गुरुवार, 9 मार्च 2023

समकालीन लघुकथा : जन-संघर्ष और तज्जनित अनुभवों को आवाज़ में तब्दील करने का कारगर औजार / बलराम अग्रवाल

                                                                                                 

शास्त्र-ज्ञान और रचनात्मकता 

लघुकथा-रचना के सिद्धान्तों को बताने वाली अनेक आलोचकों

की पुस्तकें अब तक प्रकाश में आ चुकी हैं। न समीक्षा लेखों और पुस्तकों की आवक के बाद सवाल यह पैदा होता  है  कि  यदि कोई नव-लघुकथाकार इन सिद्धान्तों का अनुगमन  करे तो उसकी रचना की स्थिति क्या  हो  सकती है? लघुकथा-रचना पर केन्द्रित विचार आठवें दशक के प्रारम्भिक वर्षों से ही विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के  लघुकथा विशेषांकों तथा लघुकथा-बहुल अंकों में उस समय के लघुकथा उन्नायकों द्वारा प्रस्तुत किये जाते रहे हैं। उनमें शशि कमलेश, त्रिलोकीनाथ ब्रजवाल, भगवान प्रियभाषी, कृष्ण कमलेश का नाम प्रमुखता से लिया जा सकताहै। प्राय:रचना-पद्धति की प्रकृति के आधार पर सिद्धान्ततः अनुमित अथवा विभिन्न श्रेष्ठ कृतिकारों द्वारा व्यवहृत  और परीक्षित सिद्धान्तों को ही समीक्षा-शास्त्र में स्वीकार किया जाता है।इसलिये जिन लघुकथाओं में उक्त सिद्धांतों की अवहेलना किसी भी रूप में हुई होती है, उन्हें किसी  किसी अर्थ में दोषपूर्ण मान लिया जाने की प्रवृत्ति भी सामने आती रही है यहाँ सवाल यह जरूर पैदा होता है कि क्या कोई थाकार सिद्धांत-ग्रन्थों को पढ़कर कलम उठाता है? जवाब है--नहीं, ऐसा नहीं होता। केवल शास्त्र-ज्ञान के बल पर कोई भी व्यक्ति उत्तम कोटि का लघुकथाकार नहीं बन सकता। बावजूद इसके कि शास्त्र-ज्ञान रचना को बेहतर बनाने की दिशा में सहायक सिद्ध होता है; लघुकथाकार का निरन्तर अध्ययनशील रहना तथा अभ्यास में बने रहना आवश्यक है। इसी सिद्धान्त का अनुगमन करते हुए आठवें दशक के लघुकथाकारों ने अपने काल की लघुकथाओं के अध्ययन के माध्यम से इस नवीन कथा-विधा के सिद्धान्तों को आकार देना प्रारम्भ किया। कोई रचनाकार या तो अपनी साधना  और  व्यावहारिक परीक्षा के माध्यम से ऊँचाई पकड़ता है या फिर अपने अध्ययन के बल पर। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि निर्माणकारिणी  शक्ति  और  समीक्षाशास्त्र के सिद्धान्तों के मध्य परस्पर यह एक सम्बन्ध है जिसका निरन्तर पनपते रहना आवश्यक है।

यह लेख यद्यपि लघुकथा को केन्द्र में रखकर लिखा जा रहा है तथापि साहित्य  की  किसी  अन्य रचनात्मक विधा पर भी यह ज्यों का त्यों लागू हो सकता है।  लघुकथा  के जिन  तत्वों  की  मीमांसा डॉ॰ अशोक भाटिया, भगीरथ परिहार, डॉ॰ कमल चोपड़ा, सुकेश साहनी, डॉ॰ सत्यवीर मानव, डॉ॰ रामकुमार घोटड़, प्रो॰ रूप देवगुण, माधव नागदा, सुभाष रस्तोगी, सतीशराज पुष्करणा, मधुदीप आदि अनेक चिंतक-विचारक पुस्तक रूप में अब तक कर चुके है, इनके अलावा ऑनलाइन अथवा छिटपुट लेखों-सम्पादकीयों के रूप में भी अनगिनत लोग कर रहे हैं, के आधार  पर अथवा अपने अध्ययन  की विशदता के आधार  पर  अध्येता यह समझ सकता है कि किसी लघुकथा में दोष क्या है और नवीनता क्या है? किसी भी रचना में दोष या तो रचना-पद्धति से सम्बद्ध होगा या फिर मेकित प्रभाव की दृष्टि से होगा ।  कारण जो  भी हो, यदि लघुकथा को पढ़ते-सुनते हुए पाठक में उसके प्रति जिज्ञासा उत्पन्न न हो, किसी प्रकार का रस उसे  मिल के तो कथाकार का सारा श्रम निरर्थक सिद्ध हो जाता है। 

