बातचीत करते हुए बलराम अग्रवाल और नेतराम भारती |
सर ! 'श्री 420' का एक लोकप्रिय गीत है-'प्यार हुआ, इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यूँ डरता है दिल।' इसके अंतरे की एक पंक्ति 'रातें दसों दिशाओं से कहेंगी अपनी कहानियाँ' पर संगीतकार जयकिशन ने आपत्ति की। उनका खयाल था कि दर्शक 'चार दिशाएँ' तो समझ सकते हैं-'दस दिशाएँ' नहीं। लेकिन शैलेंद्र परिवर्तन के लिए तैयार नहीं हुए। उनका दृढ़ मंतव्य था कि दर्शकों की रुचि की आड़ में हमें उथलेपन को उन पर नहीं थोपना चाहिए। कलाकार का यह कर्तव्य भी है कि वह उपभोक्ता की रुचियों का परिष्कार करने का प्रयत्न करे। क्या एक लघुकथाकार के लिए भी यह बात सटीक नहीं बैठती ?
सौ प्रतिशत सटीक बैठती है। नेतराम जी, साहित्य का उद्देश्य रंजन मात्र न होकर रुचिरता का प्रसार है; जन-मानस को उत्तेजित करना न होकर उद्बोधित करना है; नयी प्रवृत्तियों के प्रति जिज्ञासु बनाना है। उदाहरण के लिए, रावण का मूल नाम दशानन है। उसके नामकरण से पहले आनन सिर्फ चार थे—चतुरानन यानी ब्रह्मा। जिस काल में मनुष्य को मात्र चार दिशाओं का ज्ञान था, उसमें उसकी कल्पना ‘चतुरानन’ तक सीमित थी। आगे, प्रत्येक दो दिशाओं के बीच उस कोण पर जहाँ उक्त दोनों दिशाओं का चुम्बकीय क्षेत्र समान अथवा शून्य होता है, उसने एक स्वतन्त्र दिशा निर्धारित की। खगोल विज्ञान में वह नयी खोज थी और उस नयी खोज को मनुष्य में आरोपित कर उसका नाम रखा गया—दशानन। पूर्व व उत्तर के मध्य—ईशान; पूर्व व दक्षिण दिशा के मध्य—आग्नेय; दक्षिण व पश्चिम दिशा के मध्य—नैॠत्य तथा पश्चिम व उत्तर दिशा के मध्य—वायव्य दिशा नाम दिया । इनके अतिरिक्त नौवीं दिशा ऊर्ध्व यानी ऊपर और दसवीं दिशा अधो यानी नीचे मानी गयी।
सर! कृपया बताएं कि लेखक के कृतित्व पर उसके व्यवसाय का कितना असर पड़ता है जैसे उदाहरण के तौर पर आप ऑडिट के क्षेत्र से हैं I ऑडिट में तो बहुत सूक्ष्मता से संबंधित कार्य की पड़ताल करनी होती है, आकलन करना होता है l मैं आपसे ही पूछता हूँ कि इससे आपको लेखन में कितनी सहायता मिली, मिली भी या नहीं ? प्रोफेशन लेखन में कितना सहायक सिद्ध होता है?
