दूसरी किस्त दिनांक 01-01-2017 से आगे…
आवरण : के॰ रवीन्द्र |
प्रेमशंकर का मत है कि ‘समकालीनता को
लेकर बहस हो सकती है, पर एक समय-विशेष की धड़कन रचना में
प्रक्षेपित होती है, और इस दृष्टि से हर युग की अपनी एक ऐसी
समकालीनता होती है, जिसे हम सार्थक रचनाओं में तलाशते
हैं।’ इसका अर्थ यह हुआ कि रचना की
सार्थकता उसकी ‘समकालीनता’ में है। निष्कर्षतः वीरेन्द्र मोहन के शब्दों में कहा जा
सकता है—‘समकालीनता एक समय-सापेक्ष गतिशील
प्रक्रिया है।’
समकालीनता और लघुकथा
तत्वतः भिन्न होते हुए भी ‘आधुनिक’,
‘समसामयिक’ और ‘समकालीन’ शब्दों का
प्रयोग साहित्यिक क्षेत्रों में एक ही तात्पर्य— समकालीन से किया जाता है। जहाँ तक लघुकथा का प्रश्न है,
इस विधा की समकालीनता के परिप्रेक्ष्य
में जगदीश कश्यप का प्रस्तुत कथन अत्यधिक महत्व रखता है— ‘सर्वप्रथम बलराम अग्रवाल ने ही आधुनिक
लघुकथा की अवधारणा पर बहस की।’ पृष्ठभूमि: लघुकथा अंक,
7-21 नवम्बर 1981
यद्यपि अपने इस सन्दर्भित लेख में
प्रकारान्तर से जगदीश कश्यप ‘आधुनिक लघुकथा’ की मूल प्रकृति एवं उसके रूप,
आकार पर बात करते हुए काफी भटक गए हैं
और उन्होंने ‘कहानी’ के लघु-कलेवर वाली कथा-रचना को ‘आधुनिक लघुकथा’ मानने की गलती
कर डाली है, तथापि इससे यह तो पता चलता ही है कि
‘लघुकथा’ में ‘आधुनिक’ पर चर्चा किस बिंदु से प्रारम्भ हुई।
रामकृष्ण विकलेश कहते हैं— ‘समकालीन लघुकथा की विशेषता यह है कि वह
उपदेश देने की अपेक्षा जीवन की सच्चाईयों से सीधा साक्षात्कार कराती है। वह किसी
समस्या का समाधान प्रस्तुत करने की बजाय बिच्छू के डंक की तरह कटु यथार्थ का अनुभव
कराती है।’
‘समकालीन’ शब्द विशेषण है और
‘समकालीनता’ भावबोधक संज्ञा। ‘समकालीन’ को साहित्य की सभी विधाओं के साथ प्रयुक्त
किया गया है, जैसे— समकालीन उपन्यास, समकालीन कहानी, समकालीन निबन्ध आदि। ‘समकालिकता’ के
भावबोध के आविर्भाव के पीछे कुछ प्रमुख बिन्दु रहे हैं। यह धीरे-धीरे ही विकसित
हुआ है। यह प्रमुख बिन्दु उस कालविशेष की देन थे; जिनमें धर्म, संस्कृति,
अर्थ, तन्त्र का विकृत रूप या आर्थिक संतुलन,
भ्रष्ट-व्यवस्था,
सत्ता की असफलता और असामाजिक तत्त्व
आदि कुछ ऐसे तीखे अनुभव थे, जिसने समकालीन-बोध को जन्म दिया।
अतः समकालीनता एक बोध है। इसी तरह
हिन्दी लघुकथा का ‘समकालीन हिंदी लघुकथा’ के रूप में उन्नयन का काल सन् 1951 के आसपास से परिलक्षित होने लगता है; लेकिन सतत विकास की धारा बनने में उसको
सन् 1971 तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। ऐसा मानने
के एक नहीं अनेक राजनीतिक व सामयिक कारण हैं।
'सारिका' पिछले कुछ वर्षों से विशिष्ट
वैचारिक दिशा और दृष्टि की लघुकथाएँ प्रकाशित करती रही है। उन मौलिक लघुकथाओं ने
अपने पूरे आवेग और आवेश के साथ आज के समाज और आज की जिन्दगी में व्याप्त छल को
उघाड़ा है। कुछ लघुकथाएँ चाहे पंचतन्त्र के आधार पर रही हों,
चाहे पौराणिक,
फन्तासी, बेताल कथा, परी कथा या किस्सा तोता-मैना के आधार
पर; लेकिन उनका भी प्रस्तुतीकरण और संदर्भ
शुद्ध रूप से आधुनिक ही रहा है। इस बार उन्हीं आधुनिक संदर्भों के क्रम की मौलिक
लघुकथाओं का एक विशिष्ट खण्ड यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। ये लघुकथाएँ आज की
समस्याओं, मान्यताओं,
राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों आदि पर
तीखे व्यंग्य प्रहारों के साथ ही नयी वैचारिकता और नयी मानसिकता की ओर इंगित करती
हैं। साथ ही पाठकों और कथा-मनीषियों के सामने कुछ प्रश्नचिह्न भी खड़े करती हैं— क्या देशव्यापी विषाद से आज का
जन-सामान्य निजात पा सकेगा?
