हिन्दी
अकादमी, दिल्ली की मासिक पत्रिका 'इन्द्रप्रस्थ भारती' की सहायक संपादक
निशा निशान्त जी ने यह लेख 'आजादी का हीरक महोत्सव' के अवसर पर विशेष रूप
से लिखवाया था। अब यह उक्त पत्रिका के अक्तूबर 2022 में छपकर 18-02-2023
को प्राप्त हुआ था। बहन निशा नितान्त का आभार। 'हिन्दी लघुकथा : आदिमकाल से अबतक' शीर्षक उक्त लेख की पहली कड़ी इस पटल पर 18 फरवरी, 2023 को पोस्ट की गयी थी। आज प्रस्तुत है, अपेक्षाकृत लम्बे उक्त लेख की दूसरी कड़ी :
सन् 1901 ई से 1950 ई तक
जनवरी 1900 ई. में हिन्दी साहित्य की ऐतिहासिक पत्रिका ‘सरस्वती’ का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ। 1903 ई. में महावीर प्रसाद द्विवेदी इसके सम्पादक हुए और 1920 ई. तक रहे। छोटे आकार में हिन्दी की पहली कहानी ‘सरस्वती’ के 1916 ई. अंक में पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की ‘झलमला’ छपी थी। सन् 1978 ई. में, तब तक के शोधानुरूप गाजियाबाद से जगदीश बत्रा के संपादन में प्रकाशित ‘सर्वोदय विश्ववाणी’ के एक अंक में मैंने इसे हिन्दी की पहली लघुकथा घोषित किया था। तदुपरांत सन् 1981 में ‘कथाबिंब’ के लघुकथा विशेषांक के अतिथि संपादक के रूप में प्रो॰ कृष्ण कमलेश ने भी ‘झलमला’ को पहली हिन्दी लघुकथा की मान्यता प्रदान की। लम्बे समय तक इसे ही हिन्दी की पहली लघुकथा के रूप में प्रस्तुत भी किया जाता रहा। इस एक रचना के अलावा ‘सरस्वती’ कोई अन्य लघु-आकारीय कथा हिन्दी जगत को नहीं दे पायी।
‘सरस्वती’ ही क्यों, पूर्वकालीन
कथाकार भी ‘लघुकथा’ लेखन की ओर से सर्वथा नीरस बने रहे। प्रेमचन्द, प्रसाद आदि पूर्वकालीन कथाकारों की कुछ छोटी कहानियों को लघुकथा मान अवश्य लिया जाता है लेकिन उनमें केवल सुदर्शन हैं जिनका लघुकथा संग्रह ‘झरोखे’ (1947-48 ई.) प्रकाश में आया। कथाकार राधाकृष्ण के लघुकथा संग्रह प्रकाश में आए लेकिन लम्बे समय बाद।
हिन्दी में लघु-आकारीय कथा रचना के लिए ‘लघु-कथा’ शब्द पहले-पहल ‘हंस’ के अक्टूबर 1938 में नित्यानंद की रचना ‘इन्द्रधनुष के नीचे’ के लिए उसके संपादक द्वारा प्रयुक्त मिलता है। ‘वीणा’ (1944) में रामनारायण उपाध्याय की लघुकथा ‘आटा और सीमेंट’ तथा ‘मजदूर और मकान’ प्रकाशित हुई। ‘वीणा’ के ही अगस्त, 1945 के अंक में श्याम सुन्दर व्यास की लघुकथा ‘ध्वनि-प्रतिध्वनि’ प्रकाशित हुई। कथाकार रावी के अनुसार—‘शीशम का खूँटा’ को मेरी पहली लघुकथा माना जा सकता है। यह कथा सन् 1947 के आसपास लिखी गई होगी।’ ‘वीणा’ (1950) में कुमार गन्धर्व की लघुकथा ‘पीछे-पीछे’ तथा भानुमति ‘कोमकली’ की लघुकथा ‘दादा’ प्रकाशित हुई।