मुझ-जैसे निम्न मध्यवर्गीय व्यक्ति के लिए आज के समय में व्यवसाय का अर्थ होता है—जीविका। जान चली जाए, जीविका नहीं जानी चाहिए। जीविका यानी सातों दिन, चौबीसों घंटे उस बिन्दु से जुड़े रहना जो आपकी, आपके माता-पिता, आपकी पत्नी और बच्चों की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति को सीधे-सीधे प्रभावित करता है। जीविका के तौर पर ऑडिट दायित्व मुझे मिला, उसे मैंने चुना नहीं था, नियति द्वारा उसमें धकेल दिया गया था। ऐसे में अगर आप रचनात्मक लेखन से भी जुड़े हैं तो स्पष्ट है कि विभाजित व्यक्तित्व जीने को शापित रहते हैं। दिनभर मैं दो जमा दो चार करता था और रात में क र कर, च ल चल; यानी दिन में अंकों की उस दुनिया में रहता था जो परिवार को पालने के लिए आवश्यक थी और रात में शब्दों की दुनिया से जा जुड़ता था जो साँस लेने के लिए आवश्यक थी, जीवन का आधार थी। जिनके आप साथ रहते हैं, वो आपकी आदत बन जाते हैं। ऑडिट के साथ रहते-रहते वह मेरी आदत बन गया। पूर्व में विज्ञान का विद्यार्थी रहा इसलिए ‘क्या’, ‘क्यों’, ‘कैसे’ मेरी सोच में घुसे हुए थे। आगे, मनोविश्लेषण का विद्यार्थी रहा तो वहाँ भी बाल की खाल उधेड़ने जैसा काम। लेखन में, बेशक, ये सब मेरी आदत हैं।
सर! असल में प्रयोग है क्या? लोग प्रयोग के नाम पर प्रयोग तो कर रहे हैं, पर क्या वास्तव में वे प्रयोग हैं? कहीं ऐसा तो नहीं अंधेरे में ही तीर चलाया जा रहा है l अगर ऐसा है, तो निशाना तो दूर की बात, नुकसान होने की संभावना अधिक है l आप इसपर क्या कहना चाहेंगे? साहित्य में सार्थक प्रयोग किस प्रकार किया जाए?
सार्थक प्रयोग की दिशा में बढ़ने के लिए साहित्य के अतीत से परिचित होना आवश्यक है। क्या-क्या और कैसे-कैसे लिखा जा चुका है, यह जान लेना आवश्यक है। ‘प्रयोग’ का अर्थ होता है—कुछ नया पाने की ओर अग्रसर होना। ‘नया’ का निर्धारण ‘पुराने’ का निर्धारण किये बिना, ‘पुराने’ को जाने बिना नहीं हो सकता। अगर हम अध्ययनशील नहीं हैं, अगर हमने लघुकथा की कथ्य-प्रकृति, उसकी भाषा, उसके गठनात्मक अनुशासन को नहीं जाना है तो ऊल-जलूल लिखेंगे ही और हर ऊल-जलूल को ‘प्रयोग’ कहने से बाज भी नहीं आयेंगे।
सर ! कुछ साहित्यकार लघुकथा को लेखकविहीन विधा कहते हैं परंतु लेखक तो किसी भी विधा के प्रत्येक शब्द-भाव में उपस्थित रहता ही है, फिर ऐसा कहना विधा के प्रति नकारात्मक भाव को पोषण देना नहीं है ? इस पर आपका क्या विचार है?
‘लघुकथा लेखकविहीन विधा है’—एक बातचीत के दौरान सबसे पहले यह बात डॉ॰ कमल किशोर गोयनका ने मुझसे कही थी। उनकी इस स्थापना से असहमति जताते हुए मैंने एक लेख भी लिखा था जो शायद 1988 में ‘अवध पुष्पांजलि’ के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित हुआ था। इस पर काफी बहस हुई। बाद में, एक मुलाकात के दौरान डॉ॰ गोयनका ने मुझे समझाया कि कथा में ‘लेखकविहीनता’ कहते किसे हैं। बस, तभी से मैं उनके कथन से सहमत हो गया। रचना में लेखक की जिस उपस्थिति की बात आप कह रहे हैं, वह अगोचर उपस्थिति है। लघुकथा में लेखक का गोचर हो जाना ही वह स्थिति है, जिससे बचने की सलाह लघुकथा आलोचक देते रहे हैं। लघुकथा में ‘मैं’ पात्र होने के बावजूद लेखक उपस्थित नहीं होता है जबकि इससे इतर प्रस्तुति में उसकी उपस्थिति दीख भी जाती है और लघुकथा के कला-पक्ष को बाधित भी कर जाती है।
सर ! आजकल सभी बहुत जल्दी में है l ठहराव, कुछ क्षण रुककर सोचने-देखने का अवकाश किसी के पास नहीं है l सभी जल्दी से लेखक बनकर साहित्याकाश में छा जाना चाहते हैं, जल्दी प्रसिद्धि पा लेना चाहते हैं, अध्ययन-स्वाध्याय से दूरी है l ऐसे में साहित्य का या उस लेखक का कुछ भला होगा, इसपर प्रश्नचिह्न है l आप इसपर क्या प्रतिक्रिया देना चाहेंगे ?
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