दोस्तो, 26 नवम्वर 2011, 7 दिसंबर 2011 तथा 15 दिसंबर 2011 के अंकों में आपने ‘अलाव फूँकते हुए’ में संकलित मेरी 25 लघुकथाओं पर डॉ॰ ब्रजकिशोर पाठक के लेख की तीसरी किश्त पढ़ी। इस बार प्रस्तुत है उक्त लेख की चौथी व अंतिम किश्त–बलराम अग्रवाल
(चौथी व अंतिम किश्त)
बलराम अग्रवाल की अधिकांश लघुकथाएं आत्मकथ्य शैली में लिखी गई हैं। वे कई लघुकथाओं में विभिन्न पात्रों का रूप धारण कर रचना के साथ चलने वाली घटना या स्थिति में अपने को साथ लेकर चलते हैं, ताकि कथ्य की विश्वसनीयता अधिक जानदार और लेखक की स्वानुभूत मार्मिकता सिद्घ हो। जहाँ अग्रवाल जी ने अपने को अलग रखकर लघुकथाएँ लिखी हैं, वहाँ पर लेखकीय टिप्पणियाँ ऐसी बनी हैं कि लगता है कि रचना की घटना-स्थितियां लेखक के भोगे हुए यथार्थ से प्रादुर्भव हैं। कहीं भी ऊपर से ओढ़ा हुआ मामला नहीं लगता। ऐसा भी नहीं लगता है कि लेखक ने किसी से सुनकर किसी लघुकथा की रचना की है।
‘युद्घखोर मुर्दे’ शीर्षक लघुकथा में अग्रवाल जी कॉफी हाउस में सिगारधारी सज्जन, सुरेश, नरेश और पत्रकार महोदय के बीच चल रही ‘असल आजादी’ की ऊँची-ऊँची बात करने वाले युद्घखोर मुर्दों के बीच देखे जाते हैं। ‘बदलेराम कौन है’ में वे पार्टी के एक सक्रिय कार्यकर्त्ता हैं। ‘जुबैदा’ में होटल के आगे ऑटोरिक्शा से उतरने वाले और तलाकशुदा जुबैदा के कंधों पर हाथ रखने वाले भीरू किस्म के सज्जन भी वे ही हैं। ‘औरत और कुर्सी’ में कामुक दृष्टि से ठंडा हुए हवस के दीवाने धनाढ्य व्यक्ति भी अग्रवाल जी ही हैं जो कॉलगर्ल के साथ सोकर नारी देह की गरमाहट पाने में ही अपनी सार्थकता समझते हैं। हम देख चुके हैं कि ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’ में अग्रवाल जी अकेली युवती को भोगने की नीयत रखते हैं पर गुण्डों से उसे बचा नहीं पाते और जटायु की तरह युद्घ में गुण्डों से घायल यात्री से डाँट खाते हैं। जिस लघुकथा में लेखक ने अपने को अलग रखकर तटस्थ भाव से घटनाओं-पात्रों का चित्राण किया है, वह प्रस्तुति में इतना सच्चाई लिए है कि लगता है कि घटना, स्थिति और पात्रों के साथ पीछे-पीछे चल रहा है। हिन्दी लघुकथा में लेखकीय उपस्थिति का यह अहसास वस्तुतः दुर्लभ-सा रहा है।
बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं की विशेषता है कि पात्रों के चयन और उनके चारित्रिक-विन्यास में वे अत्यंत सजग है। उनके पात्र वर्तमान जीवन में पैदा हुई विसंगति और विद्रूपताओं की उपज हैं। हर वर्ग, हर जाति और हर मन:स्थिति के लोग इनकी लघुकथाओं में हैं। इसी कारण अग्रवाल जी की लघुकथाएँ एक साथ घटनाप्रधान और चरित्राप्रधान हो जाती हैं। सबसे मजे की बात यह है कि पात्रों के नाम उनकी गुणवत्ता या चरित्र