मंगलवार, 28 मई 2024

लघुकथा में लोक-तत्त्व, भाग-1 / बलराम अग्रवाल

 

लोक-वार्ता, लोक-साहित्य, लोक-जीवन, लोक-तत्व…कुल मिलाकर लोक हमारे संस्कार में समाया हुआ है। लोक और साहित्य का सम्बन्ध अटूट है। साहित्य कभी भी लोकजीवन की उपेक्षा नहीं कर सकता। यदि वह उपेक्षा करता है तो जीवित नहीं रहता, मर जाता है। उसका क्षेत्र संकुचित हो जाता है। वह सामाजिक विकास का साधन नहीं बन पाता; बल्कि सामाजिक पतन का कारण बन जाता है। साहित्य का प्रमुख उद्देश्य—‘लोक की सेवा’ नष्ट हो जाता है। यही कारण है कि अपने युग में कोई भी साहित्यकार जनवर्ग की उपेक्षा नहीं कर पाते। वह जनवर्ग के बीच रहकर जनता के लिए ही अपनी साहित्य रचना करते हैं। उनका क्षेत्र किसी वर्ग-विशेष तक सीमित नहीं रहता। वह जनता के लिए लिखते हैं और इसीलिए जनता उनके लेखन में रस लेती है।

लघुकथा की बात करें तो भारतेंदु हरिश्चन्द्र अपने युग की एक महान विभूति थे। वे दूरदर्शी थे। वे लोक भाषा और लोक साहित्य का महत्व समझते थे इसीलिए उन्होंने लोक भाषा तथा लोक साहित्य का महत्व समझते हुए साहित्य और भाषा को तदनुरूप स्वरूप दिया। भारतेन्दु ने कथा लेखन को नई विचार धारा की ओर प्रवृत्त करने का यत्न किया। नए विषय और नई भावभूमि दी। सोचने की नई पद्धति दी। इसका प्रमाण यह है कि भारतेन्दु युगीन कवियों ने कविता को नए विषय दिए और अलंकारों के बोझ से उसे मुक्त किया। मध्ययुगीन कृत्रिमता को छोड़कर वह स्वाभाविकता के पथ पर अग्रसर हो चली। भारतेन्दु द्वारा सदियों बाद ऐसी कथा की रचना हुई जिसकी परिधि केवल नायक और नायिका की लीलाओं तक सीमित न रहकर मानव जाति के कुछ दारिद्रय, प्रेम, सहयोग, सहानुभूति और प्रतिरोध तक पहुँच गई। यथार्थ मानवीय जीवन का रूप प्रस्तुत करने में भारतेन्दु पूर्णतया सक्षम हैं। यही कारण है कि जहाँ पहले कथा का विषय सीमित रह गया था, वहीं अब अपने जातीय गौरव के भाव उसमें आने लगे । तुलसी और कबीर यह अच्छी तरह जानते थे कि जनता तक सन्देश लोकभाषा में ही पहुँचाये जा सकते हैं। तुलसी, कबीर, सूर आदि को आदर्श मानते हुए भारतेन्दु ने भी अपने पूर्ववर्ती कवियों की लोकभाषा नीति का अनुसरण किया। साहित्य की दुनिया में लोक का अर्थ है—सामान्य जन। लोग शब्द इसी का बिगड़ा हुआ रूप है।

भारतीय साहित्य में परम्परा से 'लोक' और 'वेद' का कुछ भेद पता चलता है। लोक-परिपाटी और वेद-परिपाटी जैसे दो पृथक परिपाटियाँ प्रचलित हों । लोक-वेद का पुराने काल से चले आने वाला अन्तर बताता था कि जो वेद में स्पष्टतः नहीं है, वह यदि लोक में हो, अथवा जो वेद में है उसके अलावा और भी कुछ यदि लोक में हो तो वह ‘लौकिक’ है । ‘लोक’ अथवा ‘लौकिक’ शब्द साहित्य में किसी अवहेलना अथवा उपेक्षा के ‘भाव’ के द्योतक नहीं थे। किंतु लोक-साहित्य का ‘लोक’ वेद से इस अलगाव को प्रकट करता हुआ भी उस अर्थ को प्रकट नहीं करता जो वह लोक-साहित्य में करता है। वहाँ वैदिक से अलग शेष समस्त बातें लौकिक ही कहलायेंगी । कालिदास का ‘शकुन्तला’ नाटक, भारवि, माघ, भवभूति की रचनाएँ सभी लौकिक कोटि की होंगी, किन्तु ‘लोक साहित्य’ नहीं होंगी।

