दोस्तो, 26 नवंबर 2011 तथा 7 दिसंबर 2011 के अंकों में आपने ‘अलाव फूँकते हुए’ में संकलित मेरी 25 लघुकथाओं पर डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के लेख की दूसरी किश्त पढ़ी। इस अंक में प्रस्तुत है उक्त लेख की तीसरी किश्त–बलराम अग्रवाल
(तीसरी किश्त)
इसी प्रकार ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’ एक नये मिजाज की लघुकथा है। इस लघुकथा में शाश्वत संवेदना है जो आज की सभ्यता की उपज है। आज के आदमी का एक वर्ग समाज के परम्परागत आदर्शों, नैतिकता को तिलांजलि देकर अपहरण, बलात्कार, हत्या में लगा हुआ है। अपराधियों को अपराध में संलग्न देखकर भी हम अलग कट जाते हैं। जो एकाध लोग दुस्साहस दिखाकर भिड़ना चाहते हैं वे अकेले पड जाते हैं और जोखिम उठाकर शारीरिक दंड के शिकार हो जाते हैं। अगर अपराधियों से भिड़ने के लिए लोगों में एकता हो जाय तो इक्के-दुक्के इन गुण्डों की एक न चले! यह लघुकथा इसी तथ्य पर आधारित है; पर बीच-बीच में सेक्स की मनोवैज्ञानिक सचाई को भी उकेरा गया है। लेखक ट्रेन में यात्रा कर रहा है। किसी स्टेशन पर लेखक और एक नवयुवती को छोड़कर सारे पंसिजर उतर जाते हैं। सर्दियों के दिन हैं। कम्पार्टमेंट की एकांतता लेखक को कामुक बना देती है—उस अकेली सिहरती-सहमी युवकी को देखकर लेखक सोचने लगता कि कितना अच्छा होता कि उसकी पत्नी मायके होती या अस्पताल में पड़ी होती! लेखक लड़की के पास जाकर बैठ जाता है। अगले स्टेशन पर तीन लोग उस कम्पार्टमेंट में प्रवेश करते हैं। उनमें से दो तो उन दोनों के सामने बैठते हैं और तीसरा कहीं दूर संडास के पास। सामने बैठे दोनों यात्रीी लेखक और उस युवती से परिचय पूछते हैं। लेखक सहम जाता है। पर युवती बताती है कि वह उसकी पत्नी है। इसी बीच दोनों युवक गुण्डे ‘तेरे शौहर की ऐसी-तैसी’ कहकर लड़की को लेखक की बाँह से छुड़ाकर एक झापड़ मारते हुए उठा लेते हैं। लड़की बचाने को चीख भरती जाती है, छटपटाती है, चिंघाड़ती है, पर गुण्डों के बलप्रयोग से लेखक निस्सहाय हो जाता है। उधर संडास के पास बैठा हुआ आदमी लड़की को छोड़ देने की चेतावनी देता है। गाड़ी चली जा रही है। वह तीसरा यात्री गुण्डों से हाथापाई, मारपीट करता जाता है—अकेले जटायु की तरह; जैसे सीताहरण काल में रावण से जटायु अंतिम साँस तक युद्घ करता रहा। कई स्टेशनों के गुजर जाने पर लेखक पेशाब करने के बहाने कम्पार्टमेंट के संडास के पास जाने की हिम्मत जुटाता है। वह दरवाजा खोलता है। आहट पाकर वह लेखक को धिक्कारता है—जैसे जटायु ने सीताहरण में अपनी युद्घगाथा कही थी। जटायु ने तो कहते समय पश्चातापमयी करुणा से सिक्त होकर प्राण त्यागे थे, पर वह तीसरा आदमी क्रोधाभिभूत पश्चाताप से द्रवित होकर लेखक को धिक्कारता है—“मर मिटने का तिलभर भी माद्दा तुम अपने अंदर सँजोते तो लड़की बच जाती... और गुण्डे...।” लग रहा था वह तीसरा यात्रीी लेखक पर थूक रहा हो। अग्रवाल जी ने इस लघुकथा को विश्वसनीयता का आयाम देने के लिए सारी घटनाओं को अपने अनुभव से जोड़कर प्रस्तुत किया है और संवेदित रूप प्रदान करने के लिए आत्मकथ्य शैली को मौजूं बनाया है।
