समकालीन लघुकथा समकालीन व्यक्ति की
नियति, सोच-व्यवहार, आशा-निराशा, आह्लाद-रोदन की निकट की साझेदार
स्वीकार कर चुकी है। वह निकटतम हमदर्द ऐसे पड़ोसी की तरह है जो दूसरों की धड़कनों, साँसों, आहों में ही नहीं, प्रत्येक हारी-बीमारी, खैर-खुशी में पूर्णतः सहभोक्ता है।
बिना नाटकीय रचना-विधान के युगीन
यथार्थ की छद्मता, द्वैधता और अंतर्विरोधपूर्ण स्थिति के
विविध पक्षों, रंगों, रंगतों को उघाड़ सकना सम्भव नहीं। युगीन यथार्थ के बहुरूपीपन के मुखों
को खोलने-उतारने के लिए नाटकीय संरचना ही कारगर सिद्ध हो सकती है। इस यथार्थ को कई
पक्षों और प्रकारों—मिथकीय, फंतासी, उलटबाँसीनुमा रूप में या विद्रूपीकृत
करके छेड़ने-कुरेदने, उधेड़ने, उलट-पलट करके देखने से ही जाना जा सकता है,
क्योंकि यह आधुनिक यथार्थ ठस्स और ठोस
नहीं, बल्कि गतिशील एवं सतत परिवर्तनीय है।
उसे पकड़ने की विधि उसके अनुरूप लोचदार होनी चाहिए। लोच पात्रों,
स्थितियों,
सम्बन्धों,
संवादों के आपसी टकराव या नाटकीय रचाव
से लायी जा सकती है, जिससे स्थितियों के पीछे की स्थितियों,
चेहरों के पीछे छिपे असली चेहरों और आशयों
को नग्न रूप से सामने लाया जा सके।
राजनीति के दबाव की यातना-यात्रा
सामान्य से विशेष की ओर बढ़ती है। आज के नेता बिकने और बिकते रहने को ही अपनी
राजनीतिक हैसियत और महत्त्व मानने लगे हैं। ऐसे सतहीपन के कारण ही तथा मजदूर वर्ग
की अपरिपक्व समझ या सीधेपन के कारण उपयुक्त हड़तालें भी असफल होती रही हैं या करवा
दी जाती हैं। इस समय कोई भी राजनीतिक
पार्टी अपने-आप को पूँजी से दूर होने या रहने का दावा नहीं कर सकती है। मजदूरों के
प्रमुख नेताओं को प्रलोभनों या डरों के द्वारा खरीद लिया जाता है। यही राजनीति का,
सत्ता का, पूँजीवादी व्यवस्था का विकृत रूप है।
इन स्थितियों के सटीक चित्रण की दृष्टि से बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘तीसरा पासा’
को उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है जिसमें दिखाया गया है कि पार्टी के
प्रदेशाध्यक्ष के बिकाऊ चरित्र के कारण चुनाव-टिकट जुझारू तपनेश बाल्मीकि के बजाय
पूँजीपति शरण बाबू को दिए जाने की संस्तुति की जाती है।
‘भारतीय परिवेश में समाजवाद की तरह
विद्रोह को भी चालू सिक्के की तरह चला-चलाकर अवमूल्यित कर दिया गया है। कायर ही
विद्रोही होने का एलान करते हैं। समाज के एक-एक वर्ग में,
राजनीति के एक-एक घटक में,
विद्रोह का अभी भी बोलबाला है,
जहाँ शाब्दिक विद्रोह सम्मानित होने की
गांरटी प्रदान करता है। ऐसे विद्रोह सड़क किनारे ही मिलेंगे।’ बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘युद्धखोर मुर्दे’ में
ऐसे शाब्दिक और वाचिक विद्रोहियों का चित्राण बखूबी हुआ है।
सन् 1994 से राष्ट्रीय प्रगतिशील लेखक संघ अध्यक्ष मंडल के सदस्य तथा 1996 तक महासचिव रहे नरेश सक्सेना ने कहा
था—बुर्जुआ जीवन-यात्रा के प्रति रंगीन
मोह आक्रोश और विद्रोह को नपुंसक बना देता है। उन्हीं के शब्दों में—‘आठवें दशक का लेखक अब तक का ओढ़ा हुआ
अभिजातत्व उतारकर फेंक रहा है। वह सही आदमी, मेहनतकश आदमी, ज्यादा से ज्यादा आदमियों की लड़ाई में