भोथरे कथानक और इतिवृत्तात्मक घटनाएँ

प्रत्येक कथा रचना का प्रमुख अवयव उसका कथानक होता है। यद्यपि गत वर्षों में प्रयोग-विशेष के अन्तर्गत कथानकविहीन कथा-रचनाएँ भी सामने आती रही हैं; परन्तु वे सब उच्च विद्वता का अलंकरण पाए वर्ग-विशेष की सीमा से बाहर अपना स्थान बनाने में असफल रही हैं। किसी भी कथा-रचना के दोषों अथवा गुणों का विचार करने के क्रम में सबसे पहले ध्यान कथानक पर जाता है। लघुकथा में भी सूक्ष्म ही सही, कथानक का होना आवश्यक है। लेकिन ध्यान रखने की बात यह है कि जिन कथानकों से पाठक अनेक बार गुजर चुका हो, उन्हें पढ़ने-जानने की रुचि उसमें भला क्यों होगी? दैनिक जीवन की सामान्य इतिवृत्तात्म घटनाओं को जानने में भी उसकी रुचि भला क्यों होगी? कथाकार जब तक घटना के किसी अंश-विशेष को कथा नहीं बनाएगा, पाठक की रुचि को जाग्रत करने का कौशल स्वयं में उत्पन्न नहीं रेगा, उस उद्देश्य की प्राप्ति से वंचित रहेगा जिसके लिए साहित्य रचा जाता है यह आस्था और विश्वास का नहीं, वैज्ञानिक सोच का युग है, इसलिए तर्क और बुद्धि की कसौटी पर खरा न उतरने वाला कथानक अथवा उसका एक अंश भी दोषपूर्ण ही माना जायगा। कथाकार जहाँ कहीं भी पात्र की स्थिति और उसके संवाद में सामन्जस्य नहीं बैठाएगा;  परिस्थिति  और  घटनाक्रम का मेल नहीं बैठाएगा; कारण, कार्य  और  परिणाम  में  क्रमगत संगति  हीं  बैठाएगा, लघुकथा को पद्धति-विषयक दोष से मुक्त नहीं रख पायेगा इसके  लावा  कथानक  के भीतर आनेवाले अन्य कथांशों की कड़ियाँ यदि ठीक से व्यवस्थित  हो सकीं तो रचना न तो लघुकथा ही बन पाएगी न कहानी रह पाएगी।

अनेक लघुकथाओं में कथानक का अनावश्यक विस्तार देखने को मिलता है। अनेक में कुछेक शब्दों का तो अनेक में कुछे भावों का दोहराव यानी ऊपरी पैरा में कही बात अथवा शब्द ज्यों के त्यों नीचे भी दोहरा दिए जाते हैं। कथाकार का यह कृत्य पाठक में ऊब उत्पन्न करता है। कथानक का क्षिप्र गति से समापन की ओर बढ़ना लघुकथा का विशिष्ट गुण है। जिन कथानकों में गति की क्षिप्रता का निर्वाह नहीं किया जाता वे थकी-हारी कहानी तो कहे जा सकते हैं, लघुकथा नहीं। सोचिए, कोई रचना अगर बार-बार एक ही बिन्दु से गुजरती रहेगी तो उसे लघुकथा कौन स्वीकार करेगा? क्योंकि तीव्र गति से चलकर पाठक के मनो-मस्तिष्क को उलझाती हुई परिस्थितियाँ किसी परिणाम तक पहुँच नहीं पाएँगी, यह तय है से में, कथा कथा न रहकर कथा का कैरीकैचर बन जाती है। इधर कुछ लघुकथाओं में विचार-पक्ष की अधिकता देखने को मिलने लगी है जबकि हमें नहीं भूलना चाहिए कि लघुकथा कथा-साहित्य की विधा है, दर्शन अथवा कथेतर साहित्य की नहीं। पाठक लघुकथा पढ़ता है कथा के माध्यम से अपने मूल्यगत दायित्वों को पहचानने और अपनी रुचियों का परिष्कार करने के लिए; न कि विद्वता प्राप्त करने हेतु किसी रूखे और रसहीन विषय के जंगल में भटकने ने लिए। इसलिए लघुकथा में कथा-तत्व का रुचिकर सौन्दर्य और सौष्ठव  हर हाल में अभीप्सित है 