बलराम अग्रवाल केवल वर्तमान नगर-महानगर जीवन की विडम्बनाओं के कथाकार नहीं हैं। ये केवल उन लोगों तक अपनी लघुकथाओं को सीमित नहीं रखते जो जीने-कमाने के ख्याल से शहरों में नौकरी करते या मजदूर बने हुए हैं। नाना प्रकार के सम्पन्नों द्वारा राजनैतिक चालबाजी करने वाले ही इनकी कथाओं में नहीं आते, बल्कि वे लोग भी यहाँ मौजूद हैं जो शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आर्थिक शोषण के शिकार होकर छटपटाहटभरी जिन्दगी जीने के लिए विवश है। अग्रवाल जी के कथाकार का दूसरा रूप आज के गाँवों से भी जुड़ा है। इसी कारण ग्राम्य-जीवन से जुड़े हुए हिन्दी कहानी-लेखन में जो ग्राम-कथा ओर आंचलिक-कथा के आंदोलन चले, उनको भी इन्होंने अपनी लघुकथाओं में समेट लिया है। वे एक ओर अपनी कथाओं में परम्परावादी अंधविश्वासों में जीने वाले लोगों का चित्रण करते हैं तो नई जागरूकता के प्रतीक युवापीढ़ी की मानसिकता को बखूबी उतारते हें। ‘रामभरोसे’, ‘बदलेराम कौन है’, ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ आदि लघुकथाएं वस्तुतः आज के दूरदराज गाँवों में फैली हुई पुरानी और नई पीढ़ियों के टकराव और नवजागरण के आयामों का सटीक संदर्भन हैं। यह उनकी यथार्थवादी संवेदनशीलता का प्रमाण है।
‘राम भरोसे’ शीर्षक लघुकथा ग्राम-कथा और आंचलिक-कथा का समन्वय है। ‘रामभरोसे’ लघुकथा में ग्रामीण युवावर्ग की नवजाग्रत मानसिकता को आयाम देकर पुरानी पीढ़ी के अंधविश्वासों से टकराव का बड़ा ही जीवंत चित्रण है। रामभरोसे नई पीढ़ी का और उसकी माँ तथा चाचा रामआसरे पुरानी पीढ़ी के प्रतीक हैं। रामभरोसे चाहता है कि जिस पंडित ने उसकी बहन के साथ योग किया है, उसे वह या तो टाँगी से टुकड़े-टुकड़े कर देगा या उसकी बहन को अपनाकर उसे उसकी दलित जाति में शामिल होना पड़ेगा। रामआसरे उसे समझाता है कि उसे ब्रह्महत्या का पाप लगेगा। उधर रामभरोसे की माँ अपनी बेटी को पीटती-कोसती है कि पंडित अगर मर गया तो ब्रह्महत्या का पाप लगेगा, बदनामी अलग होगी और हम लोग फाँसी पर चढ़ेंगे अलग। उधर रामभरोसे को झटका देकर गुस्से में जाते देखकर घर की औरतों और बच्चों के बीच कुहराम मच जाता है। रामआसरे ब्राह्मण की हत्या के परिणामों की कल्पना मात्र से टूट जाता है। रामभरोसे का तर्क है कि महापंडित रावण को मारने से जब राम का परलोक नहीं बिगड़ा तो इस महामूरख पंडित को मारने से भी कुछ नहीं होगा। रामआसरे रामभरोसे को कुल्हाड़ी फेंक देने का आग्रह करता है, और पंडित के मरने का पाप न लेने की बात समझाता है। वह रहस्य खोलता है कि उसकी बहन और कोई नहीं, बल्कि उसकी माँ के