गतांक दिनांक 11-5-2024 से आगे…
4 कड़ियों में समाप्य लम्बे लेख की दूसरी कड़ी
वैचारिक प्रक्रिया के स्तर पर मनुष्य को प्राय: हीन संदर्भों से गुजरना पड़ता है। इस प्रक्रिया में किसी सदर्भ को वह नकारता है, किसी को स्वीकारता है और किन्हीं संदर्भों में वह मौलिक अस्तित्व की ओर बढ़ता है। मनुष्य कभी स्थापित मूल्यो के प्रति संशय से गुजरता है तो भी उनकी निरर्थकता के स्तर से; कभी-कभी वह नये मूल्यों की आवश्यकता और वैचारिक अवमूल्यन के स्तरों से भी गुजरता है। इन आधारों पर मानव मूल्यों को निम्न वर्गों में रखा जा सकता है—
1. धर्म आदि की प्रधानता वाले सामाजिक मूल्य। इनमें जीवन-चक्र धार्मिक ग्रंथों या संहिताओं से आबद्ध था।
2. अनेक मानव मूल्यों का विकास अब अवरुद्ध हो गया है। ये मानव-मूल्य पूरी तरह विकसित अथवा स्थायित्व प्राप्त हैं। इनमें एक ओर प्राचीन मूल्यो के प्रति मोह प्रकट होता है और दूसरी ओर सहअस्तित्व के प्रति सजगता। तात्पर्य यह कि अतीत के प्रति मोहग्रस्तता, आस्था तथा नवीन के प्रति संशय के संघात से इन मूल्यो का जन्म होता है। कथा साहित्य में लघुकथा का उन्नयन इसी का परिणाम है ।
३. विकासशील अथवा नये मानव-मूल्य इस तीसरे वर्ग में आते हैं। वैज्ञानिक क्रान्ति तथा तकनीकी उपकरणों के निर्माण से जो सह-अस्तित्व, विश्व-बन्धुत्व आदि मूल्य सामने आते हैं, वे विकासशील मूल्य हैं। इनमें निरन्तर विकास हो रहा है। हिन्दी की समकालीन लघुकथा इन्हीं मूल्यों से प्रभावित है ।
इसके अलावा कई तरह की अन्तरंग अभौतिक प्रवृत्तियों से सम्बद्ध रहने के कारण कुछ मूल्य आत्मनिष्ठ अथवा भावात्मक हो जाते हैं। इनके अलावा आर्थिक व सामाजिक परिवर्तनों से सम्बन्ध रहने के कारण कुछ मूल्य वस्तुनिष्ठ हो जाते हैं । इस अर्थ में, हम कह सकते हैं कि समूचा मूल्य-जगत आत्मनिष्ठता और वस्तुनिष्ठता का सम्मिश्रण है। मूल्यों का विकास अक्सर ऊर्ध्व और निम्न दिशाओं में होता है। ऊर्ध्व से निम्न दिशाओं की ओर होने वाले मूल्य-विकास को पुरातनता की ओर लौटना कहते हैं ।
मानव-मूल्य कुल कितने हैं और कौन-कौन से हैं? इस जिज्ञासा का जवाब प्रस्तुत करने में विचारकों ने बहुत माथपच्ची की है। भारतीय विचारकों ने सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् तथा पाश्चात्य विचारकों ने समानता, स्वच्छंदता और भ्रातृत्व आदि मूल्यों को प्रस्तुत किया जो प्रकारान्तर से सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् का ही सरलीकृत रूप हैं। इसी क्रम में नये विचारों के जन्म के साथ-साथ स्वतन्त्रता और स्वाभिमान जैसे मूल्यों का भी उदय हुआ। मानव-जीवन में इन मूल्यो की नये सिरे से स्वीकृति हुई । ध्यातव्य है कि एक व्यक्ति के स्वाभिमान की सार्थकता अन्य व्यक्तियों के स्वाभिमान की सामाजिक स्वीकृति में निहित है ।
प्रजातन्त्र और साम्यवाद का संघर्ष भी इन मूल्यो की स्वीकृति-अस्वीकृति तथा सम्मान और अपमान पर ही आधारित है । सच यह है कि अमानवीय आधारों को लेकर कोई भी वाद पनप नहीं सकता है । यों भी, किसी वाद की स्थापना कभी अमानवीय उद्देश्य से नहीं होती है। वस्तुत: किसी वर्ग-विशेष की मानवीयता जब दूसरे वर्ग-विशेष की मानवीयता से मेल नहीं खाती है, संघर्ष तभी उत्पन्न होता है।
पूँजीवादी व्यवस्था में समाज के एक बड़े वर्ग का शोषण होता है, इस बात को नकारा नहीं जा सकता । पूँजीपति वर्ग अपने हित-साधन के लिए मजदूरों और किसानों का शोषण करता है। इस तरह, आर्थिक रूप से सम्पन्न एक मानव द्वारा आर्थिक रूप से विपन्न दूसरे मानव का शोषण होता है जोकि अनैतिक भी है और अमानवीय भी है। दोनो व्यवस्थाओं में से एक में श्रम का अभाव है तो दूसरी में पूँजी का। फिर भी, व्यक्ति या राष्ट्र को इन दोनो में से किसी एक का ही चुनाव करना होता है। हमें मानव मूल्यों की स्थापना और रक्षा के लिए पूँजी और श्रम दोनों को मिलाकर एक आदर्श-व्यवस्था के निर्माण का प्रयास करना होगा। वही अधिक बेहतर सिद्ध हो सकता है ।
सवाल है कि—क्या मानवीयता के भीतर अमानवीयता को भी समाहित किया जा सकता है? उत्तर है—नहीं। क्योंकि मानवीयता एक सत्य है और अमानवीयता एक दम्भ। किसी भी सत्य में अमानवीयता के छोटे-से-छोटे अंश को भी समाहित करने से ‘मूल्य’ की प्रकृति और पवित्रता दूषित होती है।
शेष आगामी अंक में…
(मेधा बुक्स, दिल्ली-32 से प्रकाशित पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' में संकलित)
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