क्या इन विसंगतियों की कोई सीमा है? सामाजिक न्याय की आड़ में व्यवस्थागत
अत्याचारों की यह त्रासदी आदमी को कहाँ पहुँचाएगी? ये लघुकथाएँ इससे ज्यादा भी कुछ और कहती हैं। सारिका : जुलाई 1973
‘सारिका’ के इस अंक की लघुकथाओं के बारे
में पाठकीय प्रतिक्रियाओं से भी इस कथा-विधा के समकालीन सरोकारों की पुष्टि होती
है क्योंकि प्रकाशित लघुकथाओं को लगभग सभी पाठकों ने अपने समय की चिन्ताओं से जुड़ा
आकलित किया है। उदाहरणार्थ—
(अ) ‘अधिकांश
कथाओं में राजनीतिक छल-छंद, सामाजिक विसंगतियों एवं शासन-तन्त्र की विफलता के विरुद्ध तीव्र आक्रोश व्यक्त किया गया है। इन रचनाओं ने वर्तमान समाज
का एक्स-रे करके उसका कंकाल हमारे सामने खड़ा कर दिया है। लगता है सम्पूर्ण जन-मानस
वर्तमान व्यवस्था से एकदम क्षुब्ध हो उठा है। कथाओं में निहित व्यंग्य-बाण
विद्रूपताओं पर गंभीर चोट करते हैं। ऐसी यथार्थवादी रचनाओं की सम्प्रति बड़ी जरूरत
है।’ (आ) वास्तव में आज का राजनीतिक वातावरण एक ऐसा चिकना घड़ा बन गया है,
जिसमें व्यंग्य,
संवेदना और तिरस्कार का जल फिसलकर
अनजानी भूमि में खो जाता है। लघुकथाओं से भरा यह अंक आज के भ्रष्टाचारी नेताओं के
लिए चाँटे ही नहीं मुक्कों की मार देता है। (इ) लघुकथा का अपना अलग ही महत्व है और
विशेषकर आज की विशेष परिस्थितियों में। लघुकथा के नाम पर चुटकुले नहीं लिखे जा
सकते। लघुकथा की अपनी परिधि, अपना प्रभाव है।
इस अंक में प्रस्तुत लघुकथाओं ने खोखले
समाजवाद, चुनाव के समय के भ्रष्टाचार और अनैतिक
आचरण, मंत्रियों के झूठे वायदों,
उनकी कुर्सी के मोह,
वर्तमान शासन व्यवस्था पर व्यंग्य किये
हैं। इन लघुकथाओं में वह सभी कुछ मिल गया जो लम्बी कहानियों में मिलता। इन कथाओं
ने सत्ता की खोखली व कोरी नीतियों का बड़ी दृढ़ता के साथ भण्डाफोड़ किया है,
तथा साथ ही जनता को इस बात के लिए
सावधान किया है कि अब वह जल्दी ही किसी नेता के खोखले नारों में आकर जल्दबाजी में
कोई निर्णय न ले; क्योंकि इसका उसको अच्छी तरह से फल मिल
गया है। ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देकर सर्वहारा जनसमुदाय को थ्री-नाॅट-थ्री के
कारतूसों की आग से ठगने वाले सत्ता प्रतिष्ठान के द्वारा पैदा किए गए राष्ट्रीय
संकट को विभिन्न संदर्भों में परिपक्वता के साथ ये लघुकथाएँ उभारती हैं।... ये
लघुकथाएँ पाठकों के अन्तर्मन के झटके के साथ कथात्मक रिद्म से अभिभूत करती
हैं। लघुकथा क्योंकि अपने समय के बोध को
साथ लेकर चलना शुरू हुई अतः उसे ‘समकालीन’ विशेषण प्रदान करना हर प्रकार से तर्क
संगत प्रतीत होता है।
समकालीनता में यथार्थ-बोध प्रमुख रहता
है, यही यथार्थ-बोध लघुकथा में ‘कथ्य’ बनकर
उभरता है, कथा और कथाकार दोनों गौण रह जाते हैं।
समकालीनता वस्तुतः एक ऐसी मानसिकता है जो नये जीवन-संदर्भों को उनके नये आयामों
में जीवंत रूप से प्रस्तुत करती है। ये जीवन-संदर्भ जीवन को अर्थवत्ता प्रदान करते
हैं। एक नई दृष्टि, नई राह और नई धारणाएँ मिलती और बनती
हैं, जो जीवन का मार्ग-दर्शन करने में सक्षम
होती हैं। लघुकथा छोटे आकार की वह कथा-केन्द्रित गद्य-विधा है, जिसमें समझ और अनुभव की सम्भवतः
सर्वाधिक संश्लिष्ट अभिव्यक्ति सम्भव है। संभवतः इसी गुण के कारण कहा गया है कि
लघुकथा एक प्रयोगधर्मी विधा ही है। और शायद प्रयोगधर्मिता ही वह कारक है जिसके