आधुनिक काल में 'लोक' तथा 'लोक तत्व' शब्दों का प्रयोग निश्चित पारिभाषिक अर्थ में किया जाने लगा है। चेतना संघर्षित अवचेतन मानस को लोकवार्त्ता के विशेषज्ञ ऊपरी पर्त मानते हैं, यह उपार्जित अवचेतन है और मनोविश्लेषण का क्षेत्र मन का यही स्तर रहा है। इस अवचेतन का निचला स्तर सहज मानस है और यही मूलतः लोक तत्व का निर्धारक है। मनुष्य की प्रत्येक अभिव्यक्ति में वह किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है। इस दृष्टि से, मनुष्य-समाज के उस वर्ग को, जो अपने सम्पूर्ण जीवन की अभिव्यक्ति इसी मानस के स्तर पर करता है, लोक माना जा सकता है। लोक अभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता, पाण्डित्य की चेतना और अहंकार से शून्य है और एक परम्परा के प्रवाह में जीवित रहता है।

साहित्य और लोकतत्त्व—एक ही जीवन-रथ के दो चक्र है। दोनों के संतुलित विवेक से ही जीवन की व्याख्या की जा सकती है। जो लोकों का प्रत्यक्ष दर्शन करता है, लोकजीवन में प्रविष्ट होकर जो स्वयं उसे अपने मानस-चक्षु से देखता है, वही उसे पूरी तरह समझता है । केवल पुस्तक में स्थित विद्या से लोकतत्त्व का गहरा ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता ।

संस्कृति, धर्म, दर्शन, अध्यात्म, कला, साहित्य, समाज, आचार—इस अष्टक को जहाँ कहीं से देखने लगेंगे, भारतीय आकाश के नीचे युगों-युगों तक वेद और लोक इन दोनों की समन्वित और संयुक्त सरणि हमें उपलब्ध होती जाएगी। यही भारतीय जीवन का प्रतिष्ठा-सूत्र है। भारतीय शास्त्र की व्याख्या का क्षेत्र यहाँ का लोक-जीवन ही है।

लोक के जीवन का वार्षिक सत्र आज भी अनेक मंगल विधानों और आचारों से सम्पन्न है। लोक में भरे हुए पर्व और उत्सव, लोकनृत्य, लोकगीत, लोककथाएँ, संवत्सर का रूप सँवारने वाले अनेक व्रत और उपवास, व्रतों की अवदान कहानियाँ, देव-यात्राएँ और मेले आदि से भारतीय संस्कृति अपना अमिट स्पन्दन प्राप्त करती है। आकाश-गंगा के समान लोक की भाषा आज भी अपनी पावनी शक्ति से धरती के प्राणियों को चमका रही है। साहित्य और जीवन की कल्याण-परम्पराएँ उसी शक्ति से अस्तित्व में आ रही हैं। उसकी प्राचीन संस्कृति का श्रेय-अंश लेकर नए भारत का निर्माण हो रहा है। यही नियम जीवन को आगे बढ़ा रहा है; किन्तु इस प्रगति की अक्षय पद्धति प्राचीन संस्कृति से प्राप्त होती है और उसके साथ जुड़ी है।

शेष आगामी अंक में……

(मेधा बुक्स, दिल्ली-32 से प्रकाशित पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' में संकलित)

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

आपने लघुकथा को लोक से जोड़ा है। इससे लघुकथा का भविष्य उज्जवल होगा यह निश्चित है ।लोक तत्व जनमानस नदी की तरह प्रवहमान है।अजर -अमर है ।