गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

कलाजयी बलराम अग्रवाल की कालजयी लघुकथाएं-2/डॉ. ब्रजकिशोर पाठक


दोस्तो, 26 नवम्वर 2011 के अंक में आपने अलाव फूँकते हुए में संकलित मेरी 25 लघुकथाओं पर डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के लेख की पहली किश्त पढ़ी। इस अंक में प्रस्तुत है उक्त लेख की दूसरी किश्तबलराम अग्रवाल

(दूसरी किश्त)

बलराम अग्रवाल ने स्वातंत्र्योत्तर शहर, महानगर और गाँवों की बदल रही दोगली मानसिकता और संस्कृति को अपनी लघुकथाओं का आधार बनाया है। शहरों-महानगरों में गाँवों से भागे लोगों की स्वार्थपरक जड़ता भी इनकी लघुकथाओं का केन्द्र बिन्दु है। दूर-दराज स्थित गाँवों में पुरानी और नई पीढ़ी का मानसिक टकराव, यथास्थितिवादी जीवन- मूल्यों की आँच में जलती हुई उनकी जिन्दगी इनकी लघुकथाओं में घटना और स्थिति के मेल से कथाभास की संरचना करती है। कहीं तो शहर से लेकर गाँवों तक फैली हुई नई पीढ़ी की जागरूकता मिलती है और कहीं बेहद ग्रामीण संस्कार से जुड़े अपनी दुःस्थिति पर किंकर्तव्यविहीन लोग करुणा में भीगते मिलते हैं। इसी कारण इनकी लघुकथाओं में कहानी की सतर्कता मिलती है तो नगर, ग्राम और आंचलित कथाओं का समन्वित संदर्भन। इस प्रसंग में उनकी एक कलाजयी लघुकथा गुलमोहर की प्रतीकात्मक व्यंग्यात्मक प्रस्तुति द्रष्टव्य है। आजादी के पूर्व देशप्रेमियों का दिया गया बलिदान और आजादी के प्रति आज के आदमी का मोहभंग प्रस्तुत लघुकथा का मूलाधार है। अग्रवाल जी ने इस कथ्य-सत्य को आधार बनाकर यह सुघर लघुकथा लिखी है। इस लघुकथा की प्रस्तुति उन लोकगीतों की भावभूमि पर आधारित है, जिनमें कहा गया है कि पति ने जिस पौधे को लाकर विदेशगमन किया, वह हरा-भरा होकर फूल-फल देने लगा है। पर, उसके लगाने वाले पति अब तक नहीं लौटे। वह लोकगीत प्रतीकात्मक ढंग से पत्नी की कामपीड़ाओं को मुखरित करता है। बलराम अग्रवाल ने कुछ इसी पद्घति पर गुलमोहर की रचना की है। गुलमोहर के पौधे के साथ आजादी के सपनों के बिखर जाने की पीड़ा की बड़ी ही सफल कलात्मक प्रतीकात्मकता की योजना इस लघुकथा में हुई है। बात यह है कि जतन बाबू अपने मकान के लॉन में सूरज की ओर पीठ कर बैठे-बैठे अपने आप में सोचते रहते हैं। यहाँ जतन बाबू आजादी के सपनों को जतन से संजोकर रखने वाले यथा नाम तथा गुण पुरुष हैं। सूरज की ओर पीठ कर उनका बैठना वर्तमान आजादी के प्रति उनकी दृष्टिपरकता है। वे देखते हैं कि गुलमोहर दिन-ब-दिन झरता जाता है। आजादी का प्रतीक गुलमोहर का झरते जाना आजादी के सपनों का मिटते जाना प्रतिपादित करता है। गुलमोहर के पेड से जतन बाबू की संवेदना इतने गहरे रूप से जुड़ी हुई है कि धूप के तेज होने पर भी वे वहाँ से नहीं हटते। लेखक अपने मकान मालिक लालाजी से गुलमोहर के प्रति जतन बाबू की इस आत्मीयता का रहस्य जानना चाहता है। लालाजी