलोचना, अनुवाद आदि विधाओं में लेखन किया है। शुरुआती दौर में कविताएँ काफी लिखीं। एक-दो कहानियाँ भी लिखीं। 1972 में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली द्वैमासिक पत्रिका ‘कात्यायनी’ से अचानक भेंट हो गयी। उसमें छपी ‘लघुकथा’ विधा ने प्रभावित किया; बस, तभी से लघुकथा लेखन से जुड़ गया और यही मेरे लेखन-चिंतन की प्रिय विधा बन गयी।
4- आपने कविता और कहानी में चुनाव कैसे किया?
विद्यालयी शिक्षा के दौरान किसी समाचार पत्र के रविवारीय संस्करण में किन्हीं साहित्यकार के एक लेख में पढ़ा कि पाठक सामान्यत: कहानी पढ़ना अधिक पसंद करते हैं। इस सलाह का समुचित प्रभाव पड़ा और मैं कविता के साथ-साथ कहानी-लेखन से भी जुड़ गया।
5- आपका रचना संसार बड़ा व्यापक है?कृपया अपनी कृतियों का उल्लेख करे।
बहुत व्यापक नहीं है। मात्र 5 लघुकथा संग्रह, 2 कहानी संग्रह, 4 लघुकथा आलोचना पुस्तकें, 10 बालसाहित्य पुस्तकें, कुछ अनुवाद, कुछ संपादन, बस।
6- आप अपनी रचनाओं में विषयवस्तु कैसे चुनते हैं?
विषयवस्तु चुनने का काम लेखक के अंत:संस्कार और सामाजिक-सामयिक सरोकार करते हैं। मैं उन्हें नहीं चुनता, वही मुझ पर दबाव बनाते हैं कि मैं उन्हें चुनूँ।
7- क्या आपके पात्र वास्तविक जीवन से जुड़े होते हैं या काल्पनिक होते हैं? आपका सबसे प्रिय पात्र कौन-सा है?
वास्तविक जीवन से मेरी कथाओं की ‘वस्तु’ जुड़ी होती है। पात्र उस वस्तु के प्रकटीकरण की दिशा में अपनी भूमिका स्वयं तय करते हैं। अनेक कथाओं में वस्तु-प्रेषण अमूर्त पात्रों के माध्यम से भी हुआ है, तो अनेक में मानवेतर पात्रों के माध्यम से। मानवेतर पात्रों में भी मूर्त-अमूर्त दोनों प्रकार के पात्र वस्तु के अनुरूप अपनी-अपनी भूमिका चुनते हैं। मानवीयता और राष्टीयता की भावना से जुड़े पात्र ही मुझे अधिक प्रिय हैं। धार्मिक तथा साम्प्रदायिक आधार और रूढ़ हो चुके अतार्किक रीति-रिवाज मेरे कथा-चिंतन के दायरे से बाहर ही रहते हैं या फिर उपहास का कारण बनते हैं।
8- आपकी रचना-प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले मूल तत्व क्या हैं?
रचना-प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले मूल-तत्वों का संबंध लेखकीय सरोकारों से ही अधिक होता है। मेरे सरोकार, जैसा कि मैंने पिछले सवाल के जवाब में कहा, मानवीय और राष्ट्रीय भावना से जुड़े हैं। व्यक्ति-विशेष का, सम्प्रदाय अथवा समुदाय-विशेष का, शासन का कोई कृत्य यदि मेरी मानवीय और राष्ट्रीय भावनाओं को आहत करेगा तो निश्चित ही मुझे उद्वेलित करेगा, मेरी रचना-प्रक्रिया को प्रभावित करेगा। ऐसे में सम्प्रदाय/समुदाय-विशेष के लोगों को, छद्म चरित्र के सुधारवादियों को मेरा लेखन इकतरफा लग सकता है। किसी लेखक की रचना-प्रक्रिया को जो बातें सकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाली हो सकती हैं, वही बातें दूसरे लेखक को नकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाली हो सकती हैं। इसमें मुख्य कारण सम्प्रदायवादी होना, न होना ही होता है।
9- सामाजिक परिवेश और उसमें होने वाले परिवर्तनों से आपकी रचनाओं पर क्या प्रभाव पड़ता है?
सामाजिक परिवेश और उसमें होने वाले ही नहीं, हो सकने वाले परिवर्तनों पर भी लेखक की दृष्टि बनी रहनी चाहिए। गत दिनों देश में हुई अनेक राजनीतिक उठा-पटक ने मेरी लघुकथाओं में भी जगह पाई, लेकिन मनुष्य के हक में।
10- आप अपनी कौन-सी रचना को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं? और क्यों?
अपनी किसी भी रचना को ‘सर्वश्रेष्ठ’ मानने का अधिकार लेखक को नहीं है, यह काम पाठक और आलोचक का है। बेशक, कुछ रचनाएँ विशेष रूप से प्रिय हो सकती हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि वे श्रेष्ठ भी हों या उनमें कोई एक सर्वश्रेष्ठ भी हो।
11.आजकल लेखकों द्वारा काफ़ी कुछ लिखा जा रहा है किन्तु पाठक उतना प्रभावित नहीं हो
पा रहा । आपकी दृष्टि में इसका कारण है?
