बुधवार, 19 जुलाई 2023

कथाकार नेतराम भारती की बलराम अग्रवाल से बातचीत, भाग-1

नेतराम भारती
कवि-कथाकार नेतराम भारती ने गत दिनों साहित्य, विशेषत: लघुकथा साहित्य की वर्तमान दशा और दिशा पर केन्द्रित एक लम्बी बातचीत लघुकथाकार बलराम अग्रवाल से की। उक्त बातचीत को उन्होंने जनवरी 2024 में प्रकाशित स्वयं द्वारा संपादित पुस्तक 'लघुकथा:चिंतन और चुनौतियाँ' में संकलित किया है। प्रस्तुत है उक्त बातचीत का प्रथम अंश :
  

सर ! मेरा पहला प्रश्न है लघुकथा आपकी नज़र में क्या है ? नवलघुकथाकारों के लिए सरल शब्दों में कृपया बताएं ।

सुरुचि सम्पन्न लघु-आकारीय कथा ही मेरी नजर में लघुकथा है।

बलराम अग्रवाल
सुरुचि-सम्पन्नता का सम्बन्ध मूल्यों से होता है। मूल्य क्या हैं? लोककल्याणकारी भाव, विचार और उनकी स्थापना की दिशा में किये जाने वाले समस्त कृत्य मूल्य कहे जाते हैं। मूल्य-रक्षा के भाव को ही हमारे यहाँ सुमति कहा गया है और मूल्यों की अवहेलना को कुमति। इसमें एक जिज्ञासा यह भी उत्पन्न होती है कि ‘लघु-आकार’ की सीमा क्या है—शब्द या लम्बाई? इसके मेरी दृष्टि में दो उत्तर हैं। दोनों ही लम्बाई से सम्बन्धित हैं। लघुकथा की अधिकतम लम्बाई डिमाई आकार की पुस्तक में आमने-सामने के दो पृष्ठों तक मानी जा सकती है। दूसरी लम्बाई समयावधि से सम्बन्धित है; यह कि लघुकथा-पाठ की अधिकतम अवधि 3 मिनट तक होनी चाहिए।

लघुकथा सघन अनुभूति की सुगठित प्रस्तुति है। बेशक, बहुत-सी लघुकथाएँ सरल रेखीय अभिव्यक्ति में मिलती हैं फिर भी, सिर्फ सरल रेखीय अभिव्यक्ति ही समकालीन लघुकथा नहीं है। उनमें कुछ तिर्यक तत्व भी रहता ही है; यानी कुछ संकेत, कुछ व्यंजना, कुछ रूपक, कुछ प्रतीक, कुछ बिम्ब। बिना इनके लघुकथा की काया को अनुशासित रखना भी बड़ी चुनौती है।

सर ! आज बहुतायत में लघुकथा सर्जन हो रहा है । बावजूद इसके, नए लघुकथाकार मित्र इसकी यात्रा, इसके उद्भव ,इसके पड़ावों से अनभिज्ञ ही हैं । आपने प्रारंभ से अब तक लघुकथा की इस यात्रा को न केवल करीब से देखा ही बल्कि उसे दिलोजान से जिया भी है । कैसे आँकते हैं आप इस यात्रा को?

(बाएँ से) डॉ॰ बलराम अग्रवाल से बातचीत करते हुए नेतराम भारती

नेतराम जी, लघुकथा की यात्रा इस अर्थ में बहुत दयनीय है कि इसके नाम पर कोई कुछ भी लिख डाल रहा है। सोशल मीडिया की सर्व सुलभता ने रचना प्रकाशन और प्रशंसा बटोरन, दोनों को अत्यन्त आसान कर दिया है। किसी रचना या रचनाकार पर लम्बे विचार-विमर्श का न तो यहाँ अवकाश ही किसी के पास है और न उसकी आवश्यकता ही कोई महसूस करता है। ग़ज़ल आदि लघु आकार की लगभग सभी विधाओं में ऐसा हो रहा है; लेकिन गद्य में लिखी जाने और दोहा-ग़ज़ल जैसा मात्रा संबंधी अनुशासन न होने के कारण लघुकथा इसकी चपेट में तेजी से आ रही है। यह स्थिति पीड़ादायक है लेकिन सर्वथा निराशाजनक नहीं है। इन अनगिनत अनुशासनहीनों और जल्दबाजों के बीच ही अनेक धैर्यशील कथाकार और विचारक भी पनपे हैं।

 सर ! अब जो प्रश्न मैं आपसे पूछ रहा हूँ वह इसलिए भी आवश्यक और प्रासंगिक हो जाता है क्योंकि आजकल कई प्रकार के लेखक हमें लघुकथा के क्षेत्र में देखने को मिल रहे हैं । जैसे कुछ, मात्र अपने ज्ञान, अपने पांडित्य-प्रदर्शन के लिए लिखते हैं, कतिपय समूह-विशेष को खुश करने के लिए लिखते हैं या पुरस्कार-लालसा के लिए लिख रहे हैं।  वहीं, कुछ ऐसे भी लघुकथाकार हैं जो लघुकथा-लेखन को सरल विधा मान बैठे हैं जिसके कारण उनकी रचनाओं में न कोई शिल्प होता है और न ही कोई गांभीर्य। तो ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि साहित्य सर्जन का उद्देश्य क्या है ?