सन् 1950 में रामवृक्ष बेनीपुरी का कथा-संग्रह ‘गेहूँ और गुलाब’ छपा जिसे उन्होंने शब्दचित्र की संज्ञा दी तथापि इसकी अनेक रचनाएँ लघुकथा के बहुत निकट ठहरती ह। सन् 1950 में ही जबलपुर से आनन्द मोहन अवस्थी का लघुकथा संग्रह ‘बन्धनों की रक्षा’ प्रकाशित हुआ जिसमें लगभग 28 लघुकथाएँ हैं।इस संग्रह की भूमिका रामवृक्ष बेनीपुरी ने लिखी है तथा सम्मतियों में श्री पदुमलाल पुन्नलाल बख्शी, पं. नरेन्द्र शर्मा, भवानी प्रसाद तिवारी तथा जगदीश चन्द्र जैन आदि के नाम हैं। इसप्रकार हम मान सकते हैं कि स्वाधीनता-प्राप्ति के तुरन्त बाद हिन्दी लघुकथा लेखन के साथ-साथ उसके प्रकाशन ने भी गति पकड़ ली थी। परन्तु इन सबसे पहले सन् 1901 में माधवराव सप्रे की रचना ‘एक टोकरीभर मिट्टी’ उनके ही पत्र ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित हो चुकी थी जिसे हिन्दी की पहली कहानी और पहली लघुकथा मानने का द्वंद्व फिलहाल बना हुआ है।
सन् 1951 ई से 1970 ई तक
स्वाधीनता-प्राप्ति के तुरन्त बाद ही कुछेक गम्भीर कथा-आलोचकों की कहानी संबंधी चिंताएँ सामने आने लगी थीं। कहानी को लेकर कही गयी उनकी अधिकतर बातें उनके मानस में घुमड़ रहे उन कारणों को प्रकट कर रही थीं जिनके कारण वे अपने समय की कहानी के छितराते जा रहे कलेवर से बेचैन थे। प्रेमचंद का यह कहना कि ‘गल्प का आधार अब घटना नहीं, भीतरी या बाहरी द्वन्द्वों की अभिव्यक्ति है। उसमें घटनाएँ आ भी सकती हैं और नहीं भी आ सकतीं।’ इसी क्रम में कथाकार इलाचन्द्र जोशी का यह वक्तव्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि—‘वर्तमान युग की छोटी कहानी एक प्रकार की गद्य कविता है, जो वास्तविक जीवन के आधार पर खड़ी होती है । जीवन का चक्र मानव परिस्थितियों के संघर्ष से उल्टा-सीधा चलता रहता है। इस सुवृहत् चक्र की किसी विशेष परिस्थिति की स्वाभाविक गति के प्रदर्शित करने में ही कहानी की विशेषता है।’ अश्क जी ने लिखा—कहानी की धारा को देखकर यह कहा जा सकता है कि आधुनिक छोटी कहानी एक ऐसी रचना है जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य या मानव जीवन अथवा समाज की किसी समस्या पर रखा गया हो; और जो बिना इधर-उधर भटके सीधी अपने ध्येय पर पहुँच जाय; और यदि उसमें कोई घटना वर्णित है तो उसका चित्रण इकहरा और रसपूर्ण हो ।’ ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ के दिसम्बर 2013 विशेषांक में सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी का एक साक्षात्कार प्रकाशित हुआ है। एक स्थान पर वह कहते हैं—“... कहानी के केन्द्र में कोई एक बात ही होनी चाहिए।... कथानक में बिखराव से कहानी की कला भी नष्ट होती है।” ‘हिन्दी चेतना’ के कथा-आलोचना विशेषांक, अक्टूबर-दिसम्बर 2014 में लगभग इसी बात को असगर वजाहत ने यों कहा है—“... इधर हिन्दी में कहानी किस्म के उपन्यास आने लगे हैं। लगता है, बेचारी कहानी को पीट-पीटकर उपन्यास बना दिया गया