चलते ‘लघुकथा में सामयिक सार्थकता ‘वस्तु’ के दवाबों से निर्मित होती है। ‘वस्तु’
का स्वभाव ही इस सार्थकता का निर्माता है। यदि सायास किसी सार्थकता का आयात किया
जाता है तो लघुकथा एक कृत्रिम, अस्वाभाविक, बनावट भर रह जाती है। कथाकारों से ऐसी
अपेक्षा रखना सर्जनात्मकता का अवमूल्यन होगा।’ रचनाकार वार्षिकी,
1990
लघुकथा वस्तुतः सामयिक विसंगतियों पर
एक सार्थक टिप्पणी है जो संवेदना और विचार दोनों ही स्तर पर पाठक को स्पर्श करती
है।
विषय की दृष्टि से लघुकथा में एक बहुत
बड़ी दुनिया विद्यमान है जो न हिन्दी उपन्यास के पास है,
न हिन्दी कहानी के पास है। यह दुनिया
इतनी बड़ी है और इतनी व्यापक है कि कई बार लघुकथा की दृष्टि की प्रशंसा करनी पड़ती
है कि उसने मानव-जीवन की इतनी सच्ची पकड़ की है। कमल किशोर गोयनका: लघुकथा का समय
समकालीन लघुकथा सामाजिक, राजनीतिक दबावों,
टकरावों, मूल्यविहीनता और विसंगतियों से गुजरती है,
इसलिए उसका रवैया और मुख्य सरोकार
वैचारिक हो गया है। ‘समकालीन स्थितियों-संबंधों-दशाओं को उजागर करने के बर्तावों
में अधिकांशतः प्रतीक कथाओं-कथनों-संकेतों के व्यवहार में अभिव्यक्त करने के रुझान
मिलते हैं।’
जीवन के साथ उसकी तादात्म्यता एवं
एकात्मता इस हद तक बढ़ गई है कि अब साहित्य की ‘शाश्वतता’ की मिथ पीछे छूट गई है और
समसामयिक स्थितियों का प्रामाणिक दस्तावेज बनना व्यक्ति को अधिक प्रेय हो उठा है।
स्वातन्त्रयोत्तर काल में, हम कह सकते हैं कि सातवें दशक की
समाप्ति और आठवें दशक के शुरू होते-होते भारतीय जन-मानस अपेक्षाकृत अधिक परिपक्व
हो आया, क्योंकि समय की मार ने उसकी भावुकता, ढुलमुलपन और निष्क्रियता को कुचलकर रख
दिया। दिशाहीनता, सर्वात्मनिषेध,
आत्मदया की स्थितियों से उबरकर सही
दिशा की ओर बढ़ने, मानवीय पक्षधरता,
स्थितियों के प्रति विवेकसम्मत रवैया,
स्थितियों का विश्लेषण करने में
वैचारिक मानसिकता और सक्रियता के आयाम उसके सामने खुले। ऐसे उद्वेलनकारी काल में
घटना के पीछे के कारणों, नीतियों के पीछे के आशयों,
आश्वासनों के पीछे छिपे धोखों और
चालबाजियों का विवेक जाग्रत करने का कार्य ‘समकालीन लघुकथा’ ने अपने जिम्मे लिया।
समकालीन लघुकथा में ‘कोरी भावुकता’ और
‘आदर्शवादिता’ के स्थान पर ‘प्रासंगिकता’ और खुरदुरे यथार्थ की धारणाएँ सामने
आयीं। वर्तमान संदर्भों, दबावों, तकाज़ों को वरीयता देती आठवें दशक की लघुकथा इन्हीं बाह्य तत्वों
की गुणात्मक परिणति के फलस्वरूप एक विशिष्ट चेतना के रूप में उभर आयी है। इस चेतना
को अर्जित कर वह अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब रही है। वर्तमान अनुभव,
भाषा और संस्कार का अतिक्रमण कर वह जिन
चेतनागत मूल्यों को विकसित कर पायी है, उन्हीं के आधार पर समकालीन लघुकथा-लेखक पूर्व लघुकथा-लेखकों से पृथक
अपनी विशिष्ट पहचान बना सकने में कामयाब हो सके।
‘समकालीनता (समसामयिकता) के संदर्भ में
आज के इतिहास पर दृष्टि डालने वाले से यह छुपा नहीं कि स्वातंत्र्योत्तर युगीन
भ्रष्ट एवं निहित स्वार्थों से प्रेरित राजनीति इन सामाजिक मानवीय संबंधों में भी
दरारें डाल देती है, उन्हें आक्रांत कर कुरूप बनाती एवं
तोड़ती है।’
शेष आगामी अंक में…
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