साहित्य सर्जन का उद्देश्य तो सभी के लिए समान है, कोई उस ओर चले न चले। वरिष्ठ हों या नवागत, लेखकों में अधिकतर सिर्फ लेखक ही होते हैं, सर्जक बहुत कम होते हैं। सर्जन का संबंध समुचित अध्ययन और चिंतन-मनन और लेखन की दिशा निर्धारित करने से है। उदाहरण के लिए, ईंट बनाना भी सर्जन है और इमारत बनाना भी; लेकिन जो आदमी ईंट बनाता है, वह उम्रभर अपना मकान नहीं बना पाता, यह त्रासदी है। दूसरी ओर, बहुमंजिला इमारतों और मॉल्स के वास्तुकारों और मालिकों में सभी ने कभी ईंट बनती देखी हो, जरूरी नहीं; यह भी एक त्रासदी ही है। दोनों त्रासदियाँ दो ध्रुवों पर खड़ी रहकर निर्माण कार्य में संलग्न हैं। अब, उल्टा-सीधा थापने वाले को न तो आप थपेरा मान सकते हैं, न उसके थापे हुए का उपयोग भवन निर्माण में कर सकते हैं। 

 एक तरफ तो कहा जाता है कि साहित्य पाठक की भाषा का भी परिष्कार करता है उसके शब्द भंडार में बढ़ोतरी करता है; वहीं दूसरी तरफ साहित्य में भाषा को सहज-सरल रखने की भी वकालत की जाती है । साहित्य में विशेषकर लघुकथा में क्लिष्ट शब्दों, बिम्बों, प्रतीकों की अनिवार्यता-अधिकता होने से लघुकथा से उसके पाठक-वर्ग का मोहभंग होने का खतरा तो नहीं है? मैं लघुकथा के पाठक की बुद्धि क्षमता पर प्रश्न नहीं उठा रहा हूँ, बस जानना चाहता हूँ कि आप लघुकथा में भाषा के किस प्रयोग के पक्षपाती हैं ?

नेतराम जी, भाषा के जिस रूप को हम नहीं जानते, उसे जानने के लिए प्रयत्नशील नहीं होते बल्कि ‘क्लिष्ट’ कहकर उससे पीछा छुड़ा लेने की प्रवृत्ति हममें पनप गयी है। उदाहरण के लिए कुछ शब्द मैं आपको बताता हूँ जिनका प्रयोग भरतमुनिकृत ‘नाट्यशास्त्र’ की व्याख्या में हुआ है। रोषपूर्ण कहे गये वाक्य को ‘सम्फेट’ कहते हैं। शंका, भय और त्रास के कारण होने वाली भगदड़ ‘विद्रव’ कही जाती है। अंगों का छेदन करने के कारण शस्त्र-युद्ध को ‘छेद्य’ और तोड़ने-मरोड़ने के कारण मल्ल-युद्ध को ‘भेद्य’ कहा जाता है। इनमें कोई भी शब्द क्लिष्ट नहीं है बशर्ते इनके उद्गम से हम परिचित हों। छेदना और भेदना तो ग्राम्य शब्द हैं। आगे हमने ‘उपद्रव’ तो सीखा है, ‘विद्रव’ को नहीं जाना। गीता के एक श्लोक के माध्यम से ‘छिन्दन्ति’ को पढ़ा है, ‘छेद्य’ से परिचित नहीं हैं।