बताते हैं कि गुलामी के दिनों में जतन बाबू ने कई अंग्रेज अफसरों को बम से उड़ाया था। इनके एक बागी दोस्त ने इस गुलमोहर के पौधे को यह कहकर रोपा था कि इस पर आजाद हिन्दुस्तान की खुशहालियाँ फूलेंगी। लेकिन उसी रात वह साथियों के साथ पुलिस से घिर गया और शहीद हो गया! जतन बाबू ने तभी से इस पौधे को सींच-सींचकर वृक्ष बनाया है। खाद-पानी मिलने से यह हरा रहता है, लेकिन देश को आजाद हुए इतने वर्ष बीत गये, इस पर फूल एक भी नहीं खिला। इस लघुकथा द्वारा बलराम ने व्यंग्य किया है कि जिस आजादी की प्राप्ति के लिए क्रांतिकारियों ने अपने को शहीद बनाया, इसे प्राप्त करने के बाद आजादी के दीवानों के सपने बिखर गये और एक भी उनकी मनोकामना सिद्घ नहीं हुई।
बलराम अग्रवाल ने कलाजयी ही नहीं कालजयी लघुकथाएं भी लिखीं हैं। उनकी लघुकथा तीसरा पासा इसी प्रकार की है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में, पूंजीपतियों का वर्चस्व राजनीति में कैसे बनता है, चुनावी राजनीति व्यावसायिक कैसे होती जा रही है, और आम आदमी चुनाव से कैसे ठगा जाता हैइस लघुकथा के मूल बिन्दु हैं। लेखक ने इस लघुकथा में इन्हीं बिन्दुओं के, प्रदेश पार्टी अध्यक्ष कुबेर पाण्डे और जिलाध्यक्ष शर्माजी के तर्कों-वितर्कों के माध्यम से, बड़े तीखे व्यंग्य के शर-संधान किये हैं। व्यंजना-शक्ति से सम्पन्न यह लघुकथा अंततः प्रतीकात्मक संदर्भन देकर प्रस्तुति कला की अद्‌भुत दक्षता प्रमाणित करती है। बात यह है किचुनाव होने वाला है और प्रदेश पार्टी अध्यक्ष और जिलाध्यक्ष उम्मीदवारों के चयन पर शतरंज के पासे एक-दूसरे पर फेंकते हैं। जिलाध्यक्ष अपने इलाके के लिए तपनेश बाल्मीकि को सही उम्मीदवार ही नहीं मानते हैं, वह शरणबाबू को चाहते हैं। तपनेश का निम्न, पिछड़ी और सभी जातियों पर प्रभाव है। प्रदेशाध्यक्ष की मान्यता है कि वह निर्धन तो है, पर पार्टी से मिलने वाले पैसे से वह चुनावी जीत अवश्य हासिल करेगा। लेकिन शर्माजी चाहते हैं कि उम्मीदवार अपने पैसे से चुनाव लड़े और पार्टी से मिलने वाला धन आपस में बाँट लिया जाय। पार्टी के कार्यकर्त्ता भी उम्मीदवार के पैसे हड़पें। पाण्डेजी के आगमन पर कमेटी हॉल में कार्यकर्त्ताओं की बैठक बुलाई जाती है। अग्रवाल जी कार्यकर्त्ताओं के रहन-सहन और व्यवहार पर चित्रात्मक व्यंग्य के गोले दागते हुए लिखते हैं—“एकदम सफेद कलफदार कड़क कुर्ता-पाजामा और टोपी पहनकर शहर के नामी-गिरामी लौंडे-लफाड़ों को प्रमुख कार्यकर्त्ता बनाकर अपेक्षाकृत अनुशासित ढंग से यहाँ-वहाँ बैठा दिया गया है। इस बैठक में कुबेर पाण्डे और शर्माजी एकदूसरे पर उम्मीदवारचयन के प्रश्न पर पासे-पर-पासे फेंकते हैं। उनके आपसी तर्क-वितर्क हास्य के साथ व्यंग्य की फुलझरियाँ छोड़ते हैं। शर्माजी का तर्क हैतपनेश के नाम पर यहाँ के कार्यकर्ताओं में रोष है। उसकी उम्मीदवारी से पार्टी की साख और एकता खतरे में पड जाएगी।... प्रभाव उम्मीदवार का नहीं, कार्यकर्ताओं का होता है। पार्टी चुनाव लड़ने के लिए धन देती है। ...