‘कवि-हृदय कथाकार आचार्य जगदीश चन्द्र मिश्र’ शीर्षक से डॉ॰ ॠचा शर्मा द्वारा सम्पादित ‘आचार्य जगदीश चंद्र मिश्र रचनावली, भाग-1 (लघुकथाएँ-बोधकथाएँ / प्रथम संस्करण 2024) में भूमिका स्वरूप संकलित आलेख की दूसरी किस्त…
दिनांक 23-02-2024 को प्रकाशित पहली किस्त से आगे……
अतीत के अध्ययन से हम जानते हैं कि छायावाद के प्रभाव में आकर कवि तो कवि, कथाकार भी ‘स्व’ की अनिर्वचनीय वेदना और अनुभूति के रंग में ‘विश्व’ को डुबो रहे थे। उनके लिए आत्मवेदना ही सबसे ऊपर थी और वही ऐकान्तिक वेदना थी। ‘स्व’ की वेदना को ही तब के कवि-कथाकार विश्वव्यापी वेदना मानते थे। विश्व की वेदना को न तो वे पहचान ही सके और न ही अपनी वेदना बना सके थे। काल का प्रभाव ही कुछ ऐसा था कि अधिकतर कवि-कथाकारों को सिवा अपनी धड़कन के और कोई अन्य ध्वनि न तो सुनने का अवकाश था, न देखने का। उदाहरण के लिए प्रस्तुत है आचार्य मिश्र की एक बोध-कथा ‘संयोग-वियोग’ जिसे गद्य-काव्य कहना अधिक उपयुक्त होगा—
एक दिन काले-काले मंघों ने इकट्ठा होकर तड़ित से कहा—“देवि! वैसे तो तुम दिव्य हो; आलोकमयी हो: तुम्हें पाकर हम धन्य हुए हैं; परन्तु तुम्हारी वाणी अत्यन्त भीम है। जब तुम गर्जन करती हो तो भय से हमारे आलिंगन छूट जाते हैं। उस समय तुम भी हमारे वक्ष से बाहिर निकलकर खड़ी हो जाती हो। यदि तुम्हारी वाणी भी मधुर होती तो हम उम्र भर भी तुम्हारा यह वियोग न देखते।”
तड़ित ने उत्तर दिया—“बन्धुओ, फिर संसार को यह ज्ञान कैसे होता—कालिमा में भी कुछ दिव्य है; आलोक में भी कहीं तिमिर छिपा है; संयोग में भी वियोग रहता है और वियोग में कहीं न कहीं संयोग छिपा रहता है।”
कथाकार की यह वह अवस्था है, जब समस्त प्रकृति उसको अपने ही हृदय में स्पन्दित दिखाई देती है। अपनी दिव्य दृष्टि से वह सूर्य-चन्द्र-तारों का नाच देखता है। उषा और संध्या की आभा और अरुणिमा देखता है। मेघों की आँख-मिचौली, कमल और कुसुम, हरसिंगार और मौलश्री, जवाकुसुम और पाटन के फूलों तथा जुही की कलियों की लास-लीला देखता है। उसने छाया और ज्योत्स्ना, इन्द्रधनुष और विद्युत् की रंगरेलियाँ देखीं, रात को तारों की जाली और फूलों के गजरे पहनाये; सरिताओं, तारिकाओं जुगनुओं, किरणों, लहरियों में, मधुबयार के झोंकों में और तितलियों, कोकिलों, भौरों, पपीहों, झींगुरों, मेघों के स्पन्दन, गुंजन, कूजन, क्रन्दन, नर्तन, निस्वन और गर्जन में प्रेम और प्रणय के हजारों-हजार सन्देश सुने। अपनी सीमित पुतलियों पर त्रिलोकी के चित्र अंकित किये, पर इस