'इन्द्रप्रस्थ भारती' के 'विष्णु प्रभाकर विशेषांक' में प्रकाशित लम्बे लेख की दूसरी कड़ी
मानवीय संवेदना की आदर्श अभिव्यक्ति
गत भाग 1 दिनांक 13-02-2024 से आगे…………
दया बोली—“मास्टर साहब ने कहा यह?”
“हाँ-हाँ, उन्होंने कहा जो कालेज में पढ़े हैं!”
तात्पर्य यह कि कालेज में पढ़े इन्सान के प्रगतिशील विचारों वाला होने की आशा की जाती है परन्तु व्यावहारिक स्तर पर पाया यह जाता है कि कालेज की पढ़ाई प्रगतिशीलता का प्रमाण नहीं है। लघुकथा यह भी बताती है कि बच्चे भी कलह-विद्वेषी होते हैं… बच्चे भी स्वाभिमानी होते हैं… स्वाभिमान की और घर में सुख-शान्ति की रक्षा के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं।
1989 में प्रकाशित संग्रह ‘कौन जीता कौन हारा’ की ‘निवेदन’ शीर्षक भूमिका में विष्णु जी ने लिखा है—‘सत्य मात्र होने से कोई रचना कहानी नहीं बन जाती, इसलिए मैंने उन्हें (‘जीवन पराग’ के 1957 में प्रकाशित तीसरे संस्करण की रचनाओं को) लघुकथा कहकर रेखांकित नहीं किया था।’ ‘कौन जीता कौन हारा’ की इसी भूमिका के प्रारम्भ में ‘मेरी लघु रचनाओं का यह तीसरा संग्रह है’ कहकर ‘जीवन पराग’ को उन्होंने ‘आपकी कृपा है’ तथा ‘कौन जीता कौन हारा’ की श्रेणी में ला खड़ा करने का यत्न किया है। ‘जीवन पराग’ किस श्रेणी अथवा किन सरोकारों की पुस्तक है? उनके ही अनुसार, ‘(जीवन पराग’ में प्रकाशित लघु-आकारीय रचनाओं की) कथावस्तु मैंने कुछ अपने जीवन से, कुछ मित्रों के जीवन से तथा कुछ दूसरे व्यक्तियों के प्रकाशित संस्मरणों से ली है। ‘वीर माता’ की कथावस्तु श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित के एक लेख से, ‘संवेदना’ और ‘ॠणी’ की सामग्री श्री कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की पुस्तक से, ‘इन्सान’ की कथा श्री बलराज साहनी के एक संस्मरण से, ‘सहिष्णुता’ की कहानी भदंत आनंद कौसल्यायन के निबंध संग्रह से तथा ‘मूक शिक्षण’ की सामग्री को श्रीमती तारारानी श्रीवास्तव की पुस्तक से ली गयी है। कुछ कहानियों की कथावस्तु का आधार पुरानी सुनी और पढ़ी हुई कथाएँ हैं।’ विष्णु जी की इस स्वीकारोक्ति को उपर्लिखित इस कथन के प्रकाश में देखा जाना चाहिए कि ‘पूर्ववर्ती और समकालीन साहित्य के अध्ययन-मनन से हमारे मस्तिष्क में विचार के नये अंकुर फूटने की संभावना सदा विद्यमान रहती है।’
भारतीय चिन्तन परम्परा मुख्यत: दो विचारधाराओं में आबद्ध रही है। उनमें एक विचारधारा को आदर्शवादी और दूसरी को यथार्थवादी अथवा भौतिकवादी कहा जाता है। एक समय यह भी था जब आदर्शवादी दृष्टि के प्रभाव-बाहुल्य के कारण भौतिकवादी विचारधारा कमजोर हो गयी। दूसरी को आदर्शवाद का विरोध करने के कारण भी भौतिकवादी अथवा लोकायतित विचारधारा कहा जाता था। विष्णु प्रभाकर सम्भवत: अकेले लघुकथाकार हैं जिनकी लघुकथाएँ इन दोनों ही विचारधाराओं के बीच दोलन करती हैं। बावजूद इसके इनकी लघुकथाएँ मुख्यत: आदर्शवादी विचारधारा का ही प्रतिनिधित्व करती हैं।