तपनेश और शरणबाबू में एक बुनियादी अन्तर यह है कि तपनेश मजदूर नेता होने के कारण लोकप्रिय है, जबकि शरणबाबू धनी होने के नाते जाने जाते हैं।...तपनेश का स्वभाव विद्रोही है। वह अधिकारों की लड़ाई छेडकर सबों के लिए ही नहीं, पार्टी के लिए भी खतरा बन सकता है। शरणबाबू पूंजीपति है। वे अधिकार पाने की लड़ाई सपने में भी नहीं लड़ सकते। फिर सबसे बड़ी बात है कि चुनाव लड़ने के लिए पार्टी से मिलने वाला धन आपके पास रहेगा। शर्मा जी ने तपनेश और शरणबाबू का जो यहाँ तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है, उसमें हास्य के साथ व्यंजना के कई स्तर ध्वनित होते हैं। किसी पार्टी के अधिकारी चुनावकाल में धन बटोरने की मुख्य प्रवृत्ति से घिरकर सही को गलत और गलत को सही सिद्घ करते हैं, यही यहाँ दिखलाया गया है। चुनाव में उम्मीदवार की हार और जीत से इन अधिकारियों का लगाव नहीं होता। चुनाव के नाम पर धन संचय और खाने-पकाने की व्यावसायिकता मुख्य होती है। बलराम अग्रवाल लिखते हैं किशर्मा जी के तर्कों से लगा कि उन्होंने मछली फँसा ली है। वे व्यंग्य को और तीखा करते हुए लिखते हैं कि—“कमेटी हॉल की दीवारों पर लिखे दलितों और शोषितों के उत्थान सम्बन्धी गाँधी, नेहरू, अम्बेडकर के सद्‌वाक्यों की ओर पीठ किए बैठे, सुलह से प्रसन्न कार्यकर्त्ता जलपान में मशगूल हो गये। इस लघुकथा की गहरी मार तब देखने को मिलती है जब लेखक अंत में टिप्पणी देता है—“शोषण से त्रस्त दिन-रात चूँ-चाँ चिल्लाता हॉल की छत के बीचों-बीच लटका पंखा बिना किसी विद्रोही स्वर के दनादन घूमता रहा। यहाँ छत पूरे देश का, पंखा शोषित-पीड़ित देश के आम आदमी का प्रतीक है। ऐसी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के साथ गहरे व्यंग्य-रंग से सना हुआ वाक्य कम ही लघुकथाओं में देखने को मिलता है। इस लघुकथा में जो तराश है, उत्सुकता की क्षमता है, व्यंग्य के विभिन्न स्तरों के उद्‌घाटन की जो दक्षता है, वह अन्यत्र नहीं दीखती। इस लघुकथा के कॉमा, फुलस्टॉप बोलते हैं और आज के राजनीतिक प्रजातंत्र के माहौल की विद्रूपता को लेखक यथार्थ के स्तर पर बखूबी उतारते हैं। इस लघुकथा में व्यंग्य के वो डंडे चलते हैं कि उसकी मार से अलग-बगल का आदमी भी तिलमिला उठता है। ऐसी सशक्त प्रस्तुति के लिए यह लघुकथा बलराम अग्रवाल को अनन्यता प्रदान करती है।