को ध्यान में रखकर दिये गये हैं। बदलेराम, रामभरोसे, जतन बाबू ऐसे ही लोग हैं जो अपनी करनी-धरनी से अपने नाम की सार्थकता सिद्घ करते हैं। इनकी लघुकथाओं में कुबेर पाण्डे और शर्माजी जैसे व्यावसायिक राजनेता हैं तो कड़क कुर्ता-पाजामा पहने लौडें-लफाड़े भी हैं; जो सिद्घांतहीन होकर चुनाव-काल में पैसा कमाने के लिए मालदार पार्टी कार्यकर्ता बनकर अपनी रोटी सेंकते हैं। इनकी लघुकथाओं में जंगी जैसा मजदूर नेता है तो गोखरू जैसा ग्रामीण युवक भी, जो अपनी पत्नी की चिकित्सा के दौरान लिए गए कर्ज को चुकाने के लिए कुत्तों का काम सीखता और करता है। यहाँ जगन बाबू भी हैं जो आजादी के दिनों में अंग्रेज अफसरों को बम से उड़ाते हैं और अपने बागी मित्र द्वारा लगाए गुलमोहर के पेड़ को खाद-पानी से सींचकर जवान बनाते हैं, पर उसमें एक भी फूल आते न देखकर मायूस हो जाते हैं। यहाँ ऐन जैसी ईसाई लड़की है जो अपने पिता की इच्छानुसार देह व्यापार कर पैसे कमाती है। यहाँ गरम माँस वाली देह की कॉलगर्ल भी है जो पैसा कमाने के साथ देह की भूख भी मिटाना चाहती है। इसी प्रकार लेखक ‘वह’ को बेनामी पात्र के रूप में उपस्थित कर हमारे आसपास के लोगों के कारनामे दिखाता है। वे यहाँ अपने नाम से नहीं वरन् अपनी करतूत से जाने जाते हैं। जैसे ‘ओस’ लघुकथा की दादी माँ, ठिंगना युवक, सेठ और पड़ोसी। ‘अंतिम संस्कार’ में वह बेटा है, जो दरिद्रता के कारण अपने बाप की चिकित्सा नहीं करवा पाता और कर्फ्यू के कारण अपने तेज हथियार से मृत पिता का पेट काटकर सड क पर फेंक देने की लाचारी झेलता है।
बलराम अग्रवाल लघुकथा में चूंकि कहानीपन के हिमायती हैं, इसलिए इनकी रचनाओं में स्थिति और वातावरण के चित्रण पर अधिक सर्तकता देखने को मिलती है। इनके चित्रण में कभी काव्यात्मकता का स्वरूप देखने को मिलता है, तो कभी सीधी-सरल भाषा में गत्यात्मक चित्रों-बिम्बों का आयोजन। यह दक्षतापूर्ण वैदुर्य बहुत कम लघुकथाकारों में देखने को मिलता है। अन्य लघुकथाकार या तो नाटकीय त्वरा से सहसा अपनी लघुकथाओं को आरंभ करते हैं और कुछेक पात्रों के माध्यम से घटना-स्थिति को उठाते-पटकते झटके से अंत देकर कथ्य को अंतिम वाक्य से कहकर स्वशब्दवाच्यत्व दोष से ग्रसित कर देते हैं। बलराम अग्रवाल की लघुकथाएँ वातावरण, स्थिति चित्रण के रंग में पात्रों को समेटते हुए झटके देती हैं जरूर, पर कथ्योद्घाटन का उपर्युक्त दोष कहीं भी नहीं मिलता। बलराम अग्रवाल पाठक-समीक्षकों का दायित्व समझते हैं कि वे उनकी लघुकथाओं के कथ्य को सम्पूर्ण रचना के अंतर्गत चित्रित स्थिति वातावरण के संदर्भ में विश्लेषित-उद्घाटित करें। उनकी प्रस्तुति का यह यथार्थवादी आग्रह वही है जो प्रेमचन्द की सर्वश्रेष्ठ तीन कहानियों—शतरंज के खिलाड़ी, कफन और पूस की रात का है।
बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं में ठंड के स्थिति-चित्र बार-बार आते हैं, विभिन्न संदर्भों आयामों से जुड़कर। वह ठंड लेखक की दृष्टि में शहर और गाँव में रहने वाले निम्न वर्ग के लोगों की त्रासद जिन्दगी को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली स्थिति है। चाहे ‘ओस’ लघुकथा हो, चाहे ‘औरत और कुर्सी’, चाहे ‘अलाव के इर्द-गिर्द’ हो, चाहे ‘अकेला कब तक लड़ेगा जटायु’—बलराम सर्वत्र जाड़े की रात, ठंड की पीड़ा और सिहरन पैदा करने वाली हवा के काव्यात्मक, चित्रात्मक, बिम्बात्मक विधायक हैं। ऐसे उनकी लघुकथाओं में, पात्रों के क्रियाकलाप भी गत्यात्मक चित्र खींचते हैं। ‘अंगूठी’ शीर्षक लघुकथा में जमूरे की चादर और जमूरे की हरकतों का चित्रमय दृश्यांकन किया है। 'अलाव के इर्द-गिर्द’ में इसी प्रकार शुरू से लेकर चित्रात्मक दृश्य और पात्रता साकार हुई है। ‘टखनों तक खेत में धँसे मिसरी ने सीधे खड़े होकर पानी से भरे अपने पूरे खेत पर निगाह डाली। नलकूप की नाली में बहते पानी में उसने हाथ-पाँव और फावड़े को धोया और श्यामा के बाद अपना खेत सींचने के इन्तजार में अलाव ताप रहे बदरू के पास जा बैठा।... चिंगारी कुरेद रहे बदरू से डण्डी को लेकर मिसरी ने जगह बनाई और फेफड़ों में पूरी हवा भरकर चार-छः लम्बी फूँक उसकी जड़ में झोंकी। झरी हुई राख के ढेरों चिन्दे हवा में उड़े और दूर जा गिरे। अलाव ने आग पकड़ ली। कुहासेभरी उस सर्द रात के तीसरे पहर लपटों के तीव्र प्रकाश में बदरू ने श्यामवर्ण मिसरी के तांबई पड़ गये चेहरे को देखा और अलाव के इर्द-गिर्द बिखरी डंडियों-तीलियों को बीनकर उसमें झोंकने लगा।’ यह चित्रात्मक दृश्य प्रमाणित करता है कि बलराम शब्दों की आत्मा को खूब जानते हैं और एक कुशल फोटोग्राफर की भांति स्थिति या पात्रों के व्यक्तित्वनिरूपण में रेशा-रेशा उतारते हैं।
बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं में मुख्यरूप से तीन वर्गों के पात्र हैं। पहले वर्ग के पात्र वे हैं जो नगर-महानगरों में रहते हैं। दूसरे वर्ग में वे लोग आते हैं जो गाँव छोड़कर शहर में आजीविका के लिए रह रहे हैं। तीसरा वर्ग उन लोगों का है जो गाँवों में जनमे, बढ़े और वहीं के वातावरण में जी रहे हैं। अग्रवाल जी ने अपनी लघुकथाओं में इन तीनों वर्गों के लोगों को ध्यान में रखकर ही अपनी लघुकथाओं में संवाद योजना की है। शहरी वर्ग के पात्र तो शुद्घ भाषा अंग्रेजीनुमा भाषा बोलते है; पर गाँव से शहर में आये लोगों की भाषा में शहरी और ग्रामीण संस्कार मिले-जुले हैं। जो लोग बिलकुल गाँवों के हैं, वे आंचलिक भाषा का प्रयोग करते हैं। शहर