पृथ्वी पर हो रहे एक विराट जीवन-स्पन्दन, विश्वव्यापी धड़कन, विराट हलचल और कोलाहल को न तो उनकी आँख देख पायी और न उनके कान ही सुन पाये। रहस्यवादी कवि/कथाकार स्वप्नजीवी मानव अथवा आकाशचारी पक्षी की तरह क्षितिज के पार ‘अनन्त’ की झाँकी देख आते हैं, जहाँ सागर-लहरी और अम्बर प्रेमालाप करते हैं, जहाँ वसुधा विराट् पुरुष का चरण-चिह्न सी दिखाई देती है, जहाँ से जीवन काल के कपोलों पर ढुलका अश्रुकण-सा रह जाता है, जहाँ पहुँचने पर मनुष्य का प्राण बाँसुरी की एक फूंक और वीणा की एक झंकार की भाँति, उठ उठकर विलीन होता दिखाई देता है। भारतीय दार्शनिक की दृष्टि इस सापेक्ष जगत् को असत्य और मृषा मानती है तथा इससे परे किसी निरपेक्ष सत्य को देखती है जो मन, वाणी और बुद्धि से अगम्य है। वह दृश्य-जगत् और ऐहिक-जीवन को ‘माया’, ‘छाया’ मानकर उसके प्रति विराग का अंकुर उपजाता है, जो अनेक दिशाओं में हुए पलायनों में पल्लवित होता है। जहाँ यह दार्शनिक दृष्टि से अनुपम है, वहीं यह भी सत्य है कि शताब्दियों की भारतीय दासता का बीज भी इसी मानसिक अवस्था में छिपा हुआ है। जीवन सघर्ष का हमारे लिए कोई मूल्य नहीं रह गया था। कवि/कथाकार ने जीवन की नश्वरता ही देखी, अमृतत्व नहीं।
रहस्यवादी कवि/कथाकार ने महा-शून्य में घूमते ज्योतिष्क पिण्डों को पुतलियों में बाँधा, शून्य को हृदय में समेटा, प्रलय को पालना बनाया, मृत्यु-जीवन को जागृति का तट बनाया। देखिए, ‘अथः इति’ शीर्षक यह बोध-कथा—
एक दिन अथः ने इति से कहा—“यदि मेरे जीवन में तून आती तो में अन्तहीन होकर संसार में अमर हो जाता!”
इति ने स्नेह से हँसकर उत्तर दिया—“सखे! यदि मैं तेरे जीवन में कभी न आती, तो तू नारी के पावन चरण स्पर्श के अनन्त सुख से वंचित न रह जाता; जिससे तेरी सारी कृतियाँ ही निष्फल होकर रह जातीं।”
अपने इस विराट् रूप के भावन में वह धरती पर कीट-मकोड़ों सरीखे रेंगने वाले मनुष्यों को भूल गया। क्यों? इसलिए कि उसने कुछ विशेष विषयों के स्पर्श से स्वयं को विलग नहीं किया। देखिए, बोध-कथा ‘संसार’—
भक्त ने एक दिन अत्यन्त तल्लीनता से भगवान् की आराधना कर भारी दुःख से कहा—“प्रभो! यह संसार तो बड़ा पापमय है। चारों ओर राग-द्वेष, घृणा-अहंकार, छल-प्रपंच ही इसमें दिखाई देता है।”
भक्तवत्सल भगवान् ने उत्तर दिया—“यह तेरी दृष्टि का दोष है भक्त! अपनी दृष्टि से कह, वह संसार के राग-द्वेष, घृणा-अहंकार, छल-प्रपंच का स्पर्श करना ही छोड़ दे। स्पर्श ही तो किसी वस्तु से मोह या घृणा उत्पन्न किया करता है!”