है।...” वजाहत साहब ने यह बात उपन्यास के सन्दर्भ में कही है; जबकि एकदम यही बात सातवें-आठवें दशक में छप रही कहानी पर भी लगभग ज्यों की त्यों लागू होती थी। साफ नजर आता था कि केवल लम्बाई बढ़ाने की नीयत से छोटी-सी एक बात को कला के नाम पर जबरन खींच-तानकर कहानी बनाने का करिश्मा किया गया है। कथा-प्रस्तुति के साथ इस जबरन खींच-तान के विरोध का नाम ही ‘समकालीन लघुकथा’ है।
प्रेमचंद के ही काल में कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, जगदीशचंद्र मिश्र, सुदर्शन, विष्णु प्रभाकर तत्पश्चात् हरिशंकर परसाई, रावी, अयोध्या प्रसाद गोयलीय आदि अपनी-अपनी लघुकथाओं के साथ साहित्याकाश पर चमक बिखेरने लगे थे।
लघुकथा संग्रह
सन् 1951 में अयोध्या प्रसाद गोयलीय का संग्रह ‘गहरे पानी पैठ’ भारतीय ज्ञानपीठ से छपकर आया। इसमें 117 कहानियाँ, किंवदंतियाँ, चुटकुले, लघुकथाएँ और संस्मरण हैं।’
भारतीय ज्ञानपीठ से ही सन् 1952 में कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की लघुकथाओं का संग्रह ‘आकाश के तारे धरती के फूल’ प्रकाशित हुआ। ‘इन्हें पढ़कर अज्ञेय नेकहा था कि ‘यह हिन्दी की छोटी कहानी है और कहानी के इतिहास में इसे श्री प्रभाकर की नयी देन माना जायेगा।’
सन् 1953 में रामनारायण उपाध्याय का कथा-संग्रह ‘अनजाने-जाने-पहचाने’ प्रकाशित हुआ। सन् 1954 के आसपास रांची के पं॰ भवभूति मिश्र ने अपनी ‘बची-खुची सम्पत्ति’ का प्रकाशन किया था। भवभूति जी के शब्दों में—एक लघुकथा ‘एक खींची हुई साँस’ होती है।
सन् 1956 में भृंग तुपकरी की कथाओं का संग्रह ‘पंखुड़ियाँ’ प्रकाशित हुआ, जिसकी भूमिका उदयशंकर भट्ट ने लिखी। इसमें 28 लघुकथाएँ व एक लेख हैं। सन् 1956 में ही अयोध्याप्रसाद गोयलीय का कथा-संग्रह ‘कुछ मोती कुछ सीप’ प्रकाशित हुआ, इसमें बड़ी-छोटी दोनों प्रकार की रचनाएँ हैं। सन् 1956 में ही रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की लघुकथाओं का संग्रह ‘उजली आग’ आया। इसकी भूमिका स्वरूप दिनकर जी ने एक लघुकथा को ही प्रस्तुत किया है जो एक मकड़ी और एक मधुमक्खी के परस्पर संवाद के रूप में है।
सन् 1957 में शरद कुमार मिश्र ‘शरद’ का लघुकथा-संग्रह ‘धूप और धुआँ’ प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी 37 लघुकथाएँ संकलित हैं। सन् 1957 में ही पं॰ जगदीश चन्द्र मिश्र की 52 बोधपरक लघुकथाओं का संग्रह ‘पंचतत्व’ भी प्रकाशित हुआ।
सन् 1958 में रावी की लघुकथाओं का प्रथम संग्रह ‘मेरे कथा-गुरु का कहना है’ भाग-1 प्रकाशित हुआ। 1958 में ही जगदीश चन्द्र मिश्र का कथा-संग्रह ‘खाली-भरे हाथ’ प्रकाशित हुआ। इसमें उनकी 76 लघुकथाएँ हैं। पुस्तक के मुखपृष्ठ पर ‘मौलिक बोधकथाओं की सर्वप्रथम कृति’ प्रकाशित है जबकि पुस्तक के हर पृष्ठ पर फोलियो ‘बोध कथाएँ’ ही प्रकाशित है।
