'इन्द्रप्रस्थ भारती' के 'विष्णु प्रभाकर विशेषांक' में प्रकाशित लम्बे लेख की चौथी, समापन कड़ी
मानवीय संवेदना की आदर्श अभिव्यक्ति
गत भाग 3 दिनांक 19-02-2024 से आगे भाग-4, समापन कड़ी…………
विष्णु जी हिंदी एकांकी के उन्नायकों में रहे हैं इसलिए उनकी लघुकथाओं में संवादों की प्रचुरता, कथानक की क्षिप्रता आदि एकांकी के भी अनेक गुण देखने को मिलते हैं। ‘दो बच्चों का घर’ को इस तथ्य का उत्कृष्ट उदाहरण कहा जा सकता है। कथोपकथन की सुन्दरता के साथ-साथ ‘बिंध गया सो मोती’ में ताँगेवाले की कला-हृदयता का भी चित्रण है।
उसने स्थिर, शान्त स्वर में कहा—“बाबूजी, सिनेमा में कला नहीं होती, कारीगरी होती है। सैकड़ों बार प्रैक्टिस करने पर जब कभी एक बार अच्छा अभिनय हो जाता है, तो उसी को वे फिल्म में भर लेते हैं। लेकिन ड्रामे में हर बार अभिनय करना होता है। जिस बार भी खराब होगा, ड्रामा खराब हो जायेगा। इसलिए कलाकार को हमेशा कलाकार रहना होता है।”
इसी परिप्रेक्ष्य में लघुकथा ‘दोस्ती’ का यह दृश्य देखिए—
वे चले गये । यात्रियों की दृष्टि अब विधायक पर थी। अपनी व्यथा भूलकर एक ने विधायक से पूछा, “उन्होंने आपकी सब चीजें लौटा दीं!”
“जी हाँ ।”
“आप उन्हें जानते हैं ?”
“जी हाँ।”
“कौन हैं ?”
“उनका लीडर मेरा सहपाठी रहा है और…”
“और...?”
“इस इलाके का उप-पुलिस अधीक्षक है वह।”
“क्या···!!” एक साथ कई कण्ठ-स्वर चीख उठे ।
दो क्षण बाद किसी ने साहस किया, “आप विधायक हैं। आपको इसकी रिपोर्ट मुख्यमन्त्री से करनी चाहिए।”
“मैं ऐसा कुछ नहीं करूँगा।”
फिर एक साथ कई कण्ठ-स्वर उठे, “क्यों नहीं करेंगे !”
“क्योंकि उसने मुझसे दोस्ती निभायी । मैं उससे निभाऊँगा।”
यह रचना तत्कालीन राजनीतिकों के मूल्यविहीन चरित्र पर गहरा व्यंग्य प्रस्तुत करती है।
‘कौन जीता कौन हारा’ (1989) में संग्रहीत रचनाओं को ‘निवेदन’ शीर्षक अपनी भूमिका में विष्णु जी ने ‘लघु रचनाओं’ का तीसरा संग्रह कहा है, लघुकथाओं का नहीं; जबकि 1982 में प्रकाशित ‘आपकी कृपा है’ की ‘दो शब्द’ शीर्षक समूची भूमिका को लघुकथा केन्द्रित रखा है। दूसरी बात, ‘निवेदन’ में उन्होंने लिखा है, ‘पहला संग्रह ‘जीवन पराग’ सन् 1963 में सस्ता साहित्य मण्डल दिल्ली से प्रकाशित हुआ था।’ जबकि उनके सुपुत्र श्री अतुल कुमार जी के सौजन्य से प्राप्त उनके निजी पुस्तकालय से प्राप्त, सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली के ही सस्ता साहित्य प्रकाशन से सन् 1957 में प्रकाशित इस पुस्तक का तीसरा संस्करण मेरे सामने है।
खलील जिब्रान के लघु-आकारीय कथा साहित्य ने हिन्दी पाठकों और कथाकारों, दोनों को बहुत गहरे प्रभावित किया है। उनकी रचनाओं का बहुत-सा हिन्दी अनुवाद सस्ता साहित्य मंडल से प्रकाशित हुआ है। स्वयं विष्णु जी ने उनमें से एक लघुकथा ‘मोती’ को उद्धरण स्वरूप प्रस्तुत किया है (‘दो शब्द’, ‘आपकी कृपा है’, 1982, पृष्ठ 6)। खलील जिब्रान की एक अन्य लघुकथा ‘पारखी’, निम्न प्रकार है :
एक किसान को अपने खेत में एक बेहद खूबसूरत मूर्ति दबी मिली। बेचने के लिए वह उसे पुरानी वस्तुओं के एक संग्रहकर्ता के पास ले गया। संग्रहकर्ता ने अच्छी कीमत देकर उस मूर्ति को खरीद लिया।
धन लेकर आदमी अपने घर की ओर चल दिया। रास्ते में वह सोचने लगा - "इतने रुपयों से कितनी ही ज़िन्दगी कट जाएगी! समझ में नहीं आया कि कोई आदमी हजारों साल तक जमीन में दबी पड़ी रही एक मूर्ति के लिए इतना धन कैसे दे सकता है?"