दूसरी ओर, सबसे पहले तो यह जानना जरूरी है कि ‘भाषा’ कहते किसे हैं। प्रश्न केवल क्लिष्ट शब्दों, बिम्बों, प्रतीकों के प्रयोग या उसकी अनिवार्यता का नहीं है; भाषा के नंगेपन का, गाछ के पत्रविहीन होने का भी है। काव्य में भक्तिकालीन कवियों की भाषा सहज, सरल है; लेकिन कबीर की ही अनेक साखियों का अर्थ-तात्पर्य किसी कबीर-विशेषज्ञ की सहायता के बिना नहीं समझा जा सकता। गद्य में भारतेंदु तत्पश्चात् प्रेमचंद की भाषा सहज, सरल है; लेकिन उसे आप सौंदर्यविहीन नहीं कह सकते। भाषिक सौंदर्य वहाँ भरपूर है। तुलसीदास जी कहते हैं—बसन हीन नहिं सोह सुरारी, सब भूषन भूषित बर नारी। यहाँ अगर ‘नारी’ में हम भाषा को निरूपित मान लें तो निश्चित ही वह वस्त्रहीन अच्छी नहीं लगेगी। अपने प्रश्न में जो आपने गिनाये हैं वे भाषा के आभूषण हैं। लेकिन जरूरी तो नहीं कि सभी आभूषणों को एक-साथ लादकर अपने धनाढ्य होने की डींग हाँकी जाए और उपहास का पात्र बना जाए। गोस्वामी तुलसीदास ने भाषा को ‘वर्णानाम् अर्थसंघानाम्’ कहा है यानी शब्दों के समूह मात्र को भाषा नहीं कहते, उस समूह का अर्थवान् होना आवश्यक है। जिसे कथा अथवा काव्य की भाषा कहते हैं उसमें शब्द, संवाद अथवा वाक्य का केवल अर्थ (मीनिंग) ग्रहण नहीं किया जाता, तात्पर्य (परसेप्शन) भी ग्रहण करने का अभ्यास पाठक और श्रोता को होना चाहिए। तुलसीदास जी अपनी कविता के बारे में ‘भासा भनिति भोरि मति मोरी’ जैसी घोषणा भी करते हैं। तात्पर्य यह कि उन्होंने बोलचाल की भाषा को ही लेखन की भाषा माना है। अब, बोलचाल में तो गालियों का भी खुला लेन-देन होता है। बोलचाल में तो ईर्ष्या और द्वेष भरे शब्द भी खूब उछाले जाते हैं। तब? भाषा दरअसल, मर्यादा भी है। गाली कैसे दी जाए, ईर्ष्या और द्वेष को कैसे व्यक्त किया जाए, यह सिखाने का दायित्व निर्वाह शास्त्र ने बखूबी किया है। आज भी यह दायित्व साहित्यिकों का है, अनुशासनहीनों और उच्छृंखलों का नहीं है।

      सर ! आप लघुकथा के लिए—'लघुता में प्रभुता' की बात करते हैं । आजकल देखने में आ रहा है कि लघुकथा की शब्द सीमा को लेकर पूर्व की भाँति सीमांकन नहीं है बल्कि एक लचीलापन देखने में आ रहा है । अब आकार की अपेक्षा कथ्य की संप्रेषणीयता पर अधिक बल है। कह सकते हैं कि जिस प्रकार एक नाटक में उसका रंगमंच निहित होता है उसी प्रकार एक लघुकथा में भी उसके कथ्य, उसके शिल्प में उसकी शब्द सीमा निहित रहती है । मैं छोटी बनाम लंबी लघुकथाओं की बात कर रहा हूँ । आप इसे किस रूप में देखते हैं?

       लघुकथा में शब्द-सीमा को लेकर बहस चलती रही है लेकिन उस सम्बन्ध में किसी तरह की ऊहापोह हममें कभी नहीं रही। लघुकथा लेखन के अपने आरम्भिक काल से ही शब्द-संख्या वाले ‘व्हिप’ अथवा 'फतवे' को हमने नहीं माना। आकार सीमांकन की अपेक्षा कथ्य की संप्रेषणीयता पर ध्यान केन्द्रित रखा। सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, कमल चोपड़ा, भगीरथ, मोहन राजेश, पृथ्वीराज अरोड़ा आदि किसी भी प्रमुख समकालीन लघुकथाकार ने शब् द-सीमांकन के फतवे की परवाह नहीं की। अपने यहाँ कहावत हैसहज पके सो मीठो होय। लघुकथा में उसका कथ्य निहित रहता है, शिल्प भी किसी न किसी रूप में निहित रहेगा ही; लेकिन शब्द सीमा नहीं, अभिव्यक्ति की पूर्णता निहित रहती है; उसी का निहित रहना महत्वपूर्ण है।   
 
शेष आगामी अंक में… 

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

भरपूर ज्ञानवर्धक जानकारी मिली इस बातचीत में।

बेनामी ने कहा…

महत्वपूर्ण और ज्ञानवर्धक साक्षात्कार। आदरणीय बलराम सर और प्रिय लेखक बन्धु नेतराम जी को बहुत -बहुत धन्यवाद।
निर्मल कुमार दे
जमशेदपुर