मंगलवार, 31 मई 2022

लघुकथा : सृजन और चुनौतियाँ/बलराम अग्रवाल

  (दिनांक 29-5-2022 को जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के कुलपति कार्यालय परिसर स्थित वृहस्पति सभागार में कथाकार माधव नागदा को उनके लघुकथा  संचयन 'माटी की महक' के लिए अखिल राजस्थान स्तरीय आचार्य लक्ष्मीकांत जोशी साहित्य सम्मान के अवसर पर 'लघुकथा : सृजन और चुनौतियाँ' विषय पर दिया गया व्याख्यान।)

सृजन मनुष्य के जिंदा रहने का एक तरीका, एक औजार है।

भले ही पात्रों के माध्यम से अथवा जगह-जगह पर नैरेटर मे माध्यम से, कहानी और उपन्यास में वस्तुत: जितना चाहता है, लेखक बोलता है; जबकि लघुकथा में लेखक का मौन और उसका द्वंद्व बोलता है। ब्यौरों की भरमार अनजाने ही कथ्य को गौण और कथानक को मुख्य बना देती है जिससे लघुकथा की लगभग हत्या हो जाती है।

सृजन का मूल संबंध विचार से है। विचार


में सरोकार भी शामिल है। जैसे ऊर्जा—धनात्मक और ॠणात्मक—दो प्रकार की होती है वैसे ही विचार भी सकारात्मक और नकारात्मक होता है। सकारात्मक विचार सदैव सृजन की ओर, निर्माण की ओर गतिशील रहता है; और नकारात्मक विचार ध्वंस की ओर; लेकिन आवश्यक नहीं कि प्रत्येक ध्वंस को नकारात्मक विचार से ही जोड़ा जाए। कभी-कभी, कभी-कभी क्या अक्सर, निर्माण को भी ध्वंस की राह से गुजरना होता है। इसी बिंदु पर सरोकार अपनी सार्थकता प्रकट करते हैं; प्रकट भी और सिद्ध भी। सृजन के लिए आवश्यक है कि वैचारिकता के पूर्व-निर्मित ढाँचे से, उनके खंडहरों से मुक्ति पा ली जाए। माना कि बहुत-से खंडहरों का अपना महत्व होता है, अपना गौरवशाली इतिहास होता है; लेकिन  पुरातात्विक महत्व के कुछ ही खंडहर होते हैं, सब नहीं।


प्रत्येक सृजन के या तो पुरातन या फिर तात्कालिक संदर्भ होते हैं। सृजन क्योंकि विचार का अनुगमन करता है इसलिए अन्तर-आनुशासनिक संदर्भ में इन दोनों के बीच एक द्वंद्व का स्थापित होना आवश्यक है। समकालीन लघुकथा के संदर्भ में सृजन और विचार के द्वंद्व से विकसित ‘एप्रोच’ नयी रचनाशीलता को जन्म दे रही है।

मनुष्य अपने परिवेश की अनदेखी करके


साहित्य सृजन करे, यह सम्भव नहीं है। रचनाकार जिस परिवेश में रहता है और उस समूचे परिवेश की प्रेरक अथवा नीरस जिन परिस्थितियों से वह प्रभावित होता है, वे उसमें एक नया परिवेश निर्मित करती हैं और वहीं से उसके सृजन की शुरुआत होती है। सृजन और लघुकथा का संबंध ऊपरी या बाहरी नहीं है, आन्तरिक… आभ्यान्तरिक है।

प्रेमचंद हंस, अप्रैल 1932, पृष्ठ 40 ने कहा है—‘जब कोई लहर देश में उठती है तो साहित्यकार के लिए अविचलित रहना संभव नहीं होता है।’