आधुनिक काल में लघुकथा लेखन के प्रोन्नत होने के कारणों पर प्रकाश डालते हुए विष्णु जी कहते हैं—‘समय सिमटता जा रहा है। महाकाव्य से मुक्तक तक, बहु-अंकीय नाटकों से एकांकी तक, विराट उपन्यासों से लघु उपन्यास तक और लम्बी कहानी से लघुकथा तक की यात्रा बहुत-कुछ समेटे है अपने में।’ पुरातन साहित्य में लघुकथा के बीज तलाशने वालों का विरोध करने वाले सज्जनों से वह कहते हैं—‘कोई भी विधा हो, उसका अपना एक स्रोत होता है। उस स्रोत से अपने को काटने का प्रयत्न वैसा ही है, जैसे सन्तान अपनी जननी के अस्तित्व को नकार दे।’ (‘दो शब्द’, ‘आपकी कृपा है’, पृष्ठ 6) इसी क्रम में वे आगे कहते हैं—‘आज (यानी सातवें-आठवें दशक में) जब लघुकथा की फिर से पहचान हो रही है तो अतीत की लघुकथाओं के ॠण को नकारा नहीं जा सकता। लघुकथा के समूचे इतिहास को जिन्होंने रेखांकित किया है, उन्होंने इस सत्य को पहचान लिया है। विकास-क्रम की इस यात्रा में लघुकथा ने दृष्टान्त, रूपक, लोककथा, बोधकथा, नीतिकथा, व्यंग्य, चुटकुले, संस्मरण—ऐसी अनेक मंजिलें पार करते हुए वर्तमान रूप पाया है और अपनी सामर्थ्य को गहरे अंकित किया है।’ (‘दो शब्द’, ‘आपकी कृपा है’, पृष्ठ 7) लघुकथा की उत्पत्ति के कारण को रेखांकित करते हुए वह कहते हैं—‘न जाने किस कालखंड में मनीषियों ने अपने सिद्धान्तों को व्यवहारिक रूप से स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्त देने की आवश्यकता अनुभव की; उसी अनजाने क्षण में ‘लघुकथा का बीजारोपण’ हुआ।’ (‘दो शब्द’, ‘आपकी कृपा है’, पृष्ठ 6) परन्तु, परम्परा की ही विरुदावली गाने वालों को सचेत करते हुए वह कहते हैं—‘वर्तमान और भविष्य, सबका केन्द्र अतीत में ही रहता है; लेकिन इसका अर्थ अतीत को ओढ़ना कदापि नहीं होता, प्रवाह के स्वरूप को समझना होता है।’ (‘दो शब्द’, ‘आपकी कृपा है’, पृष्ठ 6) आगे, ‘प्राचीन ॠषि-मुनि जब जीवन रहस्य की व्याख्या करते थे तो रूपक की भाषा में करते थे और उन रूपकों पर लोककथाओं का प्रभाव होता था।’ (‘दो शब्द’, ‘आपकी कृपा है’, पृष्ठ 6) उत्पत्ति के उपरान्त लघुकथा के विकास की स्थिति को स्पष्ट करते हुए वह कहते हैं—‘और यह भी कि आध्यात्मिक साहित्य में लघुकथा मात्र दृष्टान्त और नीतिकथा होकर नहीं रह गयी है; अन्य विधाओं की तरह जीवन के यथार्थ को अंकित करती है।’ (‘दो शब्द’, ‘आपकी कृपा है’, पृष्ठ 6) तथा, ‘वह अब किसी गहन तत्व को समझने, उपदेश देने, स्तब्ध करने, गुदगुदाने और चौंकाने का काम ही नहीं करती बल्कि आज के यथार्थ से जुड़कर हमारे चिन्तन को धार देती है।’ (‘दो शब्द’, ‘आपकी कृपा है’, पृष्ठ 7)
