सोमवार, 19 फ़रवरी 2024

विष्णु प्रभाकर की लघुकथाएँ, भाग-3 / बलराम अग्रवाल

                        'इन्द्रप्रस्थ भारती' के 'विष्णु प्रभाकर विशेषांक' में प्रकाशित लम्बे लेख की तीसरी कड़ी

                        मानवीय संवेदना की आदर्श अभिव्यक्ति

                      गत भाग 2 दिनांक 15-02-2024 से आगे…………

‘जीवन पराग’ में संग्रहीत ‘तर्क का बोझ’ रचना यों प्रारम्भ होती है—

नंगे पैर, सिर पर बिक्री के सामान का थाल रखे वह रोता हुआ चला रहा था । उसका रंग काला था, मुख कुछ सूजा और भद्दा, आँखें कीच से भरी हुईं, आवाज मोटी। उसने कुरता और जांघियानुमा निकर पहना था। वह बार-बार कुरते की बांह से आँसू पोंछ लेता था, पर आँसू थे कि रुकते ही नहीं थे। और हाँ, उसके हाथ में एक कमची भी थी जिससे शायद वह थाल की मक्खियाँ उड़ाया करता था। पर उस समय तो वह सबकुछ भूलकर जोर-जोर से रो रहा था।

शिखा से लेकर पाँव के नाखून तक पात्र का दैहिक वर्णन करने की उपर्युक्त-सरीखी कहानी-परम्परा को लघुकथा ने त्याग दिया है। लघुकथाकार के लिए तो कहा ही यह गया है कितू इधर-उधर की न बात कर, ये बता कि काफिला क्यों लुटा? ‘तर्क का बोझ’ में आत्मसंघर्ष का, मानसिक द्वंद्व का सुन्दर अंकन है। ‘भला काम’, ‘अतिथि’, ‘पश्चात्ताप’, ‘बड़ा दिल’ इस अर्थ में मूल्यवान है कि आगामी पीढ़ी का पाठक यह समझ सके कि किसी समय ऐसे आदर्श पात्र ही कथा का आकर्षण हुआ करते थे। जिस शिल्प में ‘मुक्ति’, ‘क्षमा’, ‘अनोखा दंड’, ‘घृणा पर विजय’, ‘गुण-ग्राहक’, ‘सेवा-भाव’, ‘वीर माता’, ‘सबसे बड़ा शिल्पी’, ‘ॠणी’, ‘सहानुभूति’, ‘कर्तव्य निष्ठा’, ‘किसका बेटा’, ‘अपनी अपनी समझ’, ‘सहिष्णुता’, ‘सेवा’, ‘निर्भयता’ को प्रस्तुत किया गया है, उस शिल्प की रचनाओं को उत्कृष्ट कथ्य और चमत्कारपूर्ण प्रस्तुति के बावजूद प्रेरक प्रसंग अथवा प्रेरक संस्मरण के अन्तर्गत ही रखा जा सकता है। स्पष्ट है कि आधुनिक लघुकथा ने शिल्प को भी परिमार्जित किया है। ‘चोर की ममता’ में राजबहादुर डाकुओं के एक गिरोह द्वारा घेर लिया जाता है। वह उपकृत भी डाकू सरदार द्वारा ही होता है, तब इसका शीर्षक ‘डाकू की ममता’ क्यों नहीं है? ‘जीवन पराग’ की इसी लघुकथा को ‘कौन जीता कौन हारा’ संग्रह में ‘ममता’ शीर्षक दिया गया है।

­­‘आपकी कृपा है’ में संग्रहीत रचनाओं के बारे में विष्णु जी ने लिखा है—‘दृष्टान्त से लेकर आठवें दशक तक की ये रचनाएँ सन् 1940 से सन् 1982 के बीच लिखी गयी हैं।’ लघुकथा लेखक के तौर पर तथा आठवें दशक में उभरे लघुकथा आन्दोलन के मद्देनजर अपने बारे में विष्णु जी कहते हैं—‘मूलत: और मुख्यत: लघुकथाकार नहीं हूँ। मैं यह भी स्वीकार करूँगा कि आज लघुकथा को लेकर जो आन्दोलन उभरा है, यदि वह न उभरा होता तो सम्भवत: मेरा ध्यान इस ओर इतनी गम्भीरता से न जाता और न यह संकलन अस्तित्व में आता।’(‘दो शब्द’, ‘आपकी कृपा है’, 1982, पृष्ठ 8)