गोपियों ने ऊधो से कहा था—ऊधो, मन न भये दस-बीस। एक हुतो, सो गयो स्याम संग।… लेकिन रचनाकार के पास एक नहीं दो मन होते हैं—एक चिंतक-मन और दूसरा सर्जक-मन। सर्जक-मन पर युग और परिवेश विभिन्न प्रकार से दबाव बनाते हैं। जो लेखक युग और परिवेश के दबावों से अछूता रहता है, वह निश्चित रूप से कृत्रिम लेखन कर रहा होता है, स्वाभाविक और स्वतन्त्र लेखन नहीं।

दृष्टि की आधुनिकता का अर्थ दृष्टि से परंपरा को विलीन कर देना नहीं है। चिंतक-मन और सर्जक-मन दोनों को तैयार करने में परंपरा की भूमिका भी उतनी ही महत्वपूर्ण होती है जितनी आधुनिकता की।

शास्त्रीयता एक अलग तरह का रूढ़-सा


शब्द हो गया है; जबकि शास्त्र अपने आप में एक व्यापक संदर्भ का आभास कराता है। वस्तुत: जीवन-उपयोगी अनेक विचारों के व्यवस्थित तथा युगानुकूल उपयोगी रूप को शास्त्र कहना चाहिए। जो शास्त्रीय व्यवस्था युग के अनुकूल उपयोगी नहीं रह पाती है, कुछेक व्यवसायियों को छोड़कर, सामान्य और प्रबुद्ध सभी जन उसको त्याग देते हैं। इसके अतिरिक्त विचारधारा किसी एक विचार अथवा सिद्धांत की ही स्थापना पर जोर देती है। यह दरअसल वह अफीम है जिसे अफीम छुड़ाने के लिए चटाया जाता है।

लघुकथा जब तक किसी एक विचार से बँधी नहीं है, तभी तक स्वतंत्र है। जैसे ही वह दक्षिण अथवा वाम में बँटेगी, स्वतंत्र नहीं रह पायेगी। कहानी और कविता के साथ ऐसा होते हम देख चुके हैं।

लघुकथा के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह स्वयं से संवाद नहीं कर पा रही। आज 50 वर्ष बाद भी संवाद के लिए वह सामने वाले का मुँह ताक रही है। जो लघुकथाएँ आत्मालोचन से गुजरकर मंच पर आई हैं, वे सर्वथा नयी लघुकथा के रूप में हमारे सामने उपस्थित हो रही हैं। विवादों से बचने की प्रवृत्ति किसी भी विधा के लिए बहुत बड़ी चुनौती हुआ करती है और स्वयं से संवाद किए बिना, आभ्यांतरिक बातचीत के रास्ते से गुजरे बिना इस चुनौती पर पार नहीं पाया जा सकता।

प्रत्येक यथार्थ के दो पक्ष हैं—बाह्य और आंतरिक। भले ही अक्सर कोई एक पक्ष महत्वपूर्ण हो जाता है; तथापि लघुकथा में ये दोनों पक्ष रहते अवश्य हैं। ये या तो संवाद की स्थिति में प्रकट होते हैं या द्वंद्व की स्थिति में। बेहतर यह है कि बाह्य और आंतरिक यथार्थ द्वंद्व की स्थिति में प्रकट हों।

अर्थतंत्र का बढ़ता प्रभाव और उपभोक्तावादी संस्कृति का विस्तार सर्जक के सामने हमेशा ही चुनौतियाँ प्रस्तुत करते रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति यानी नित नया संकट, नित नयी समस्या, नित नया आक्रोश, नित नया विस्फोट। अर्थतंत्र का बढ़ता प्रभाव यानी ईमानदार सर्जक का नयी स्थितियों से टकराव,  पैरों के नीचे नयी जमीन तलाशने की चुनौती। ऐसे में शब्द के अवमूल्यन को रोकना, नयी भाषा तैयार करना, नये मूल्य अर्जित करना ही सृजन को सार्थक सिद्ध कर सकता है। वैश्विक अर्थतंत्र के प्रभाव में आकर अर्थ का राष्ट्रीय चरित्र भी तेजी से बदलता है। उसके बदलने से बहुत-से मूल्य भी प्रभावित होते हैं। इसलिए  लघुकथाकार को यह मानकर चलना चाहिए कि सृजनकाल के प्रत्येक दूसरे दशक के अंत में विचार और भाषा के स्तर पर उसे नवीन हो जाना है।  

