मंगलवार, 28 मई 2024

लघुकथा में लोक-तत्त्व, भाग-2 / बलराम अग्रवाल

 गत अंक से जारी दूसरी व समापन किस्त……


यहाँ नवीन का गत के साथ मेल है। किन्तु गत नवीन को कुण्ठित नहीं करता
, उसे निर्मलता प्रदान करता है। भारतीय संस्कृति गत और नवीन के श्वास-प्रश्श्वास से ही अपना शाश्वत जीवन स्पन्दन प्राप्त करती रही है। दूसरे शब्दों में इसे ही लोक और वेद का समूह कहते हैं।

 साहित्य की आत्मा मात्र लिपि की वर्णमाला से बँधी हुई नहीं है। साहित्य के प्रकार की कोई भी सार्थक शब्दावली साहित्य का माध्यम हो सकती है। उदाहरण के लिए, एक गीत महादेवी वर्मा सरीखी कोई विदुषी महिला लिखती या गाती है और एक गीत कोई ठेठ ग्रामीण महिला केवल गाती है, लिख नहीं पाती। होंगे तो दोनों गीत ही। साहित्य की आज की परिभाषा में दोनों को स्थान देना होगा। कबीर बे-पढ़े, बे-लिखे थे । सूरदास दिव्यांग थे, न पढ़ सकते थे और न लिख ही सकते थे। इनकी दोनों की रचनाएँ लम्बे समय से साहित्य के अन्तर्गत प्रकाश स्तम्भ की तरह खड़ी हैं । इसलिए साहित्य का अर्थ और दायरा अब विस्तृत हो गया है। इस विस्तृत अर्थ और दायरे में आज मनुष्य की वह समस्त सार्थक अभिव्यक्ति सम्मिलित मानी जाती है जो लिखित या मौखिक कैसी भी हो, किन्तु जो व्यवसाय-क्षेत्र की न हो। लोकतत्व युक्त ऐसी समस्त अभिव्यक्तियाँ लोक-साहित्य के अन्तर्गत आती हैं ।

इसलिए ‘लोक-साहित्य’ के अन्तर्गत वे समस्त भाषागत अभिव्यक्तियाँ आती हैं जिनमें—

(अ)       आदिम मानस के अवशेष उपलब्ध हों,

(आ)               परम्परागत मौखिक क्रम में उपलब्ध भाषागत ऐसी अभिव्यक्ति, जिसे किसी की कृति न कहा जा सके। जिसे श्रुति ही माना जाता हो और जो लोक-मानस में समायी हुई हो ।

(इ)         वह लोक-मानस के सामान्य तत्वों से युक्त ऐसा कृतित्व हो कि उसको व्यक्तित्व के साथ सम्बद्ध करते हुए भी लोक उसे अपने ही व्यक्तित्व की कृति स्वीकार करे।

इस दृष्टि से लोक-साहित्य का क्षेत्र बहुत व्यापक हो जाता है। अभिजात्य साहित्य तो प्रायः समूचा ही लिपिबद्ध रूप में प्राप्त हो जाता है, और प्राय: वही सम्मान की वस्तु माना जाता था। विश्व और उसकी विशाल परम्परा को देखते हुए यह समस्त साहित्य बहुत ही थोड़ा है; और इसका क्षेत्र भी बहुत सीमित है।

लोक-साहित्य में लोक की अभिव्यक्ति होती है।  लोक की इस अभिव्यक्ति के सामान्यतः दो भेद तो हमें स्पष्ट ही दिखायी पड़ते हैं—

9   (1)  शरीर तोषिणी अभिव्यक्ति—जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति-मात्र के उपयोग में आने वाली अभिव्यक्ति शरीर तोषिणी अभिव्यक्ति कहलाती है। भोजन, शरण और भोग सम्बन्धी अभिव्यक्तियाँ शरीर तोषिणी अभिव्यक्ति की श्रेणी श्रेणी में आती हैं।

9   (2)  मनस्तोषिणी अभिव्यक्ति—मन को तोष प्रदान करने वाली अभिव्यक्ति मनस्तोषिणी कहलाती है। मन में दो प्रकार के भाव मौलिक हैं—(1)  भय और (2)  आश्चर्य। इनसे भिन्न एक अन्य मौलिक भाव भी सहज ही होता है—निज-प्रकृति-प्रेरित ‘रति’ का भाव। फ्रायड कहता है—यह स्तन-पान के प्रारम्भिक रूप में प्रकट होता है। दो प्रकार के मौलिक भावों में ‘आश्चर्य’ का परिणाम ‘ज्ञान’ और साधन या उत्साह अथवा वीर भाव था। ‘भय’ का आधार ‘अज्ञान’ था। भय के निवारण के लिए जो अभिव्यक्ति का स्वरूप हुआ उसे मनस्तोषी कहा गया। इसने अनुष्ठान का रूप धारण किया। आज के सभी टोने-टोटके-लोकविधि आदि इसी अभिव्यक्ति के रूप हैं।

लोक की अभिव्यक्ति का एक तीसरा भेद भी है—मोद। इसे मनस्तोषिणी से आगे मनोमोदिनी अभिव्यक्त कहना उचित होगा। यह वह अभिव्यक्ति है जिसका सम्बन्ध मनुष्य की 'मोद' वृत्ति से है ‘तोषण’ से नहीं। मानव मात्र में ये तीनों ही प्रधान वृत्तियाँ दिलायी पड़ती हैं।

लोक-साहित्य की वस्तु और रूप लोक मानस के ही अनुकूल प्रकट होते हैं। इसीलिए उसे ‘आदिम मानस’ के अवशेष कहना अनुपयुक्त नहीं है। इस आदिम का अभिप्राय केवल ऐतिहासिक दृष्टि से आदिम अथवा आदिम मानव नहीं है वरन् यह शब्द केवल उन गुणों, विशेषताओं तथा धर्मों का द्योतक है जो ऐतिहासिक दृष्टि से आदिम मानव में होंगे और जो आज भी आदिम जातियों में प्रत्यक्षतः तथा सभ्य से सभ्य जातियों में अप्रत्यक्षतः मौजूद हैं। एक कहावत है कि आदमी को जरा खुरचिये तो आपको पशु दिखायी पड़ जायगा। आज का सभ्य से सभ्य मनुष्य भी अपने आदिम संस्कारों के बीजों को नष्ट नहीं कर पाया है। आदिम मानस से लोकवार्ता यानी फोकलोर का घनिष्ठ संबंध है।

                            (मेधा बुक्स, दिल्ली-32 से प्रकाशित पुस्तक 'लघुकथा का साहित्य दर्शन' में संकलित)

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