साथ पंडित के अत्याचार का फल है। उसको नरक अवश्य मिलेगा। यह सुनते ही रामभरोसे का पारा और चढ जाता है। वह कुल्हाड़ी को और ठीक से पकड लेता है और कहता है कि वह पंडित की हत्या अवश्य करेगा और बिरादरी वालों को चेतावनी देगा कि भविष्य में कोई भी अपने बच्चे का नाम रामआसरे या रामभरोसे न रखे। इस प्रकार अग्रवाल जी ने इस लघुकथा में गाँवों की नीची जाति में पैदा हुई नास्तिकता, जाति-वर्ग भेद को पैने व्यंग्य से उजागर करते हुए संकेत दिया है कि गाँवों के तथाकथित उच्च-जाति के लोग चरित्र से घिनौने हैं। ‘रामभरोसे’ और ‘रामआसरे’ नीची जाति के बीच परम्परा से चली आ रही पापपुण्य की जड़तावादी भावना को संकेतित करते हैं। यह लघुकथा अपनी सम्पूर्ण प्रस्तुति में ग्राम-कथा के अंतर्गत आंचलिक कथा का मिजाज दिखलाती है। यहाँ पात्रों के नाम के साथ नई पीढ़ी की जागरूकता व्यंजित होती है। पात्रानुकूल आंचलिक संबंधों से जुड कर यह रचना यथार्थवादी चेतना की लेखकीय पकड़ को जनवादी रचना सिद्घ करती है।
इस प्रसंग में बलराम अग्रवाल की बहुचर्चित और बहुप्रशंसित लघुकथा ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ का मूल्यांकन आवश्यक है। यह एक सशक्त ग्राम आंचलिक कथा है। इस लघुकथा में बदरू-मिसरी के वार्तालाप के द्वारा लेखक ने प्रतिपादित किया है कि आजादी के बाद भी जमींदारी प्रभाव और शोषण, उत्पीड़न और हड़पने की नीति बरकरार है। श्यामा और बदरू तथा चौधरी की सूच्यकथाओं के माध्यम से लेखक ने ग्राम्य-जीवन में अभी भी चल रही शोषण और हड़प-नीति को साकार करते हुए प्रजातंत्र और आजादी की व्यर्थता को उजागर किया है। न्याय-प्रक्रिया पर यहाँ करारी चोट मारी गयी है। इस रचना में मिसरी बदरू से अलाव के पास बैठकर बीड़ी का कश मारते हुए कहता है—“ई ससुर सुराज तो फिस्स हुई गया... गाँधी का छोरा पिर्जातन्त... ई कोर्ट-कचहरी का न्याय तो भैया पैसे वालों के हाथों में जा पहुँचा। सब बेकार... थारी जमीन दबाते समय ही हम एका बरतते तो चौधरी आज इत्ता हावी न हो पाता... एका नहीं होगा तो थोड़ा-थोड़ा करके हर किसान का खेत चबा जाएगा चौधरी... थारे से निबटते ही इस श्यामा की जमीन पर गड़ेंगे उसके दाँत।” ये सारे संवाद आज की ग्रामीण जिन्दगी की विवशता को हर तरफ से रेखांकित करते हैं। गाँधीवादी विचारधारा की निरर्थकता और आजादी के प्रति ग्रामीणों के मोहभंग को यहाँ बड़ी ही कलात्मक दक्षता से व्यंजित किया गया है। कितनी बड़ी सच्चाई है कि चौधरी जैसे लोग पैसे के बल पर कोर्ट-कचहरी के माध्यम से ग्रामीणों की जमीन अपने पक्ष में न्याय खरीदकर हड़प जाते हैं। इस लघुकथा में मिसरी देखता है कि खेत पटाता हुआ श्यामा गर्वान्वित है कि बित्ता-बित्ता जमीन उसी का है। श्यामा के इस गर्व से मिसरी में निर्भीकता आती है। इस लघुकथा में कुछ ऐसी बातें हैं जो समासोक्ति के रूप में प्रयुक्त होकर सतही