में पलने वाले विभिन्न वर्ग के पात्र अपने अनुकूल भाषा बोलते हैं। ‘बदलेराम कौन है’ में चरवाहा बोलता है—“तुम सब सुनो—वोट के वास्ते आने वालों की अगवानी के लिए गाँव के हर मकान की छत पर बच्चे हाथों में ढेले लिये खड़े हैं।” ‘पुश्तैनी गाम’ में ननकू करन से कहता है—“तू देख लीजो, अबकी बार तिल्लोकी कू कोई ना हरा सकै।” “अबे भाड़ में जाय ससुरा तिल्लोकी। अपन तो वोट देंगे ठाकुर सा’ब कू।“ ननकू बोला।
इस प्रसंग में एक मार्के की बात है कि अग्रवाल जी ने अपनी लघुकथा की प्रस्तुति-काल में थ्री एक्ट प्ले की तरह अधूरे वाक्यों दूसरे पात्रों द्वारा पूर्ण कराये हैं। संवादों के ऐसे आयाम केशव की ‘रामचन्द्रिका’ या रसखान के सवैयों की नाटकीय काव्यात्मक त्वरा की याद दिलाते हैं। ‘अंगूठी’ में—“नहीं दूँगा...नहीं दूँगा यह अंगूठी ...। बन्द मुट्ठी को अपनी डंडा जांघों के बीच फँसाकर लड़का चिल्लाया—भुखमरी के दिनों सेरभर चावल जबरन हमारे घर डालकर साहूकार मेरी बहन को ले गया था। माँ उसी दिन से पागल हो गई है।... सब डरपोक हैं... मुझे साहूकार के खिलाफ लड़ना है...मुझे...।”
इस प्रकार, बलराम अग्रवाल हिन्दी के उन कुछेक लघुकथाकारों में हैं, जिन्होंने लघुकथा को कहानी के तत्त्वों के स्पर्शमात्र के कथाभास के आयाम निर्मित कर इसके एक स्वरूप को निर्धारित किया है। बेकारी, मानवीय संवेदनहीनता, मानसिक जड ता और आजादी की विडम्बना, राजनीतिक छलावा, अवशिष्ट जमींदारी, जातिगत पाखंड, आजादी के प्रति मोहभंग आदि आज की जिन्दगी की सचाइयों को अपने लघुकथा-संसार का विषय चुनकर अग्रवाल जी ने समकालीन चेतना को यथार्थवादी स्वर प्रदान किया है। आज के गाँवों की दुर्दशा, अपहरण, उनके आपसी टकराव, पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी की आस्थाओं का पारस्परिक संघर्ष, नागरिक जीवन में पैसे के लिए फैला देह व्यापार भी इनकी लघुकथाओं के मूलस्वर बने हैं। बलराम अग्रवाल अपनी अधिकांश लघुकथाओं में एक बिन्दु पर हर जगह केन्द्रित दीखते हैं। यह बिन्दु है शहर से गाँवों तक फैले हुए राजनीतिक छल-छद्म और वासनापूर्ति की घृणित व्यूह-रचना! कृषक जीवन का सीधा-सादा रूप आज कैसे धन्ना सेठों के प्रभाव में आकर अस्तित्वहीन होता जा रहा है, अग्रवाल जी ने अपनी कई लघुकथाओं में यथार्थवादी परणति के रूप में उजागर किया है! उनकी लघुकथाओं में जो लेखकीय संवेदनशीलता, अनुत्तेजना से उत्पन्न होने वाली उत्तेजना और व्यंग्य के तीखे स्वर-संधान हैं, वे कम ही लघुकथाओं में देखने को मिलते हैं। घटना-स्थिति को चित्रात्मक बिम्बात्मक आयाम देकर लघुकथा की प्रस्तुति-कला की दुर्लभ क्षमता इन्हें प्राप्त है।***
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