भारतीय पाठक मुख्यत: ‘लोक’ से अपने चिंतन की खुराक लेता है। आजकल के लेखकों में भी जहाँ-जहाँ उसे ‘लोक’ दिखाई देता है, वहाँ-वहाँ वह पहुँचने का प्रयास करता है, वहाँ-वहाँ से अपनी रुचि की ‘वस्तु’ को ग्रहण करता है। यही कारण है कि पाठकों के बीच कथाकार के रूप में प्रेमचंद और रेणु आमजन के बीच जितने निकट हैं, अन्य बहुत कम लेखक उतने निकट जा पाए हैं।
12- डिजिटल युग में आपको साहित्य का क्या भविष्य प्रतीत होता है?
धरती पर केवल मनुष्य ऐसा प्राणी है जो रहन-सहन के अपने तरीकों में बदलाव के बारे में अपनी उत्पत्ति के समय से ही लगातार सोचता आया है। आदिम मनुष्य के पास लिखने के लिए गुफाओं की दीवारें थीं, खुले में पड़े बड़े-बड़े पत्थर थे। युग बदला तो उसने भोजपत्रों पर लिखना शुरू किया। भोजपत्रों से आगे बढ़कर उसने कागज का निर्माण किया। भोजपत्रों से चलकर साहित्य कागजों पर आ गया। इस युग में कागज से आगे बढ़कर साहित्य ही नहीं, अनेक कलाएँ भी डिजिटल रूप धारण करती जा रही हैं। यह किसी एक मनुष्य की या किसी एक मानव समूह की जिद का परिणाम नहीं है, बल्कि तकनीकी रूप से आगे बढ़ चुकी दुनिया का सच है। जो भी इस सच को झुठलाने की कोशिश करेगा, पिछड़ जाएगा। मेरी दृष्टि में, डिजिटल युग में, यही साहित्य का सच है तथा यही कलाओं और कलाकारों का भी सच है।
13- प्रवासी हिन्दी साहित्य की समृद्धि के लिए आपके क्या विचार है ?
प्रवासी हिन्दी साहित्यकारों के पास हिन्दी पाठकों को देने के लिए बहुत-कुछ ऐसा हो सकता है जिसे हम ‘अतिरिक्त’ ज्ञान की संज्ञा दे सकते हैं। उनके पास प्रवास के बहुत-से अनछुए अनुभव हो सकते हैं। वे जीवन-मूल्यों को विस्तार देने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। विभिन्न संस्कृतियों के सम्मिलन में न केवल सहायक हो सकते हैं बल्कि उन्हें नवीन दृष्टि से युक्त भी कर सकते हैं। अपने देश की संस्कृति से दुनिया को और दुनिया की संस्कृति से देश को परिचित कराने वाले सेतु का कार्य प्रवासी हिन्दी साहित्य अनेक स्तर पर करने में सक्षम सिद्ध हो सकता है।
14- लेखन कार्य के अलावा आपकी अन्य अभिरुचियाँ क्या हैं?
लेखक-कार्य के अलावा मुझे फोटोग्राफी और भ्रमण का शौक है।
15- उदीयमान लेखकों के लिए आप क्या संदेश देना चाहते हैं ।
जितना सम्भव हो, आधुनिक और प्राचीन साहित्य का अध्ययन करें, मूल्यों का निर्वाह करें। सभी धर्मों से ऊपर है, मानवीय आचरण। उसके निर्वाह में यदि अपना धर्म आड़े आता हो तो धर्म का और यदि सामने वाले का धर्म आड़े आता हो तो मित्रता का त्याग कर दें।
16- हिन्दी साहित्य के पाठकों की संख्या मेंवृद्धि के लिए आप क्या सुझाव देना चाहते हैं ?
हिन्दी साहित्य के पाठकों में वृद्धि के आवश्यक है—आधारभूत रुचि का विकास। गांधीजी ने गुजरात के अपने नगर में भी शिक्षा पायी थी और ब्रिटेन में भी। इस परिप्रेक्ष्य में 2 सितंबर 1921 के ‘हिन्दी नवजीवन’ में उन्होंने स्पष्ट लिखा—“राष्ट्रीय शिक्षा विषयक मेरे विचारों के संबंध में अब तक इतनी अजीब बातें कही गयी हैं कि यहाँ पर उनका खुलासेवार वर्णन कर देना अप्रासंगिक न होगा। मेरी राय है कि शिक्षा की वर्तमान पद्धति निम्न तीन महत्त्वपूर्ण बातों में सदोष है :
1- इसका आधार विदेशी संस्कृति पर है जिससे देशी संस्कृति का इसमें प्राय: नामोनिशान तक नहीं।
2- यह हृदय और हाथ की संस्कृति पर ध्यान नहीं देती, सिर्फ दिमाग की संस्कृति तक ही इसकी पहुँच है।
3- विदेशी माध्यम के द्वारा वास्तविक शिक्षा असंभव है।
स्पष्ट है कि ब्रिटिश पद्धति पर आधारित शिक्षा-पद्धति को वे भारत-उपयोगी लेशमात्र भी नहीं मानते थे। आज सन् 2021 में यह स्थिति सन् 1921 की तुलना में और भी अधिक बेकाबू और भयावह हो चुकी है। इससे त्राण पाये बिना हिन्दी साहित्य के पाठकों की संख्या में वृद्धि की बात सर्वथा असंभव प्रतीत होती है।
सभी प्रश्न : डॉ॰ संजीव कुमार, 98735 61826, मुख्य संपादक, अनुस्वार
उत्तर : डॉ॰ बलराम अग्रवाल, एफ-1703, आर जी रेजीडेंसी, सेक्टर 120, नोएडा-201301 जिला गौतमबुद्ध नगर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल : 8826499115