उन्हीं की तरह शामिल हो रहा है और अपने आक्रोश-विद्रोह को यथार्थ रूप दे रहा है।’
आज स्थिति यह है कि समकालीन लघुकथा में
कोई वाद-विशेष, सैद्धांतिक मत-मतांतर अथवा
मठाधीशी-वृत्ति देखने को नहीं मिलती है। समकालीन समस्याएँ और चुनौतियाँ ही समकालीन
लघुकथा के विषय हैं। यद्यपि दलित पात्रों, जनवादी तेवरों, देह से जुड़े कथानकों, स्त्राी-पुरुष सम्बन्धों, राजनीतिक, पारिवारिक,
शैक्षिक, मनोवैज्ञानिक, महानगरीय जीवन के विविध पक्षों आदि
अनेक महत्वपूर्ण एवं विचारणीय विषयों को केन्द्र में रखकर लघुकथा-संकलन संपादित
किए गए हैं तथापि कहानी की तरह लघुकथा ने अपनी रचनाशीलता को दलित-विमर्श अथवा
स्त्री-विमर्श जैसे कुछेक मुद्दों तक ही सीमित भी नहीं रखा है बल्कि यह अपने समय
के समस्त सरोकारों को साथ लेकर चल रही है। फिर भी, विषय-केन्द्रित लघुकथा-संकलनों की उपादेयता को नकारा नहीं जा सकता
है। रामकुमार घोटड़ द्वारा सम्पादित ‘दलित जीवन की लघुकथाएँ’,
रूप देवगुण द्वारा सम्पादित ‘भावुक मन
की लघुकथाएँ’, सुकेश साहनी व रामेश्वर काम्बोज
‘हिमांशु’ द्वारा सम्पादित ‘बाल-मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ’,
अशोक जैन द्वारा सम्पादित ‘पारिवारिक
जीवन की लघुकथाएँ’, पारस दासोत द्वारा सम्पादित ‘मेरी
किन्नर केन्द्रित लघुकथाएँ’ तथा ‘मेरी स्त्री मनोविज्ञान की लघुकथाएँ’ आदि ऐसे ही
उल्लेखनीय प्रयास हैं।
इतिहास गवाह है कि आठवें-नौवें दशक में
पूँजीवादी अर्थ-व्यवस्था का संकट गहरा हुआ और जन-असंतोष तथा जन-आंदोलन भी तेज हुए।
फलतः अनेक मोहक और उलझाऊ नारे अर्थहीन हो गए। आर्थिक,
सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर लगातार
द्वंद्व गहरा हुआ। फलतः अतीत की व्यवस्था में एक बदलाव परिलक्षित हुआ और एक छद्म
संस्कृति भी विकसित हुई।
1971 में मानव-चरण चन्द्रमा के धरातल को
नाप चुके थे। प्रगतिशील लेखन अपने चरम पर था। आम आदमी की आकांक्षाएँ हताशाजनक
परिस्थितियों के बावजूद भी नए शिखरों की ओर गतिशील थीं। माना जाना चाहिए कि हिन्दी
लघुकथा आन्दोलन ने अपने जन्म से ही प्रगतिशील तेवरों को अपने भीतर पाया है।
वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि उसका स्वभाव है। इन्हीं सब कारणों के चलते अति आवश्यक है कि
लघुकथा के आधारभूत गुणों का अध्ययन हम वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में करें। अपने समय
से जुड़ने, जुड़े रहने और उसे कथात्मक अभिव्यक्ति
देते रहने के अपने दायित्व को समकालीन लघुकथाकार और लघुकथा-चिंतक किस त्वरण के साथ
महसूस करते हैं, इसे दर्शाने के लिए मधुदीप का यह
वक्तव्य उल्लेखनीय है कि—‘सामाजिक
परिवर्तन एवं साहित्यिक-सांस्कृतिक चेतना के विकास में लघुकथा एक महत्वपूर्ण
भूमिका अदा कर सकती है। आज जबकि कहानी और उपन्यास अपने शिल्प,
शैली और भाषा की दुरूहता के कारण आम
पाठक से कटते जा रहे हैं, वहाँ इस खाई को पाटने के लिए लघुकथा महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती
है।’ और कृष्णानन्द कृष्ण का यह कि—‘आज
