भारतीय स्वाधीनता आंदोलन को सकारात्मक स्वरूप और तीव्रता देने वाले अनेक कारक हैं। स्वाधीनता प्राप्ति हेतु पहला विद्रोह 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध में बंगाल में संन्यासियों द्वारा किया गया था, जिसे आधार बनाकर बंकिमचन्द्र चटर्जी ने 'आनन्दमठ’ की रचना की। अंग्रेजों का आकलन था कि आमतौर पर भारतीय जन असंस्कृत, अशिक्षित और अविकसित हैं। इस समाज की क्रीमी लेयर को अगर कुछ सुख-सुविधा देकर अपने पक्ष में मोड़े रखा जाए तो इस जाति पर अनन्त काल तक शासन किया जा सकता है। अपने इस आकलन के मद्देनजर ए. ओ. हयूम के माध्यम से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। प्रारम्भ में उसका उद्देश्य क्रीमी लेयर और अंग्रेज अफसरों के बीच प्रशासकीय स्तर का तारतम्य बनाए रखना था।
भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के मुख्यत: दो पक्ष हैं।
सौजन्य : अशोक जैन, गुरुग्राम (हरियाणा), आशा खत्री 'लता', रोहतक (हरियाणा) |
मानसिक द्वंद
प्रेमचंद की सभी कहानियाँ पात्रों के मानसिक द्वंद के माध्यम से कथ्य को आगे बढ़ाती हैं। प्रेमचंद की कहानी ‘समरयात्रा’ की बूढ़ी नोहरी के माध्यम से वह कहते हैं—‘धन्य हैं महात्मा और उनके चेले, कि दोनों का दुःख समझते हैं, उनके उद्धार का जतन करते हैं।’ ‘जुलूस’ का मैकू कहता है—‘हमारा बड़ा आदमी तो वही है जो लंगोटी बाँधे नंगे पाँव घूमता है, जो हमारी दशा को सुधारने के लिए अपनी जान हथेली पर लिए फिरता है।’ प्रेमचंद की कहानियों के पाठकों को यह सवाल रह-रहकर आंदोलित कर सकता है कि उस समय में, जबकि कांग्रेस पर गर्म-पक्षीय नेताओं की अच्छी पकड़ थी, और कांग्रेस से बाहर अनेक क्रांतिकारी दल सशस्त्र रूप से सक्रिय थे, उनकी किसी भी कहानी में सशस्त्र आंदोलन की पक्षधरता क्यों नहीं है! अपनी कहानियों में प्रेमचंद न सुभाषचंद्र बोस के बारे में कुछ बोलते हैं और न गदरपार्टी के किसी सिपाही के बारे में! उन्होने चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह और उनकी समाजवादी नीतियों पर कथात्मक कलम क्यों नहीं चलाई, जबकि कानपुर उन दिनों प्रेमचंद, गणेश शंकर विद्यार्थी, भगतसिंह, आजाद, शिव वर्मा आदि अनेक क्रांतिकारियों की कर्मभूमि था। अमृतराय ने लिखा है—‘प्रेमचंद सर्वप्रथम आर्यसमाजी थे, बाद में कुछ और।’ परन्तु आर्यसमाजी होने का मतलब क्रांतिकारी विचारधारा से असहमति तो नहीं हो सकता। भगतसिंह आदि अनेक क्रान्तिकारियों की पारिवारिक पृष्ठभूमि आर्यसमाजी ही थी।
वस्तुतः प्रेमचंद की मन:स्थिति को जानने के लिए हमें उनकी पारिवारिक आर्थिक स्थिति पर गहरी नजर डालनी होगी।
गांधीवादी अहिंसक
दैवी आपदाओं ने भी उनके मानस को लगातार कमजोर किया होगा। बचपन में ही माता की मृत्यु, पिता द्वारा पुनर्विवाह और फिर विमाता और उससे उत्पन्न बच्चों का बोझ प्रेमचंद पर डालकर उनका देहावसान, जीविका के तौर पर मात्र नौकरी पर निर्भरता आदि अनेक ऐसे कारण है जो उन्हें गांधीवादी अहिंसक बनने और बने रहने को विवश करते रहे होंगे।
अगर पाठान्तर की बात करें तो प्रेमचंद की अनेक कहानियों के कम से कम दो पाठ नजर आ सकते हैं। 'खूनी' अथवा ‘प्रतिशोध’ प्रेमचंद की एकमात्र कहानी है, जिसमें हिंसा का यानी कि सरकारी बेरिस्टर मनमोहन व्यास की हत्या का मौन समर्थन किया गया है। उनकी कहानियों के पात्र समाज के निम्न अथवा निम्न-मध्य वर्ग के संघर्षशील पात्र हैं। वे गरीब है, अंग्रेज साहब के मातहत हैं, परन्तु निराभिमानी नहीं हैं। आत्माभिमान उनमें इस हद तक भरा है कि छलक-छलक पड़ता है। आत्माभिमान का यह स्तर समूचे आम भारतीय मानस का प्रतिनिधित्व करता लगता है। स्वाधीनता आंदोलन के स्वरूप पर वक्ता, पत्र-लेखक प्रेमचंद के विचार उनके तत्संबंधी साहित्य के माध्यम से ही बेहतर जाने जा सकते हैं। उस पर प्रेमचंद की मान्यताएँ और गहराइयाँ क्या थीं, उन्हें रेखांकित करने में उनकी अनेक कहानियाँ सक्षम हैं।
(प्रकाशित: 'हरिभूमि', रोहतक संस्करण, 1 अगस्त, 2022)
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