वस्तु-चयन और प्रस्तुति कौशल

लघुकथा का विषय और वस्तु पाठक की अनुमान-सीमा के भीतर होनी चाहिए ऊँची कल्पना और अत्यधिक भावुकता पर आधारित पात्रों, परिस्थितियों, घटनाओं और स्थानों का चित्रण सामान्य स्तर के पाठकों की अभिरुचि का कारण नहीं बन पाते। अतीत के लम्बे अंतराल से वस्तु संग्रहीत करने वाले उच्च कोटि के कथानक भी सामान्य पाठक के लिए स्वीकार्य हो सकते हैं बशर्ते उन्हें आज के समय से कुशलतापूर्वक जोड़कर रुचिकर रूपक बना दिया गया हो उच्च कोटि का सहृदय भी ऐसे कथानकों के रस का स्वादन कर सकता है  साधारण जन च्च कल्पना प्रभूत ऐकांतिक वातावरण का अनुमान-गम्य अनुभव आसानी से नहीं कर सकते; लेकिन ऐसा नहीं मानना चाहिए कि वे कर ही नहीं सकते, तथापि सुदूर अतीत के और उच्च कल्पना प्रसूत कथानकों से लघुकथाकार का सामान्यत: बचना ही श्रेयस्कर है। रचना तत्व सम्बन्धी ऐसे दोष पात्रों के चरित्र और संवादों में भी हो सकते हैं। पात्रों की स्वरूप निर्मिति अथवा उनकी कल्पना यदि अनुमानित ज्ञान और अनुभव के अनुरूप नहीं होगी तो पाठक के गले वे नहीं उतरेंगे समकालीन लघुकथा के केन्द्र में मनुष्य है और मनुष्य गोचर-अगोचर इस समूची प्रकृति का केन्द्र है। जगत के सारे कार्य-व्यवहार येन-केन-प्रकारेण मनुष्य से जुड़े हैं। इसलिए मानव के साथ-साथ मूर्त-अमूर्त समूची मानवेतर सृष्टि लघुकथा में स्थान पाने की अधिकारी है। सभी स्तरों के पात्रों को जीवन  जगत् में यथार्थ चेतन प्राणी की तरह चरण और व्यवहार करते दिखाया जाना चाहिए अन्यथा नकी यथार्थता विश्वसनीय नहीं हो सकेगी। संवाद यदि अनावश्यक रूप से पांडित्य-पूर्ण  हुए  उनकी शैली वस्तुस्थिति के अनुरूप  हो की तो सामान्य पाठक भी ऐसी रचना को दोषपूर्ण ही मानेगा संवादों का गठन पात्र के ही नहीं, पाठक के भी बौद्धिक और सांस्कृतिक गठन के अनुरूप यानी मानवीय धरातल पर स्थित होना आवश्यक है। यह नहीं भूलना चाहिए कि रचना को रुचिकर बनाए रखने के मद्देनजर लघुकथा में वातावरण की निर्मिति नैरेशन द्वारा न करके संवादों द्वारा ही सांकेतिक रूप से भी सम्पन्न कर दी जाती है।