उधर, संग्रहकर्ता उस मूर्ति को निहार रहा था। वह सोच रहा था - "क्या सुन्दरता है ! एकदम जीवन्त!! स्वप्न-जैसी दिव्य!!! हजार सालों से सोई पड़ी सहज मुखाकृति। कोई कैसे इतनी खूबसूरत चीज को केवल कुछ रुपयों के बदले बेच सकता है? केवल मुर्दा और स्वप्नहीन आदमी ही ऐसा कर सकता है।"
विष्णु जी की ‘धन्य है आपकी परख’ में पाठक को ‘पारखी’ की छाया नजर आ सकती है।
विष्णु जी की अनेक लघुकथाओं को उत्कृष्ट लघुकथा के रूप में उद्धृत किया जाता है। उनमें ‘फर्क’ (आपकी कृपा है : 1982; पृष्ठ 13) को सम्भवत: सर्वाधिक उद्धृत किया जाता है। वह भी मुख्यत: एक सैनिक के इस उत्तर के मद्देनजर—‘…जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते!’ शोधार्थियों का दशकों से इस एक ही वाक्य पर टिके रहना यह सिद्ध करता है कि हिन्दी कथा साहित्य के शोधार्थी अधिकांशत: मक्खी पर मक्खी मारने के अभ्यस्त है। शोध के नाम पर विश्वविद्यालयों में अध्ययन कम, कट एंड पेस्ट अधिक चलता है। ‘फर्क’ में उक्त समापन वाक्य के अलावा भी बहुत-कुछ है। मसलन, ‘फर्क’ में जो कथन दो देशों की सीमा के परिप्रेक्ष्य में भी कुछ कहा गया है। समापन वाक्य के तौर जो पंच विष्णु जी ने मारा है, वही पंच हरिशंकर परसाई ने ‘कबीर की बकरी’ में धर्म के परिप्रेक्ष्य में मारा है। ‘फर्क’ में विष्णु जी ने वस्तुत: एक दार्शनिक बिन्दु भी डाला है। वह बिन्दु है—द्वैत। लघुकथा की शुरुआत ही द्वैत दर्शन से होती है, देखिए—‘उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमा-रेखा को देखा जाये। जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है! दो थे तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे।’ द्वैत हमेशा शंका और अविश्वास पैदा करता है। ‘पंचतन्त्र’ के पिंगलक और संजीवक अद्वैत तक ही मित्र बने रह सके थे, द्वैत उत्पन्न होते ही पिंगलक ने मित्र खो दिया और संजीवक ने जीवन। ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ को चरितार्थ करती है लघुकथा ‘दोस्ती’। ‘कौन जीता कौन हारा’ उनकी द्वन्द्व केन्द्रित लघुकथा है। उनका द्वन्द्व आत्म-संघर्ष जैसा कम आत्म-मंथन जैसा अधिक होता है। ‘कौन जीता कौन हारा’ का ‘लेखक’ पात्र कहता (स्वकथन) है—‘किसी का अविश्वास करने से विश्वास करके ठगा जाना कहीं अच्छा है।’ यह कोरा आदर्शवाद है। सांसारिकता के मद्देनजर ‘ठगा जाना’ कभी भी अच्छा नहीं कहा जाना चाहिए। कबीर कहते हैं—‘कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय/आप ठगे सुख ऊपजे, और ठगे दुख होय।’ ठगे जाने के ‘लेखक’ पात्र के मन्तव्य में और कबीर की इस साखी के मन्तव्य में पर्याप्त अन्तर है। ‘लेखक’ पात्र स्वयं से तर्क करता है—‘…कहो कि पिछले जन्म का कर्जदार था मैं या यह कि वह अपनी ईमानदारी गिरवी रख गया है मेरे पास या कि…।’ ‘वह अपनी ईमानदारी गिरवी रख गया है’ वाला भाव विष्णु जी की लघुकथा ‘चोरी का अर्थ’ में भी प्रकट हुआ है।