अंतिम संस्कार बलराम अग्रवाल जी की एक नगर-कथा है। यह उनकी यथार्थवादी संवेदनहीन मानवीय विवश चेतना की परिणति है। शहर में लगे कर्फ्यू के दौरान पिता के अंतिम संस्कार की लेकर पुत्र की विवशता से उत्पन्न संवेदनशून्यता की परिणति इस लघुकथा में जो चित्रित है, वह अत्यन्त मर्मघाती है। इतना होते हुए वातावरण की कठोर जड़ता के प्रतिपादन में यहाँ हास्य के साथ व्यंग्य के गोले दागे गये हैं। कितनी बड़ी लाचारी है कि पुत्र का हाथ खाली है और चिकित्सा के अभाव में उसके पिता तड़प-तड़प कर दम तोड देते हैं। इधर शहर में कर्फ्यू लगा हुआ है और पुलिस की गश्त जारी है। सब लोग अपने-अपने घरों में कैद है। स्थिति यह है कि लोग अखबार पर पाखाना करके पुटली बनाकर फेंक दे रहे हैं। बड़ी हिम्मत करके पिता का पुत्र खिड़की खोलकर देखना चाहता है कि वह घर में पड़े मृत पिता का अंतिम संस्कार कर सकता है कि नहीं? पुत्र और उसकी पत्नी ठीक से रोकर अपनी पीड़ा दृष्टिगत नहीं कर सकतेऐसा आतंक है। पुत्र अंत में निर्णय लेता है कि आत्मरक्षा के लिए उसने जो औजार रखे हैं, उसी को पिजाकर उससे अपने पिता का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक देगा कि दंगे के दौरान उसकी हत्या की गई है। वह खंजर को अपने सिरहाने रखकर आँसुओं से भरी आँखें लिये रात के गहराने की प्रतीक्षा में खाट पर पड जाता है। लघुकथा एक मर्मभरी विवशता की करुणा बहाकर यहीं पर समाप्त तो होती है; पर अपनी सम्पूर्ण प्रस्तुति के साथ कर्फ्यू के नाम पर जो आर्थिक अभाव से मानवीय जड़ता का जो संकेत है, वह लेखकीय संवेदना का उदाहरण भी बनाया हे।
इसी प्रकार नया नारा एक ऐसी नगर-कथा है, जिसमें ग्रामीण मजदूरों की हड़ताल के माध्यम से व्यंग्य किया गया है कि आज के पूँजीवादी औद्योगिक युग में जैसे राष्ट्रीयता, भावना से न जुड़कर झण्डों और वेशभूषा तक सीमित हो गयी है, वैसे ही मजदूरों के अधिकार और उनकी माँगें इंकलाबी नारों ओर उनके झंडों तक सीमित हो गये हैं। इस लघुकथा में पूरक नारा झंडाबाद इसी तथ्य की ओर संकेत देता है। जंगी जानता है कि सही नारा इंकलाब जिंदाबाद होता है। पर वह बोलता हैइन-कि-लाश... झंडाबाद! जंगी अपनी नौकरी के आरंभिक दिनों में सामान्य मजदूरों की तरह हड़ताल में जिंदाबादी नारे लगाता रहा। वह जानता है कि इंकलाब जिंदाबाद का नारा माँगों के पूरा हो जाने पर लगाया जाता है; लेकिन माँगों के पूरा होने के पहले के नारे का जनक होकर वह मजदूर-नेता बन गया है। उसका यह नारा—‘इन-कि-लाश..झंडाबाद! है। लेखक ने गत्यात्मक चित्र उकेरते हुए लिखा है—“जंगी जब नारे बोलता है तो उसके गले की सारी नसें मुट्‌ठी भींचकर हवा में तैरते सैकड़ों हाथों की तरह खड़ी हो जाती हैं। इस चित्र से जंगी का विद्रोही व्यक्तित्व सामने आता है तो हवा में तने सैकड़ों हाथों द्वारा हड़ताल की निरर्थकता का संकेत मिलता है। जंगी जब उत्तेजित होकर कहता है कि—‘क्या होता है सही नारा? नारे बनाये जाते हैं, रटे नहीं जाते... शोषण के खिलाफ महज आवाज नहीं, तलवार उठाऊँगा मैं...जब तक दमन चलता रहेगा, यही कहूँगा। जंगी के इस कथन में मजदूरों की जागृति का उद्‌घाटन हुआ है। इस लघुकथा का जंगी के नवनिर्मित इसी नारे से आरंभ हुआ है और इसी नारे से अंत भी। इस नारे का अन्तनिर्हित भाव व्यक्त करते हुए उसने बताया है—“हाँ, माँगें पूरी नहीं हुई तो इन-कि-लाश ही करूँगा और झंडे पर लटका दूँगा उस लाश को।