संवाद और विवरणात्मकता 

समीक्षकों और आलोचकों के संज्ञान में ऐसे अनेक लघुकथा संग्रह आते हैं जिनमें लगभग समूची लघुकथा को कथाकार अपनी ओर से लिख डालता है, पात्र को लेशमात्र भी आगे नहीं आने देता। इसे लघुकथाकार का मोहाविष्ट रहना कह सकते हैं। मोहाविष्ट कथाकार संवाद प्रस्तुति का दायित्व भी सम्बन्धित पात्रों को न सौंपकर स्वयं ही सम्पन्न करता है जिसके कारण कथा का वह रूप, वह सौंदर्य और वह प्रभाव उभरकर नहीं आ पाता जिसकी वह अधिकारी होती है और जोकि वस्तुत: उभरकर आना चाहिए। वर्णनात्मक अंशों की अधिकता लघुकथा में विषय-प्रस्तुति की सजीवता को आहत करती है र्णनात्मता को लघुकथा में साधन रूप ही अपनाना चाहिए, साध्य रूप नहीं। वर्णनात्मकता कथानक-विस्तार में ही अधिक योग देती है न कि वस्तु-प्रकटीकरण अथवा रुचि-संवर्द्धन में। वर्णन  यदि आवश्यकता से अधिक  हु तो पाठक  के  चित्त  में ऊब पैदा कर सकता हैकोई भी कथा ऊब पैदा करने के लिए नहीं लिखी अथवा कही जाती, इसलिए पाठक में ऊब उत्पन्न करने वाले किसी भी कारक की प्रयुक्ति से रचनाकार को बचना चाहिए। वर्णन की अधिकता कथावस्तु की प्रस्तुति के तात्पर्य को धूमिल करती है ऐसा नहीं कि मात्र लघुकथा ही है जिसमें वर्णनात्मकता की अधिकता रचना के प्रभाव का हनन करती है, कहानी और उपन्यास में भी यह देखने में आता है। प्रेमचन्द और प्रसाद से लेकर आधुनिक युग के भी अनेक कहानीकारों की कहानियाँ इस दोष से ग्रसित पायी जाती हैं। वस्तुत: कहानियों में अनावश्यक वर्णन-विस्तार ने भी आठवें दशक के कथाकारों को लघुकथा-लेखन की ओर प्रवृत्त किया था। वर्णनात्मक  अंशों  की अधिकता रचना की वांछित काया के अतिक्रमण का कारण बनती है जो सुधी आलोचक को ही नहीं,  सामान्य पाठक को भी अखरती है। वर्णनात्मक अंशों की कमी कथा रचनाओं  में  प्रभाव  की समष्टि को घनीभूत करती है। वर्णन और संवाद, कुल मिलाकर सामन्जस्य की अपेक्षा कथाकार से करते हैं। लघुकथा की भाषा में काव्य-गुणों को प्रश्रय देने की बात प्राय: स्वीकार की जाती है; लेकिन उसमें भी यदि काव्य-तत्व ही  प्रबल हो उठे तो रचना कथा   होकर गद्य-काव्य की श्रेणी में जा सकती है। ऐसी रचनाएँ शैली की भिन्नरूपता के मद्देनजर भले ही स्वीकार कर ली जाएँ, घुकथा के रूप में उनकी सर्वग्राह्यता संदेहास्पद हो सकती है। लघुकथा में तथ्य-प्रतिपादन  इतने  काव्यात्मक  ढंग  से हुआ हो कि था-तत्व ही बाधित प्रतीत होता रहे 

संवेदनात्मक चुभन

रचना-विधान सम्बन्धी कुछेक उपर्युक्त दोषों  के लावा समकालीन  लघुकथा  में  मुख्य:  दो बातें और देखने में आ रही हैपहली, संवेदनात्मक चुभन की कमी और दूसरी, बौद्धिकता  का अतिरेक जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, लघुकथा क्षिप्र गति से अपने समापन की ओर बढ़ती है। तात्पर्य यह कि प्रतिपाद्य तक पहुँचने की उसकी गति इतनी तीव्र  होती  है  कि  उसमें  एक नुकीलापन पैदा हो जाता है। इस नुकीलेपन को ही कुछेक मित्र लघुकथा का सर्वस्व मानकर कहने लगे हैं कि लघुकथा का अन्त नुकीला होना चाहिए। हम जानते हैं कि सिर्फ नोंक को पेंसिल कभी नहीं कहा जाता। पहले पेंसिल प्राप्त की जाती है; आवश्यकतानुसार, नोंकदार उसे बाद में बनाया जाता है। अपने अनुभव से हम यह भी जानते हैं कि पेंसिल एकाएक नुकीली नहीं होती। कुछ ऊँचाई से शंक्वाकार छीलते हुए उसे शनै: शनै: नुकीला बनाया जाता है। कुल मिलाकर यह कि लघुकथा का नुकीलापन भी एक कला है और कुशल प्रक्रिया के तहत आकार पाता है, अन्तिम पायदान पर पहुँचकर एकाएक नहीं। अधिक नुकीला बनाने के ताव के परिणामस्वरूप आवश्यकता से अधिक छील दिए जाने पर नोंक टूट भी जाती है और उसके टूटने की निरन्तरता पेंसिल को भी अन्तत: समाप्त कर देती है, यह भी अनेक बार के अपने अनुभव से हम जानते हैं। इ तथ्यों को जाने-समझे बिना कोई भी आलोचक नुकीला होने की लघुकथा की प्रक्रिया के साथ न्याय नहीं कर सकता। प्रक्रिया ही है जिसके कारण लघुकथा से  ध्वनित  होने वाली  संवेदना नुकीली हो उठती है। उस नुकीलेपन का, नुकीलेपन की उस चुभन का अनुभव  पाठक  जितना धिक करेगा, रचना उतनी ही अधिक सफल मानी जाएगी। कहने का तात्पर्य  यह कि  लघुकथा के माध्यम से यदि चित्त आंदोलित नहीं होता, बुद्धि सुसंस्कृ नहीं होती तो लघुकथा-लेखन का हेतु भी समाप्त समझना चाहिए इसलिए लघुकथाकार को चाहिए कि वह रुचिरता को अक्षुण्ण रखते हुए  विषय को शनै: शनै: नुकीला बनाते हुए इस प्रकार आगे बढ़े कि पाठक का चित्त बिंध-सा जाय।