‘कौन जीता कौन हारा’ में कुल 16 रचनाएँ ऐसी हैं जो ‘जीवन पराग’ तथा ‘आपकी कृपा है’ दोनों ही संग्रहों में संग्रहीत नहीं हैं। यों तो इन रचनाओं को ‘आपकी कृपा है’ से परवर्ती रचनाएँ माना जाना चाहिए। इनमें अनेक लघुकथाएँ इस बात को सिद्ध भी करती हैं; तथापि कुछ रचनाएँ पुरानी फाइलों से निकली भी हो सकती हैं। इनमें से ‘अन्तर दो यात्राओं का’ में विष्णु जी लौकिक और पारलौकिक यात्राओं का दर्शन समझाने का यत्न करते हैं। कथानक का चुनाव और बुनावट, दोनों ही बहुत सुन्दर हैं। ‘आपन जन’ मेजबान के औपचारिक से शनै: शनै: अनौपचारिक होते जाने तथा मेहमान के भी सहज बने रहने की सुन्दर कथा है। ‘वह बच्चा थोड़े ही न था’ मन में अंकित कुछ संयोगों पर ईश्वर के प्रति विश्वास की कथा है। लघुकथा ‘सीमा’ वस्तुत: असीम राजनीतिक गिरावट को दर्ज करती है। ‘ब्रह्मानंद सरोवर—एक अनुभूति’ के पहले पैरा में जो पात्र ‘मैं’ है, तीसरे पैरा में वह ‘वह’ हो जाता है। प्रूफ की ऐसी असावधानी ‘पाप की कमाई’ में भी एक स्थान पर नजर आती है जब उसका पात्र सुदीप ‘मैं’ बन जाता है। बहरहाल, ‘ब्रह्मानंद…’ एक व्यक्ति की पलायनवादी वृत्ति और आत्मिक द्वंद्व के माध्यम से उस पर विजय पाने की कथा है।
‘कोशिश’ अकादमिक शिक्षा की रोजगार-विमुखता पर करारा व्यंग्य प्रस्तुत करती है। ‘नपुंसक’ का मकान मालिक यद्यपि शरीर और बल दोनों से कृश है परन्तु नम्बर दो के पैसे का उस पर अक्षय भंडार है। इस अक्षय भंडार के बूते उसमें अहंकार भी असीम है। लेकिन यह अहंकार उसमें ईमानदार और शान्त स्वभाव के अपने किरायेदार से आँख मिलाने का साहस पैदा नहीं कर पाता है। ‘संवेदन’ में मुख्यत: तीन पात्र हैं— (रेल)गाड़ी के डिब्बे में खिड़की के सहारे बैठा यात्री ‘मैं’, गोद में एक अधनंगे कुरूप-से बालक को लिये खिड़की के आगे आ गिड़गिड़ाने वाली भिखारिन और क्रूर पुलिसमैन। इसमें ‘मैं’ स्वयं को अति संवेदनशील सिद्ध करने का स्वांग रचता है—“सहसा मेरे अन्तर को एक हूक-सी चीर गयी। मेरी आँखें भर आयीं और मैं उस सिपाही को गालियाँ देने लगा!” ‘मैं’ को पात्र बनाकर जब कोई लघुकथा लिखी जाती है, तब स्वयं को महिमामंडित करने का भरपूर अवसर लेखक को मिलता है। कथा को, और कथाकार को भी, इस विकार से बचाए रखने की दृष्टि से सलाह दी जाती है कि लघुकथाएँ ‘मैं’ पात्र को लेकर न लिखी जाएँ। विष्णु जी की लघुकथा ‘पूज्य पिताजी’ में लेखक ‘मैं’ को धिक्कारता है, लेकिन ‘संवेदन’ में वह नपुंसक आक्रोश ही व्यक्त कर पाता है। ‘जब कोई तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे, तब दूसरा गाल भी उसके आगे कर दो’—स्वाधीनता प्राप्ति के लिए आन्दोलित भारतीय जन को गांधी जी द्वारा पढ़ाया गया प्रभु ईसा का यह सुप्रसिद्ध पाठ है। विष्णु जी ने जीवनभर गांधी टोपी सिर पर रखी, कुर्ता-पाजामा अथवा कुर्ता-धोती धारण किया, पाँवों में भी चप्पलें ही पहनीं; गांधी जी लकुटी हाथ में रखते थे, विष्णु जी छड़ी। स्वभाव