बातों के माध्यम से गहरी बातें समझाती हैं। अलाव निश्चित रूप से हमारे गाँव, देश, समाज, परिवार का प्रतीक है और मिसरी और बदरू का रह-रहकर बुझते अलाव को जलाना—नवजागरण तथा अपने अधिकारों के प्रति सजग रहने की बात संकेतित करता है। इस लघुकथा में मिसरी की लम्बी फूँक से अलाव को फिर से जगाने की बात कही गई है। इसका अर्थ है कृषकों के भीतर श्यामा के गर्व से प्रेरित अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता उत्पन्न होना। फूँक के प्रभाव से राख बनकर दूर तक उड.ने वाली चिंदिया वस्तुतः चौधरी-जैसे प्रभावशाली धन्ना सेठ के प्रभावहीन हो जाने की संकेतक हैं। बिखरी हुई तिल्लियाँ अलाव की आँच में झोंकी जा रही हैं। ये तिल्लियाँँ हैं ग्रामीण किसानों के आपसी बिखराव के प्रतीक, जो जल रही नई जागरूक चेतना की आँच में जलकर राख बनेंगे।
डॉ. किरन चन्द्र शर्मा ने इस लघुकथा में प्रतीकात्मक यथार्थ के रूप देखे हैं। उनका मानना है कि ‘अलाव गाँव और गरीबी से जुड़ा शब्द है...हम गाँव के अलाव के इर्द-गिर्द से शुरू होकर उस व्यापक अलाव की ओर अनजाने ही बढ़ने लगते हैं जिसमें हमारा घर, हमारा पड़ोस, हमारा गाँव और हमारा देश जल रहा है और हम केवल इसके इर्द-गिर्द बतियाते चले जा रहे हैं।... कितनी बड़ी विवशता के बीच जी रहे हैं हम कि सब-कुछ जाता देखकर भी उसके इर्द-गिर्द इकट्ठा भर होने में अपनी सार्थकता मान लेते हैं...। दरअसल जो अलाव जलाया है बदरू ने, मिसरी उसे धीरे-धीरे कुरेदता हुआ अपनी आँच से फूँक देता है। बात सुराज से शुरू होकर पिर्जातन्त्र, तथा कोर्ट-कचहरी से होती हुई न्याय व्यवस्था पर पहुँचती है और वहाँ से खेत सींचते हुए श्यामा से जुड़कर जमींदार पर आकर ठहर जाती है और अलाव की आँच में पड ने लगती है; पर मिसरी फूँक मारकर उसे जला देता है। व्यक्तिगत अनुभव के दायरे में सभी कुछ समेटता हुआ यह लघुकथाकार भिन्न-भिन्न व्यापक आयाम दर्शाता हुआ चलता है। मजेदार बात यह है कि जहाँ लगता है, अलाव बुझ रहा है, वहाँ फिर से कुरेदता हुआ फूँक मारने लगता है।’
बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘बदलेराम कौन है’ एक ग्रामीण लघुकथा है। इस रचना में ग्राम की बदहाली और ग्रामोत्थान का आश्वासन देने वाले राजनेताओं की मुखौटेबाजी को यथार्थ स्वर दिया गया है। लेखक ने बदलेराम को चुनावी जीत हासिल कराने वाला राजनीतिक दलदल बताया है। नेताजी का यह नामकरण उनकी चारित्रिक गुणवत्ता को उजागर करता है। लेखक बताता है कि आजादी के इतने वर्ष बीत गये; पर बदलेराम अपने दल के उम्मीदवार व कार्यकर्त्ताओं के साथ कीचड़ भरे गड्ढों के कारण दो किलोमीटर पीछे कार छोड़कर पैदल गाँव पहुँचता हैं। ‘मैं’ जो उस इलाके से उम्मीदवार के रूप में खड़ा है, भी उनके साथ है। ग्रामीणों पर सहानुभूति जताकर वह उनकी मुख्य समस्या की जानकारी चाहता है। बदलेराम इस गाँव की मुख्य