‘सियाराम मय सब जग जानी’ के विश्वासी बाबा तुलसीदास संन्यासी होकर भी भव की पीड़ा से पीड़ित थे—‘भव बंधन काटिहिं नर ज्ञानी’। परन्तु अपने गुप्त अन्तर-लोक में अपने प्रियतम से प्रेमालाप करनेवाले रहस्यवादियों ने पृथ्वी के गर्भ में सिसक रहे नंगों-भूखों का रुदन-क्रंदन नहीं सुना। समाधि तोड़कर जग-जीवन के सृजन-सिंचन-संहार का भावना उसने नहीं किया था। अभी तक धर्म-दर्शन में डूबी लघुकथा ने अन्तर्जीवन की भावना का अनुसंधान तो किया था, किन्तु बहिर्जीवन की समस्याओं का विश्लेषण नहीं किया था। आत्मा के रहस्य खोजने में शरीर की भूख-प्यास, व्यथा-वेदना की आह-कराह विश्व-वातावरण में भरती रही, परन्तु दर्शन-कुंठित हमारा कथाकार हिमालय की भाँति जड़ीभूत, निश्चल, निस्पन्द, ध्यान-मग्न ही रहा। परन्तु अन्त में उसे अपनी आँख खोलनी पड़ी और उसे आसपास, पैरों के तले देखना पड़ा। ‘धरती के प्राणी आकाश की उड़ान’ शीर्षक बोध-कथा में आचार्य मिश्र ने वायुयान में उड़ने वाले मनुष्यों के बारे में एक बालक के मुख से अपनी माता से यह प्रश्न कराया—“तो क्या अम्मा! वे यह नहीं जानते, धरती के प्राणी धरती पर रहकर ही फल-फूल सकते हैं?” तात्पर्य यह कि आचार्य मिश्र धरती से जुड़े कथा-यथार्थ को जानते हैं।
स्वप्नजीवी कविता/कथा को भी युग-जीवन की ओर से आह्वान आता था। युग-धर्म का आग्रह था कि हमारा कवि/कथाकार अपने चारों ओर के समाज-जीवन, राष्ट्र-जीवन और विश्व-जीवन को देखता, उसके हास-अश्रु, आशा-आकांक्षा, व्यथा-वेदना-प्यास को कविता/कथा में सजीवता देता और ‘काव्य अथवा कथा जीवन का मर्म है’ इसको चरितार्थ करता। राष्ट्र-जीवन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दासता से हमारे जीवन में एक जघन्य जड़ता आ गई थी। अंगों पर मूर्च्छा का अभिशाप था, मरण के धक्के से जीवन हतप्रभ और म्लान था, आत्मा विमूढ़ और स्तंभित हो गई थी, चेतना निष्प्राण; कानों में रोदन-क्रंदन गूंज रहे थे, पीड़ितों का चीत्कार हमारे रक्त की रही-सही चेतना को कुंठित कर रहा था, सर्वनाश की गाज लकवे की भाँति शरीर पर गिर गई थी। कण-कण में संघर्षण की शक्तियाँ सजग हो रही थीं, विप्लव भूचाल बनता हुआ आगमन की सूचना दे रहा था और हमारी कविता/कथा जीवन से विच्छिन्न थी ! हमारा कवि/कथाकार तंद्रिल-स्वप्निल मादकता की मधुछाया में सो रहा था!!
जीवन की पुकार निरन्तर कवि/कथाकार के कानों को नहीं, प्राणों को छू रही थी। ‘वस्तु-जीवन की ओर’ उन्मुख होकर वह अपने लीला-विलास से कुछ क्षण चुराकर मुहूर्त भर दृष्टि डाल लेता था और ‘भिक्षुक’ और ‘विधवा’ की मूतियाँ अपने काव्य-मंदिर में प्रतिष्ठित कर देता था। जीवन-जागृति, बल-बलिदान के पथ पर जानेवाली राष्ट्रीय स्वतन्त्रता की साधना आशा-निराशा, जय-पराजय के उत्थान-पतन के साथ चल ही रही थी।
अर्थनीति में शोषण-पीड़न और राजनीति में दमन-दलन किसी भी कवि/कथाकार का ध्यान खींचने के लिए पर्याप्त थे। यह नहीं कि हिन्दी के कवि/कथाकार, जीवन के हाहाकार के प्रति उदासीन थे; अन्तर इतना ही रहा कि उसके प्रति एक जीवित सम्वेदना और उसे मिटाने का उत्कट आवेग उनमें अभी मुखरित नहीं हुआ था। परन्तु अब कवि/कथाकार की अन्तर्मुखता बाहर फैले हुए जन-जीवन में डूबने के लिए छटपटाने लगी। स्वप्नलोक को छोड़कर वह वस्तु-जगत में ही अब साहित्य का सत्य साकार देखने लगा ।
भारत की समस्या वस्तुतः विश्व-समस्या का ही एक अभिन्न अंग है। रुग्ण भारतीय समाज की चिकित्सा यदि भारत-राष्ट्र की स्वतन्त्रता में निहित है। वो भारत राष्ट्र की स्वतन्त्रता किसी नवीन विश्व-रचना में। नई संस्कृति का अभ्युदय हुए बिना विश्वकल्याण स्वप्न था। अतः आज की समस्या निरी सामाजिक और राजनीतिक न होकर सांस्कृतिक भी है।
शेष आगामी अंक में………
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