आलोचना यदि शास्त्र की ही पैरवी करती दिखाई दे, उसके सिद्धांतो को रूढ़ि की तरह बरते तो मेरा मत है कि वैसी शास्त्रीय आलोचना की पुनर्व्याख्या होनी चाहिए। इसका तात्पर्य शास्त्र को अलविदा कह देना नहीं है, बल्कि यह है कि उसे नये संदर्भों में समझने का साहस संजोया जाये। जीवन-मूल्यों की भी पुनरीक्षा समय-समय पर होते रहना आवश्यक है। साहित्य और उसका आलोचना-शास्त्र आँखें बंद करके पूजी जाने वाली धार्मिक पुस्तक नहीं है। दोनों को खुली आखों से देखते-परखते-बदलते रहना होता है। कोई भी ईमानदार रचनाकार शास्त्र के रूढ़ नियमों में बँधकर सृजन नहीं करता; शास्त्र को ही नवीन सृजन-संदर्भ में रचना को देखने-परखने को बाध्य होना होता है।

 लेखक को अपने युग की चुनौतियों का सामना विचार, अभिव्यक्ति और कर्मशीलता—इन तीन स्तरों पर करना होता है। इनमें से तीसरे, कर्मशीलता से सभी लेखकों का वास्ता भले ही न पड़ता हो, विचार और अभिव्यक्ति के योग को ईमानदारी से साधना चाहिए। विवेक और कहने का साहस व्यक्ति के जीवन में हमेशा ही विजयी भूमिका निभाते हैं, लेखक में तो इनका होना हर हाल में जरूरी है। औरतों और बच्चों को आगे करके सेना और पुलिस पर जो हमले कराये गये, उसके समर्थन या विरोध में कितनी लघुकथाएँ सामने आईं? नागरिकता संशोधन कानून (सी ए ए) और नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन (एन आर सी) के विरोध में 100 दिनों तक शाहीन बाग में चलने वाले धरने के समर्थन या विऑरोध में कितने लघुकथाकारों ने कलम चलाई? उन्होंने तटस्थ बने रहने में ही भलाई समझी! रिंद के रिंद रहे, हाथ से जन्नत न गई!! दिनकर जी ने तो साफ चेताया है—जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध। समय को उसकी पारदर्शिता में प्रकट करना लघुकथाकार से सामने बहुत बड़ी चुनौती है। उससे कन्नी काटना लेखन की दुनिया में नि:संदेह अपराध कहा जाना चाहिए। ‘हमें इन सब राजनीतिक मामलों से क्या लेना यार!’ ऐसी छद्म दार्शनिकता सिखाकर बड़ी चालाकी से हमें हारना सिखा दिया गया है। आभ्यांतरिक अथवा परस्पर संवाद सिर्फ वही लोग कर सकते हैं जो विषय-विशेष के विशेषज्ञ हों। अपने समय की घटनाओं, प्रति-घटनाओं के प्रति लेखक का उदासीन बने रहना समाज-विरोधी तत्वों को मजबूत होने का अवसर प्रदान करना है। सर्जन का यथार्थ यह है कि वह स्थितियों के यथार्थ को समझकर शाहीन बाग जैसी समस्याओं का सामना करता है। उनसे सीधे-सीधे टकराता है। ‘उनसे’ से तात्पर्य है—उन जैसे उन सभी मामलों से जो मानवाधिकार के खोल में आसुरी खेल खेल रहे होते हैं या फिर वे जो असुर-जैसे डील-डौल के होते हुए भी मानवीय गुणों से भरपूर होते हैं लेकिन नजरअंदाज किए जा रहे हैं। असुर को असुर और मानव को मानव चित्रित करना ही लेखकीय विवेक है जो ‘सृजन’  को जन्म देता है।

