बेतरतीब पन्ने-16
होली का आगमन वसंत पंचमी के दिन से मान लिया जाता था। उस दिन कुल्हाड़ी और बाँक (लकड़ियाँ फाड़ने का घरेलू औजार) लेकर हम लोग जंगल की ओर निकलते थे। बाबा राजराजेश्वर महादेव मन्दिर की सीढ़ियों के आगे वाली खुली जगह पर उन्हें ला रखते थे। बुजुर्गों की ओर से यद्यपि निर्देश यह होता था कि सिर्फ सूखे दरख्त लाए जाएँ, हरी डाल कोई न काटी जाए; बावजूद इसके हमें हरी डालें काटकर लानी पड़ती थीं। कारण यह कि सूखे पेड़ों पर या तो हमसे पहले ही पहुँच चुके दल या हमसे मजबूत दल काबिज हो चुके होते थे। भारी-भरकम हरे तनों की हैसियत हमारे सामने पराजित योद्धा जैसी होती थी और उन्हें हम ऐसे लाते थे जैसे विजयी होकर पराजितों को टाँग से पकड़कर घसीटते हुए ला रहे हों।
सुबह के गये हम लोग दोपहर बाद तक लौट पाते थे। हरे तनों को लाकर परम्परा से चली आ रही, होलिका जलने वाली नियत जगह पर रख दिया जाता था। उसके बाद अपने-अपने घरों की ओर रुख। घर पर फिर यह गत होती थी कि ‘होलिका’ लाने-सजाने का सारा उत्साह समाप्त हो जाता था।
और शाम को, अपने-अपने दफ्तरों, दुकानों, विद्यालयों से मुक्त पिता-लोग होलिका में सूखे तनों की बजाय जब हरे तनों को रखा देखते थे, तब किसी को भी साफ-साफ यह पता नहीं चलता था कि उन्हें लाने में किस-किस ने पसीना बहाया था। हालाँकि अनुमान तो सभी होता था; लेकिन साफ-साफ पता नहीं चल पाता था। पता चल पाता तो खून के आँसू रुलाना तय था।
और उसी दिन से शुरू होता था—बच्चों द्वारा ‘होली का चंदा इकट्ठा करना’। इसके लिए मछली पकड़ने वाले कांटे की मदद ली जाती थी।
चौक बाजार में पुराने कांग्रेस कार्यालय के पास थी—मुसद्दी लाला की दुकान। मांझा, हुचका, पतंग आदि के तो शहर में वह जैसे थोक-विक्रेता ही थे। मछली पकड़ने का कांटा भी उन्हीं की दुकान पर मिलता था। उस कांटे को थागे में बाँधकर एक लड़का किसी ऊँचे मकान की छत पर बैठता था। गली के आरपार गुजर रही बिजली के तारों की लाइन के ऊपर से उस काँटे को नीचे लट दिया जाता था। दो-तीन लड़के उस कांटे को पकड़कर नीचे, किसी चबूतरे पर या किसी मकान के दरवाजे की आड़ में छिपते थे।
उन दिनों अधिकतर लोग गांधी टोपी पहनकर चलते थे। छिपे हुए लड़कों को इंतजार रहता था, किसी टोपीधारी के गली से गुजरने का। जैसे ही कोई नजर आता, सब के सब चौकन्ने हो जाते। उस व्यक्ति के अपनी रेंज में आते ही कांटे वाला लड़का पीछे से उसकी टोपी में कांटा रख देता था और जाकर छिप जाता था। उसके छिपते ही धागा ऊपर को खींचना शुरू। इसके साथ ही उस सज्जन पुरुष की टोपी हवा में झूल जाती थी। उसका हकबका जाना तय था। फिर नीचे, गली में इधर-उधर छिपे लड़के बाहर निकलते थे—“ताऊ (या बाबा, चाचा)! बुरा न मानो होली है!”
वह हैरान-परेशान-क्रोधित।
“होली का चंदा ताऊ!” लड़के दूरी बरतते हुए हाथ पसारते।
समझदार, खुश-मिजाज और बाल-बच्चों वाले, पर्व का आनंद लेने वाले लोग इसे उन विशेष दिनों की सामान्य घटना मानकर जेब से निकाल, एक पैसा चंदा पकड़ा देते थे। कुछ इसे ‘टोपी उछलने’ के अर्थ में ग्रहण कर बहुत क्रोधित हो, गाली-गलौज करते थे। गाली-गलौज करने वालों में कुछ चंदा देकर टोपी छुड़ा ले जाते थे और कुछ टोपी की चिंता छोड़, गाली-गलौज देते हुए आगे बढ़ जाते थे।ऐसे लोगों को हममें से कोई एक बहुत-आगे पहुँच जाने पर उसकी टोपी पकड़ा आता था; और डरा हुआ वह बेचारा टोपी को अपने सिर की बजाय जेब के हवाले करके आगे का रास्ता नापता था।
यही कारण था कि लोग उन दिनों होली के पर्व से कुछ दिन पूर्व ही कामचलाऊ ऐसे कपड़े पहनकर घर से निकलना शुरू कर देते थे, ठप्पा आदि लग जाने के कारण जिनके खराब होने की चिंता में अधिक सूखना-सोचना न पड़े। रंग वाली होली से हफ्तों पहले ही बच्चे घर की छतों पर चढ़कर राहगीरों पर रंग फेकना शुरू कर देते थे। यहाँ भी टोपी ऊपर खींचने जैसा ही माहौल बनता था। कई ऐसे लोग, जो किसी काम से कहीं जा रहे होते, रंग पड़ने पर खासे नाराज होते थे।
राहगीर और बच्चों के आभिभावकों के बीच परस्पर झगड़े भी हो जाया करते थे। जैसे-जैसे लोगों को यह अहसास हुआ कि किसी काम से निकले राहगीर पर रंग डालकर उसके कपड़े खराब कर डालना सभ्य समाज की निशानी नहीं है, उन्होंने बच्चों को रोकना शुरू कर दिया। समय के साथ-साथ टोपी पहनने के चलन में कमी आयी तो मुसद्दी लाला की दुकान पर मछली पकड़ने के कांटे की बिक्री भी बंद हुई।
जैसे-जैसे हम सभ्य हुए, वैसे-वैसे आलू को काटकर कशीदा बनाने की कला का भी खात्मा होता गया।
17-3-2022 / 16:00 (चित्र साभार)
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