सन् 1959 के आसपास से ही ठाकुरदत्त शर्मा ‘पथिक’ की बोधकथाएँ भी प्रकाशित हुईं। सन् 1960 में भारतीय ज्ञानपीठ से लक्ष्मीचंद्र जैन का लघुकथा संग्रह ‘कागज की किश्तियाँ’ प्रकाशित हुआ।
सन् 1961 में अयोध्या प्रसाद गोयलीय की पुस्तक ‘लो कहानी सुनो’ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी से प्रकाशित हुई। इसमें कई लघुकथाएँ बहुत तीखी हैं। यहीं से सन् 1961 में ही रावी के लघुकथा-संग्रह ‘मेरे कथा गुरु का कहना है’ भाग-2 का प्रकाशन हुआ। इसमें 69 लघुकथाएँ हैं। इसी सन् में डॉ. ब्रजभूषण सिंह ‘आदर्श’ का कथा-संग्रह ‘आँखें, आँसू और कब्र’ प्रकाशित हुआ। इसमें उनकी 30 लघुकथाएँ हैं, जो मानवीय विसंगतियों को उजागर करती हैं।
सन् 1962 में ही अज्ञेय के सम्पादन में शान्ति मेहरोत्रा का कथा-संग्रह ‘खुला आकाश मेरे पंख’ प्रकाशित हुआ। इसमें ‘गिरवी रखी हुई आत्मा’ शीर्षक तले 5 लघुकथाएँ भी संकलित हैं।
सन् 1966 में आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र का संग्रह ‘मिट्टी के आदमी’ प्रकाशित हुआ, जिसमें 32 लघुकथाएँ हैं।
‘सारिका’ के जून 1967 अंक में काशीनाथ सिंह की तीन लघुकथाएँ ‘अकाल’, ‘पानी’, ‘प्रदर्शनी’ प्रकाशित हुईं। ‘सारिका’ के ही सितम्बर 1967 के अंक में रावी की लघुकथा ‘कण्टक काट’ ‘व्यंग्य-बोध’ शीर्ष के अन्तर्गत प्रकाशित हुई। ‘सारिका’ के जनवरी 1968 अंक में ‘दो लघुकथाएँ’ शीर्षक के अन्तर्गत कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की ‘चौधरी’ एवं ‘काम का आदमी’ प्रकाशित हुईं। दोनों ही तीखी एवं सशक्त लघुकथाएँ हैं। सन् 1969 की ‘सारिका’ के लगभग सभी अंकों में किसी-न-किसी रूप में लघुकथाएँ छपती रहीं। सन् 1970 में ‘सारिका’ के लगभग सभी अंकों में प्रकाशित लघुकथाएँ अधिकतर विदेशी एवं विभिन्न प्रान्तों की भाषाओं से अनुवादित हैं। ‘सारिका’ के आठवें दशक के अंकों में प्रभु जोशी, शंकर दयाल सिंह, जाकिर हुसैन, लक्ष्मीशंकर वाजपेयी आदि बहुत-से ऐसे लेखकों की लघुकथाएँ भी मिल जाती हैं जिनके लेखन की धारा बाद में किसी अन्य विधा की ओर घूम गयी।
उसी काल के कथाकार राधाकृष्ण और आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री ने भी अनेक
लघुकथाएँ लिखीं। राधाकृष्ण की लघुकथाओं के दो संकलन ‘गेंद और गोल’ (1995) तथा ‘गित्तलें’ बाद में प्रकाशित हुए थे। जानकीवल्लभ शास्त्री की लघुकथाओं के पुस्तक रूप में आने की सूचना प्राप्त नहीं हो सकी।
1970 पूर्व पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथा
3 टिप्पणियां:
बहुत परिश्रम से लिखी गई अत्यन्त संग्रहनीय जानकारी l
आपका बहुत बहुत आभार
लघुकथा के संदर्भ में बहुत ही ज्ञानवर्धक आलेख!
आभार आदरणीय!
बेहद महत्वपूर्ण जानकारी देता हुआ आलेख
एक टिप्पणी भेजें