जन-संघर्ष और तज्जनित अनुभव  

लघुकथा का उद्देश्य  लक्ष्य जीवनानुभवों को ऐसी रुचिर शैली में सामने लाना है जो सरलता से चित्त को प्रभावित कर सके  तात्पर्य यह कि लघुकथा के विषय को विद्वता के साथ नहीं, सामान्य रूप में उपस्थित ना चाहिए। जटिल और विशिष्ट ज्ञान के बूते पर खड़े किए गये दूर-दराज के विषय लघुकथा में न उठाए जाएँ तो अच्छा। इस तथ्य पर यदि ध्यान नहीं दिया गया तो लघुकथा जन-साहित्य की अपनी पहचान को वैसे ही खो बैठेगी जैसे प्रेमचंद परवर्ती कहानी ने अनेक आन्दोलनों के बावजूद खो दी है। समकालीन लघुकथा साहित्य में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिनमें रचना का आकार लघु होने के बावजूद कथा की गति अत्यन्त घुमावदार है ऐसी लघुकथाओं को पाठक  तक ग्रहण नहीं कर पाता जब तक वह वाद-विशेष के, दर्शन के, मनोविज्ञान के कुछ साधारण और कुछ शास्त्रीय सिद्धान्तों को नहीं जान लेता। 

ऐसी रचनाएँ दुरूह शैली में लिखा शास्त्रीय ज्ञान अधिक और कथा कम मानी जाती हैं लघुकथा को यदि सही अर्थों में गति प्रदान करनी है तो सूक्ष्म बौद्धिकता को उसमें र्ज्य मानना होगा जैन और बौद्ध आदि कालों में लघुकथा किसी सिद्धान्त अथवा तथ्य-विशेष का प्रतिपादन करने वाली रचना अवश्य रही है; लेकिन समकालीन लघुकथा सामान्य जन-जीवन की अनेक त्रासदियों की ही नहीं, जन-संघर्षों और तज्जनित अनुभवों को विस्तारित करने, उन्हें आवाज में तब्दील करने का कारगर औजार भी है।  (लघुकथा डॉट कॉम : मार्च 2023) (मुक्तांचल, लघुकथा विशेषांक : अप्रैल-जून 2023)

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

आदरणीय डॉ बलराम अग्रवाल जी के सभी आलेख लघुकथा हितचिंतक और उसके भविष्य हेतु होते हैं। उन्हे बहुत बहुत बधाई और आभार।

बेनामी ने कहा…

बिना कथानक कैसी कथा या लघु कथा? जब कथानक ही नहीं होगी तब कथ्य क्या होगा? और जब कहने के लिए ही कुछ नहीं है तब क्या कहा जाएगा...

बहुत ही सुंदर मार्गदर्शक सिद्धांत।

आपका और आपके इस लेख का बहुत-बहुत अभिनंदन !

रामनाथ साहू
छत्तीसगढ़