लघुकथा में शब्दों की प्रयुक्ति को लेकर कुछ उदाहरण विष्णु जी की लघुकथाओं से प्रस्तुत किये जा सकते हैं। उनकी लघुकथा ‘ईश्वर का चेहरा’ का यह अंश देखिए—

प्रभा जानती है कि धरती पर उसकी छुट्टी समाप्त हो गयी है। उसे दुख नहीं है। वह तो चाहती है कि जल्दी से जल्दी अपने असली घर जाये। उसी के वार्ड में एक मुस्लिम खातून भी उसी रोग से पीड़ित है। न जाने क्यों, वह अक्सर प्रभा के पास आ बैठती है। सुख-दुख की बातें करती है। नयी-नयी पौष्टिक दवाइयाँ, फल तथा अंडे आदि खाने की सलाह देती है।

प्रभा सुनती है, मुस्करा देती है। सबीना बार-बार जोर देकर कहती है…

उपरोक्त पैरा में विष्णु जी ने जिस भाषा का प्रयोग किया है, वह दर्शन से जुड़ती है। ‘धरती पर छुट्टी समाप्त होने’ के अर्थ कितने गूढ़ हैं उन्हें ‘असली घर’ जाने से जोड़े बिना समझना कठिन है। गद्यात्मक होते हुए भी उसमें काव्यात्मक लय है, संगीतमय प्रवाह है। शब्द प्रयोग की कला देखिए कि ऊपर वह जिस ‘मुस्लिम खातून’ को इन्ट्रोड्यूस करते हैं, उसके नाम का उल्लेख नहीं करते। आज का लघुकथाकार वाक्य का प्रयोग कुछ-कुछ यों करता है—‘सुधीर ने अपनी पत्नी संजना से कहा…’ विष्णु जी की शब्द-प्रयोग कला इस वाक्य को यों प्रस्तुत करती—‘सुधीर ने अपनी पत्नी से कहा…’ और पत्नी के ‘संजना’ नाम को बड़ी कुशलता से वे आगे के किसी अन्य प्रसंग में स्पष्ट करते।

आज दुनियाभर में आतंक का पर्याय भले ही कोई न कोई मुस्लिम नाम है; लेकिन भारतीय साहित्य और सिनेमा, दोनों में मुस्लिम नाम सहयोग और सामाजिक समरसता का प्रतीक रहे हैं। विष्णु प्रभाकर जी लिखते हैं—‘उसे बराबर लगता रहा कि ईश्वर का अगर कोई चेहरा होगा तो सबीना के जैसा ही होगा।’ ‘मोहब्बत’ शीर्षक लघुकथा में व्यक्त हुआ है कि ‘ईद का दिन था। उस गाँव में ऐसा रिवाज था कि उस दिन हिन्दू लोग अपनी गाय-भैंसों का दूध मुसलमानों में बाँट देते थे।’ यह हिन्दू सदाशयता और सहयोग का चित्रण है। इसके बरक्स मुस्लिम सहृदयता का उदाहरण विष्णु जी की लघुकथा ‘और बहन राह देखती रही’ में हुआ है।

हिन्दू मुसलमानों के बीच जो सामाजिक दुराव था, वह भी विष्णु जी की लघुकथाओं में बड़ी ईमानदारी और साहस से पेश हुआ है। ‘पहचान’ में वह लिखते हैं—

‘बालिका झिझक रही थी। मुसलमान होकर वह हिन्दू युवक के पास कैसे बैठ सकती थी; लेकिन उसे बैठना पड़ा।’

‘मोहब्बत’ में दिखाते हैं—

मेरे चाचा पास ही खड़े थे। वे मुस्कुराये। बोले, “तुम्हारे घर की सिवैयाँ क्या हम खा सकते हैं? किसने दी हैं?”