से भी और उनकी अधिकतर रचनाओं के केन्द्रीय स्वर के मद्देनजर उनको गांधीवादी मान लिया जाता है; परन्तु लघुकथा ‘विकृति और विकृति’ के माध्यम से थप्पड़ के लिए दूसरा गाल आगे कर देने के ईसा और गांधी, दोनों के दर्शन को वह ‘विकार’ सिद्ध कर देते हैं, उसके विरुद्ध रचनात्मक धिक्कार प्रस्तुत करते हैं। वस्तुत: व्यक्ति अथवा दल विशेष के विचार और वाद के अनुगमन से स्वयं को मुक्त रखते हुए लिखना ही स्वतन्त्र लेखन है। ‘लीक से हटकर’ की कथा के केन्द्र में भारत में 1982 में सम्पन्न एशियाई खेलों पर सत्तापक्ष और विपक्ष के राजनीतिक वक्तव्य हैं। इस कथा में लेखक के तौर पर विष्णु जी न तो सत्तापक्ष के साथ खड़े हैं न विपक्ष के, वह देश की उस जनता के साथ खड़े हैं जिसकी साँसें तत्कालीन प्रधानमन्त्री के सारगर्भित (!) भाषण के बाद तालियों की गड़गड़ाहट ने इस कदर तेज कर दी थीं कि उन्हें सँभालना मुश्किल हो गया था। इस लघुकथा के अन्तिम दो पैरा में विष्णु जी ने जिस स्तरीय कटाक्ष को प्रस्तुत किया है, वस्तुत: उसे ही सहज व्यंग्य कहा जाना चाहिए। सामाजिकों पर यही सहज व्यंग्य उनकी लघुकथा ‘आचरण की सभ्यता’ में दिखाई देता है, जब वह कटाक्षपूर्वक कहते हैं—‘घड़ी की सुइयों की तरह काम करने वाले ग्वाले के पास इतना अवकाश नहीं रह पाता था कि वह दूध की बोतलों को जमा होते हुए देख पाता और आसपास रहने वाले व्यक्ति इतने ईमानदार थे कि उन्होंने बोतलों की ओर नजर उठाकर भी नहीं देखा।’
लघुकथा ‘धातु और रुपया’ ढकोसलेबाज संन्यासियों, सामाजिकों और साहित्यकारों पर सार्थक चुटकी है। ‘आधा किलो सम्मान’ उन साहित्यकारों के दोमुँहे चरित्र पर टिप्पणी है जिनके बारे में ‘मन मन भावे, मूड़ हिलावे’ मुहावरा रचा गया होगा। ‘व्यवस्था का राजदार’ की व्याख्या ‘समरथ को नहिं दोस गुसाईं’ कहकर भी की जा सकती है। सच्चा व्यापारी वह है जो धन की तुलना में सामाजिक प्रतिष्ठा को वरीयता देता है। ‘धर्मराज के अवतार’ सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त एक ऐसे ही व्यापारी की कथा है। वह जुर्माने की रकम से दोगुनी राशि बैक डोर से रिश्वत में देकर अपनी प्रतिष्ठा को बचाता है।
किसी कथाकार की प्रतिनिधि लघुकथाओं को यदि कुम्हार की तरह एक लौंदे के रूप में गूँदना (रोंदना नहीं) सम्भव हो, तो दो बातें समझना आसान हो जाता है—पहला यह कि कथाकार की जमीन क्या है और दूसरा यह उसकी लघुकथाएँ किस मिट्टी की बनी हैं? मेरा आकलन है विष्णु जी धर्म-देश-सम्प्रदाय से विलग उस विशुद्ध मानवीय धरातल के व्यक्ति हैं जो वर्तमान में प्राय: दुर्लभ है; और उनकी लघुकथाएँ आदर्शोन्मुख दर्शन और आत्म-मंथन प्रकृति के द्वन्द्व की मिट्टी से बनी हैं। विष्णु प्रभाकर जी की लघुकथाओं के यही स्थायी भाव हैं और यही विशेषताएँ भी हैं।
सम्पादक/ संजय कुमार गर्ग; सहायक सम्पादक/निशा निशान्त
सम्पादकीय कार्यालय
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