विघटनकारी समसामयिक प्रवृत्तियों को पहचानना, उनके विरुद्ध संघर्ष में उतरने का साहस करना और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों के खिलाफ विद्रोही हो उठना—ये ऐसी चुनौतियाँ हैं जिन्हें हर लघुकथाकार को स्वीकार करना चाहिए।  वस्तुत: विद्रोह और संघर्षशीलता एक प्रवृत्ति हैं जिनका लेखक में होना आवश्यक है। तटस्थता कोई मूल्य नहीं है; विद्रोह और संघर्षशीलता मूल्य हैं। अपने समय की संघर्षशीलता, परिवार, समाज, राष्ट्र और राजनीति से जुड़ी लघुकथाएँ बहुतायत में नजर आनी चाहिएँ। ऊपर से साधारण दिखने वाली अभिव्यक्तियाँ भीतर तक कचोटने और तिलमिला देने वाली सिद्ध होनी चाहिए। इस चुनौती को स्वीकार करेंगे तो लघुकथा पुन: एक नयी करवट लेगी।

लेखक सीमा पर जाकर लड़ नहीं सकता लेकिन अपनी सीमाओं और संकोचों से उसे अवश्य लड़ना चाहिए। गलत के नकार और उसके खिलाफ विद्रोह की प्रवृत्ति उसमें बनी रहनी चाहिए। यह प्रवृत्ति ही उसे भाषा के उस मोर्चे पर ले जाती है जहाँ मूल्यों की रक्षा के लिए अनगिनत लड़ाके डटे हुए हैं। इसी मोर्चे पर उसकी पहचान प्रचलित और चालू ढंग के प्रतीकों, बिम्बों और मुहावरों से होती है और इसी मोर्चे पर वह लड़ने के नये हथियार भी ईजाद करता है। यही वह मोर्चा है जहाँ रथी रावण पर विरथ रघुवीर विजय पाते हैं। यही वह मोर्चा है, जहाँ लड़ाकों की जीत ही जीत है। यही वह मोर्चा है जहाँ सृजन की नयी नींव रखी जाती है।

आज की भौतिकवादी व्यवस्था में तरक्की और संघर्ष के अर्थ बहुत सिकुड़-से गये हैं। इस संकुचन से बाहर निकलने को लेखक लगातार हाथ-पैर मार रहा है; लेकिन परिस्थितियाँ इतनी अधिक विकट हैं कि उबरने और धँसने का उसका अनुपात अक्सर बिगड़ा हुआ मिलता है।

नरेन्द्र मोहन की एक कविता है—हँसते-हँसते। देखिए :

सन्नाटा तानाशाही की जान है

और हँसी सन्नाटे के सीने में धँसता हुआ तीर।

हँसते-हँसते जान ले लोगे क्या!

संवेदनात्मक तनाव की मनोदशा को विचार और बिंब से संतुलित रखने के कौशल से युक्त बलराम अग्रवाल की लघुकथा ‘चश्मदीद’ देखिए—

“कत्ल के समय तुम कहाँ थे?”

“वहीं था।”

“वहीं! मतलब कत्ल की जगह?”

“जी।”

“तुमने क्या देखा?”

“वह छुरा लेकर आया और फच्च-से मेरे सीने में भोंक दिया!”

“फिर?”

“उसकी इस हरकत पर मुझे हँसी आ गयी और अगले ही पल…!”