इसी तरह की एक नगर-कथा है—‘और जैक मर गया। इस रचना में ग्रामीण व्यक्ति की नौकरी की चाह को शहरी धन्ना सेठ के शुष्क व्यवहार से जोड़कर जड़ता और संवेदनहीनता के साथ असम्बद्घता के सिद्घांत को कलात्मक प्रस्तुति दी गई है। किस्सागो की शैली में लिखी गई है यह लघुकथा। बीच-बीच में हास्य के साथ व्यंग्य दागने वाली चिनगारियाँ हैं। गोखरू एक मजदूर बाप का बेटा है। उसकी माँ उसके बचपन में ही मर जाती है। घर सँभालने के लिए किसनी को बचपन में ही उसकी औरत बनाकर घर ले आया जाता है। किसनी को टी. बी. की बीमारी हो जाती है। वह कर्ज लेकर उसका इलाज करवाता है; परन्तु वह मर जाती है। कर्जा चुकाने के लिए वह शहर आता है नौकरी की तलाश में। के. के. से उसकी मुलाकात होती है। वह कहते हैं कि उनके काम को, उन्हें शक है कि वह बखूबी कर पायेगा। वह अपनी ग्रामीण भाषा में निवेदन करता है कि दो-चार दिन वे उसका काम देख लें, अगर ठीक लगे तो पैसे दें। के. के. को जैक नाम का कुत्ता है। वह कुछ दिनों से बीमार है। के. के. साहब कहते हैं कि आज शाम तक वह जैक के काम के तरीके को देखकर सीख ले। जब तक वह बीमार है, तब तक उसकी नौकरी पक्की रहेगी। गोखरू जैक की हरकतों को ठीक से देखता है। कोठी के अन्दर गेट के पास मँडराना, कोठी के सामने से गुजरने वालों पर बेवजह भौंकना, अजनबियों पर खौफनाक तरीके से झपट पड़ना, के. के. को देखते ही दौड़ पड़ना, उनके पाँवों पर लोटना, पूँछ हिलाते हुए उनकी हथेलियाँ और तलवे चाटनायही जैक का काम है। गोखरू को नौकरी मिल जाती है। वह और सब तो करने में सफल हो जाता है, पर पूँछ हिलाना, पाँवों पर लोटना, तलवे चाटना वह नहीं कर पाता है। गोखरू जानता है कि जैक उसकी नौकरी के लिए खतरा है। वह एक रात चुपचाप जैक के कमरे में घुसता है। जैक उस पर गुर्राता है, लेकिन भौंकने के पहले ही गोखरू उसका गला टीप देता है। जैक की मृत्यु हो जाती है। इस प्रकार यह लघुकथा चरित्र प्रधान है। कितनी बड़ी बिडम्बना है कि धनोन्माद में के. के. साहब आदमी को कुत्तो की पाँत में रखकर सोचते हैं। किस्मत का हर तरह मारा गोखरू कर्जा चुकाने के लिए के. के. के यहाँ कुत्तो का काम करने को विवश है! कर्जे की मार और भूख की पीड़ा तथा अकेला बना हुआ बेचारा गोखरू संवेदनहीन होकर जैक की हत्या कर अपनी नौकरी पक्की कर लेता है! विवशता के परिणाम की यह हद है। अग्रवाल जी की यह लघुकथा चुप्पी के साथ विवरण देती जाती है, समूची कथा का बयान करती जाती है; पर बीच-बीच में तलवे चाटना’, ‘पूँछ हिलाना आदि की बात चलाकर धारासार व्यंग्य की वर्षा करती जाती है। (तीसरी किश्त आगामी अंक में…)

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