माँ भी वहीं खड़ी थीं। वह समझ गयीं। बोलीं, “बेटे, हम लोग तुम्हारी पकायी हुई सिवैयाँ नहीं खा सकते। तुम बहुत अच्छे हो। इन्हें वापिस ले जाओ।”

लघुकथा ‘खद्दर की धोती’ में दो प्रयोग आकर्षित करते हैं। पहला—‘तत्कालीन हर प्रगतिशील धारा में वह बड़ी कुशलता से तैरते थे।’ दूसरा—‘उन्होंने झुककर उस धोती को देखा, परखा और फिर उसके गाल पर एक तमाचा मारा—“स्साला! यह धोती है या टाट!! बित्ता भर का लौंडा, पहनेगा मन-भर की धोती। चल हट।” यह दूसरा वाला, पारम्परिक पिता का यथार्थ चित्रण है। बेटे के गाल पर अनायास तमाचा जड़ देना उक्त काल के पिता का जैसे सार्वभौमिक अधिकार था। इस परिप्रेक्ष्य में ‘शैशव की ज्यामिति—तीन कोण’ भी विशेष द्रष्टव्य है।

विष्णु जी की अनेक लघुकथाओं में मनोविश्लेषणात्मक अभिव्यक्ति देखते ही बनती है। ‘पूज्य पिताजी’, ‘कौन जीता कौन हारा’ आदि अनेक लघुकथाओं में इसे रेखांकित किया जा सकता है। लघुकथा ‘पहचान’ का यह दृश्य देखें :

बालिका ने बुर्का उठाकर उसकी ओर देखा। वह पठान थी। अवस्था होगी चौदह-पन्द्रह वर्ष, पर रूप की जैसे प्रतिमा हो। वैसा ही सुमिष्ठ था उसका स्वर।

बोली, भाईजान, आप कहाँ जा रहे हैं?

तब तक वह न जाने कहाँ पहुँच गया था। क्या-क्या प्रिय-अप्रिय सोच गया था। ‘भाईजान’ सम्बोधन सुनकर काँप उठा। यह सजगता, यह अवस्था!

उत्तर दिया, काजीहौज जा रहा हूँ।

‘पहचान’ लघुकथा में ही यह प्रयोग देखिए—‘घोड़ा दौड़ रहा था और सड़क बहुत तेजी से पीछे छूट रही थी। शायद इतनी ही तेजी से ग्रेटा गारबो ट्रेन के आगे गिरी थी…’

‘किस्मत की फाइल’, ‘मणि का प्रभाव’, ‘धन्य है आपकी परख’, ‘ईर्ष्या’ आदि पुरातन कलेवर वाली लघु-आकारीय कहानियाँ ही हैं, लघुकथा नहीं। ‘मेरा यक्ष’ जैसी लघुकथाएँ लिखने के पीछे विष्णु जी की पीढ़ी के कथाकारों का कुछ मन्तव्य हो सकता है; लेकिन आज के कथाकार के लिए इस तरह के कथ्य को प्रस्तुत करने का कोई कारण नजर नहीं आता है। ‘दो बच्चों का घर’ दृश्य प्रति दृश्य एक सुन्दर कथा है। इसमें हर दृश्य जीवन्त है। मुख्य बात इसमें यह है कि बच्चे भी अपने परिवार के प्रति उतनी ही जिम्मेदारी महसूस करते हैं, जितनी कि बड़े लोग। ‘नाम और काम’ निष्काम सेवा का उदाहरण प्रस्तुत करती कथा है। ‘आँखों देखा झूठ’ का विशेष स्थापत्य यह है कि ‘कभी-कभी आँखें वही देखती हैं जो मन और मस्तिष्क उसे देखने के लिए कहते हैं।’

शेष आगामी अंक में…………

 

               सम्पादक/ संजय कुमार गर्ग; सहायक सम्पादक/निशा निशान्त 

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