आदमी जिस व्यवस्था में जी रहा है, उस व्यवस्था ने कई स्तरों पर आदमी को खंडित किया है। और वह खंड-खंड
जीने केा अभिशप्त हुआ है। इन्हीं खंडित और जटिल क्षणों को तेजाबी तेवर के साथ
प्रस्तुत करती हैं आज की लघुकथाएँ। आज की लघुकथाएँ प्राचीन काल की लघुकथाओं की तरह
न सिर्फ उपदेशात्मक और बोधात्मक कथाएँ हैं, बल्कि आज के जीवन के तमाम पक्षों को व्यापक परिदृश्य पर नये तेवर और
पैनेपन के साथ अभिव्यक्त करने में सक्रिय है।’
अमरीकी आलोचक मोना लिसा सफई ने इसकी
प्रशंसा इन शब्दों में की है—‘यह
विधा पाठक को बाँधे रखती है और साहित्य-जगत को उद्वेलित करती है क्योंकि इन कथाओं
में विविधता है और ये मानवीय सरोकारों के अत्यन्त निकट हैं। प्रत्येक रचना को पढ़ने
के लिए कुछ ही मिनट का समय चाहिए। इसकी लोकप्रियता और इंटरनेट के माध्यम से बनी
इसकी पहुँच ने इसे न केवल व्यापक पाठक-वर्ग बल्कि नये,
प्रबुद्ध लेखक भी प्रदान किए हैं।’
‘लघुकथा’ को न केवल नयी पीढ़ी के
कथाकारों की कलम की धार मिली है, बल्कि पूर्व पीढ़ी के कथाकारों ने भी इसे समकालीन कथा-विधा के
परिप्रेक्ष्य में ही अपनाया है। ‘अक्षर की आरसी’ नामक अपनी साहित्य-वार्षिकी (1995-96) में प्रकाशित रचनाओं को ‘इंडिया टुडे’
ने ‘समय के सत्य को उद्घाटित करता समकालीन लेखन’ माना है। इसमें रेखांकन योग्य बात
यह तो है ही कि इसमें ‘प्रतिकार’, ‘आत्महत्या’, ‘मुक्ति’, ‘पकड़ से बाहर एक क्षण’ तथा ‘माँ की कमर’ शीर्षक से पाँच लघुकथाओं को
भी स्थान दिया गया है, यह भी है कि इन लघुकथाओं के लेखक
वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र यादव हैं। इन रचनाओं के माध्यम से प्रकारान्तर से
‘समकालीन लघुकथा’ को ‘जुगनू यानी रोशनी के बीज’
कहा गया है।
समकालीन लघुकथा: विस्तृत फलक
विषय की एकता एवं प्रभावान्विति
(यूनिटी आफ इम्प्रेशन) लघुकथा की ऐसी विशेषता है जिसे अक्सर उसकी कमजोरी बनाकर
प्रस्तुत किया जाता है। कहा जाता है कि ‘लघुकथा में आसपास के परिवेश का चित्रण
नहीं हो सकता’ या ‘लघुकथा में चरित्र के व्यापक चित्राण की गुंजाइश नहीं होती है’
या ‘लघुकथा में मनोभावों का विस्तृत चित्रण असम्भव है’ आदि-आदि। लघुकथा के
परिप्रेक्ष्य में, ये या इस तरह के सभी वक्तव्य गलत हैं।
वास्तविकता यह है कि लघुकथा में ‘यूनिटी आफ इम्प्रेशन’ को बनाये रखने के लिए
आवश्यक है कि बहुत-सी अवांछनीय चेष्टाएँ इस रचना-विधा में न की जायँ। उदाहरण के
लिए, आसपास के परिवेश के चित्रण को लें; आलंकारिक योजना की प्रस्तुति के माध्यम से कहानी के आकार को यथासंभव
प्रभावी बनाने की दृष्टि से आचार्यों ने इसका प्रतिपादन किया होगा। परन्तु इस
शास्त्रीय गुर का प्रयोग अनेक कहानीकार रचना को बोझिल बना डालने की हद तक करके
उसकी हत्या कर डालते हैं। ‘यूनिटी आफ
इम्प्रेशन’ की बदौलत लघुकथा में परिवेश का आभास भर ही पाठक को उसके समूचेपन में
उतार देता है। यही बात लघुकथा में पात्रों के
व्यापक चरित्र-चित्रण तथा मनोभावों के विस्तृत चित्रण के संदर्भ में भी
न्यायसंगत है।
शेष आगामी अंक में…
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