“डरो मत। क्या हुआ अगले ही पल खुलकर बताओ।”

“हुजूर, अगले ही पल वह जमीन पर गिर पड़ा। कुछ देर तड़पा और ठंडा पड़ गया! सच कहता हूँ हुजूर, मैं तो सिर्फ हँसा था।”

उदाहरण के लिए अपनी ही लघुकथा उठाने ले लिए क्षमाप्रार्थी हूँ। इस लघुकथा में ब्यौरों की भरमार नहीं हैं, विचार और बिंब हैं, संवेदनात्मक तनाव है। विचार और बिंब को, रूपक, संकेत और अन्योक्ति को समकालीन लघुकथा की रीढ़ कहा जा सकता है। ब्यौरों के विस्तार से लघुकथा का कला-पक्ष आहत होता है और सामान्य रचनाओं की भीड़-भाड़ में उसके खो जाने का खतरा बढ़ जाता है। साधारणीकृत विचार, संतुलित प्रतीक और बिंब तथा अनुशासित ब्यौरों के प्रयोग से कथाकार एक बेहतर लघुकथा रच सकता है।

एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032

मोबाइल : 8826499115

7 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

सर्वप्रथम तो, आपके द्वारा वर्तमान समय में लघुकथा के समक्ष मुँहबाये खड़ी चुनौतियों को सारगर्भित रूप में प्रस्तुत करने के लिए और हम जैसे लघुकथा के विद्यार्थियों को, 'राह-नसीहत-दिशा और आह्वान देने के लिए' आपका हार्दिक आभार और धन्यवाद प्रकट करता हूँ। निजी तौर पर मुझे आपके इस संग्रहणीय लेख से निश्चित रूप से पढ़ते ही फ़ायदा हुआ है, दूसरे आपके द्वारा बताए सुझावों पर जब कोई लघुकथा का सर्जन मुझसे होगा तो उसे इन निकषों पर आँकने का प्रयास करूँगा।
पुनः आपका हृदय से आभार-धन्यवाद।

Unknown ने कहा…

सर्वप्रथम तो, आपके द्वारा वर्तमान समय में लघुकथा के समक्ष मुँहबाये खड़ी चुनौतियों को सारगर्भित रूप में प्रस्तुत करने के लिए और हम जैसे लघुकथा के विद्यार्थियों को, 'राह-नसीहत-दिशा और आह्वान देने के लिए' आपका हार्दिक आभार और धन्यवाद प्रकट करता हूँ। निजी तौर पर मुझे आपके इस संग्रहणीय लेख से निश्चित रूप से पढ़ते ही फ़ायदा हुआ है, दूसरे आपके द्वारा बताए सुझावों पर जब कोई लघुकथा का सर्जन मुझसे होगा तो उसे इन निकषों पर आँकने का प्रयास करूँगा।
पुनः आपका हृदय से आभार-धन्यवाद।

नेतराम भारती

बेनामी ने कहा…

बहुत सारगर्भित, वैचारिक - मंथन का आलेख ।जो वस्तु - स्थिति की गहराई से पड़ताल कर और चिंतन कर रहा है । "चश्मदीद" लघुकथा श्रेष्ठ उदाहरण है । इस तेवर का आलेख और बलराम भाई (अग्रवाल ) ही लिख सकते हैं । मार्गदर्शन और खुद का आत्म -विशलेषण करने के लिये उसका/जगा रहा है
बधाई ।

Unknown ने कहा…

अच्‍छा विमर्श।

राजेश उत्‍साही ने कहा…

अच्‍छा‍ विमर्श ।

बेनामी ने कहा…

बहुत सुंदर, सार्थक आलेख

कुसुम पारीक ने कहा…

बहुत ही सारगर्भित और सामयिक आलेख, सच है तटस्थ रहे तो समय उनके अपराध निर्धारित करेगा।

आप द्वारा उदधृत ,"विघटनकारी समसामयिक प्रवृत्तियों को पहचानना, उनके विरुद्ध संघर्ष में उतरने का साहस करना और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों के खिलाफ विद्रोही हो उठना—ये ऐसी चुनौतियाँ हैं जिन्हें हर लघुकथाकार को स्वीकार करना चाहिए।