समस्या पानी बताता है, परन्तु उम्मीदवार से इस जानकारी लेने का मतलब जानना चाहता है। वह बताता है कि वह ग्रामीणों को सिंचाई के लिए नलकूप देने का आश्वासन देगा। बदलेराम का चेहरा जहरीला हो जाता है, क्योंकि बिजली के बिना नलकूप नहीं चल सकता। ... ‘मैं’ बिजली की लाइन खिंचवा देने की बात कहता है तो बदलेराम बताता है कि यह झाँसा तीस वर्ष पहले ही ग्रामीणों को दिया जा चुका है। उम्मीदवार बताता है कि मैं अतिरिक्त विश्वास के साथ कहूँगा कि गाँव के किनारे-किनारे नहर खुदवा दिया जायगा। बदलेराम उसकी तरह बाहर से लाया गया गँवई उम्मीदवार नहीं, वह अपनी पार्टी का कर्मठ कार्यकर्त्ता है। वह उसकी बात से क्षुब्ध हो जाता है—“कम-से-कम दस चुनाव उनके सिर से गुजर चुके हैं... वोटर अब उतना कच्चा नहीं रहा।” वह कहता है। इसी समय खेत के किनारे बैठा हुआ चरवाहा किस्म का एक युवक हाँक लगाता है और उन लोगों से पूछता है कि उनमें से बदलेराम कौन है? युवक की आतंकवादी मुद्रा देखकर बदलेराम की घिग्घी बँध जाती है। ‘मैं’ थरथराती आवाज में उस युवक से पूछता है कि वह किस बदलेराम को जानना चाहता है। युवक गाली देते हुए बताता है कि वही साला, जिसने आजादी की हवा तक पहुँचने नहीं दी गाँव में। वह क्रोधित होकर बताता है कि हर मकान की छत पर बच्चों के हाथों में ढेले हैं। वे खड़े हैं वोट माँगने वालों के स्वागत में। इस प्रकार, प्रस्तुत लघुकथा सीधे तीर मारती हुई हमें बताती है कि आजादी के बाद चुनावों में सत्ता के लोभी किस प्रकार वाग्जाल, झूठे आश्वासन और फरेबी झाँसों के मीठे बोल दे-देकर सारे ग्रामीणों को ठगकर अपना घर भरने में लगे रहे और बेचारे ग्रामीण आजादी के नाम पर होने वाले सारे विकास-कार्यों से वंचित होते रहे। यहाँ चरवाहे के क्रोध में, बच्चों के आक्रोश में, लेखक ने जो ग्रामीणों के बीच आई चुनाव की महत्ता का ज्ञान चित्रित किया है, वह प्रगतिशील लेखकों की प्रचारवादिता का रूप न होकर यथार्थवादी सच्चाई की पहचान है। कितनी बड़ी सच्चाई है कि चुनाव-पर-चुनाव होते रहे और ग्रामीणों को लुभावने आश्वासन देकर नेता चुनाव जीतकर मालामाल हो गये! गाँवों में न तो आवागमन का मार्ग बना, न बिजली मिली, न पेयजल की समस्या ही सुलझाई गई! सिंचाई की व्यवस्था की बात कौन कहे! इन अनपढ गँवारों को अपनी आजादी के तहत मिलने वाले अधिकारों और नेताओं के कर्त्तव्य का ज्ञान हो गया है। ये अब ठगे नहीं जा सकते। यह जानकारी राजनेताओं को भी मालूम हो गयी है कि लोग अब लुभावने आश्वासनों के जाल में नहीं फँस सकते! बच्चा-बच्चा जाग गया है। अग्रवाल जी ने ग्रामीण जागरण की इस सच्चाई को यथार्थ की अनुभूति से जो व्यंग्य के सीधे प्रहार इस लघुकथा में दिए हैं, वह उनकी जनवादी दृष्टि को अधिक जानदार बनाती है। (चौथी व अंतिम किश्त आगामी अंक में…)
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