विष्णु जी यथार्थवादी विचारधारा की खामियों को सुधारने की कोशिश करते हुए आदर्शवादी जीवन-परम्परा से जोड़ने की पैरवी करते हैं। वह कहते हैं—‘लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि लघुकथा में जीवन के अन्तर्विरोधों और विसंगतियों और कुरूपता का ही चित्रण होना उचित है।’ वह मानते हैं कि—‘जीवन में जो शुभ और सुन्दर है और जो द्वन्द्व के माध्यम से उभरकर आता है, उसका चित्रण भी होना चाहिए।’ यानी लघुकथा में द्वन्द्व को वह प्रमुखता से रेखांकित करते हैं। वह कहते हैं कि—‘वस्तुत: ‘क्या होना चाहिए’ से अधिक महत्व है, ‘कैसे होना चाहिए’ का। मूल बात मानवीय संवेदना को अभिव्यक्ति देने की है, ॠणात्मक और धनात्मक (विष्णु जी का तात्पर्य नकारात्मक और सकारात्मक से रहा होगा—बलराम अग्रवाल) दोनों प्रकार से।’
विष्णु जी ने अपने वरिष्ठ और समकालीन लेखकों को इस शालीनता से याद किया है—‘मैंने जब लिखना शुरू किया तो प्रसाद, सुदर्शन, माखनलाल चतुर्वेदी, अश्क, कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, जगदीशचन्द्र मिश्र, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी आदि लिख रहे थे। रावी और रामनारायण उपाध्याय आदि आज भी लिख रहे हैं।’ ‘जीवन पराग’ के बारे में उन्होंने लिखा है—‘छठे दशक में, ‘जीवन पराग’ नाम से बोधकथाओं का मेरा एक संग्रह प्रकाशित हुआ था। उसमें जीवन के शुभ और सुन्दर पक्ष को रेखांकित करती कथाएँ, यह प्रमाणित करने के लिए संकलित की गयी थीं कि हर मनुष्य के जीवन में वे क्षण आते हैं जब वह बड़े से बड़े आदमी से भी बड़ा होता है।’ (‘दो शब्द’, ‘आपकी कृपा है’, पृष्ठ 8)
‘जीवन पराग’ में संग्रहीत रचनाओं की विधागत प्रकृति के बारे में विष्णु जी ने लिखा है—‘उस (जीवन पराग, अनुमानत: 1954-55) संग्रह की कुछ कथाएँ प्रस्तुत (आपकी कृपा है, 1982) संग्रह में भी हैं; लेकिन वे संग्रह करते समय उन्हें लघुकथा कहने का विचार मन में नहीं आया था।’ (‘दो शब्द’, ‘आपकी कृपा है’, पृष्ठ 8) ‘जहाँ उद्देश्य प्रमुख हो उठता है, वहाँ कला गौण हो रहती है। हर रचना अपनी समग्रता में ग्राह्य होती है। कथ्य, शैली और भाषा किसी एक का प्रमुख हो उठना रचना के सौन्दर्य को धूमिल कर देता है। इस दृष्टि से लघुकथा लिखना बहुत कठिन काम है विशेष रूप से सही भाषा की तलाश!’ भाषा के मामले में विष्णु जी का कथन है कि—‘भाषा मात्र अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं होती; चरित्र का अंग भी होती है। हर रचना में रचनाकार का चरित्र प्रतिबिम्बित होता है।’ (‘दो शब्द’, ‘आपकी कृपा है’, 1982, पृष्ठ 8)
शेष आगामी अंक में…………
सम्पादक/ संजय कुमार गर्ग; सहायक सम्पादक/निशा निशान्त
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1 टिप्पणी:
पठनीय और संग्रहणीय आलेख। बहुत -बहुत आभार सर
निर्मल कुमार दे
जमशेदपुर
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