सर ! ऐसे कौन-से तत्व या महत्वपूर्ण घटक हैं जो किसी भी विधा को दीर्घकाल तक जिंदा बनाए रखने के लिए जरूरी होते हैं ? क्या आप ऐसे किन्हीं तत्वों के बारे में बताना पसंद करेंगे ?
मेरी दृष्टि में मानवीय सरोकार, संवेदनशीलता और ईमानदार अभिव्यक्ति—ये ही घटक हैं जो किसी भी रचना को दीर्घकाल तक जीवित रखने की क्षमता रखते हैं।
सर ! क्या कारण है कि अभी तक लघुकथा में कोई बेस्टसेलर संग्रह उभरकर नहीं आया है l अच्छी तरह से जानता हूँ कि यह प्रश्न बहुत जल्दी पूछा जा रहा है फिर भी, लघुकथा में क्या कोई ऐसा लघुकथाकार है या ऐसे लघुकथाकार हैं जो आगे चलकर अपने नाम से ही पाठकों को खींच पाने में समर्थ होंगे l ऐसी कोई संभावना आप देखते हैं?
‘बेस्टसेलर’ विशुद्ध व्यापारिक फंडा है। यह यूरोपियन बाजार की देन है। साहित्यिकता से इसका बहुत ज्यादा सम्बन्ध नहीं है। बेस्टसेलर होने के लिए किताब का प्रचारात्मक त्वरा से भरपूर धनाढ्य प्रकाशक के यहाँ से छपना आवश्यक है। मैं समझता हूँ कि दुनिया में आज भी धार्मिक किताबें ही बेस्ट्सेलर हैं और आगे भी रहेंगी। सन् 1941 से 1982 तक गीताप्रेस गोरखपुर से अकेले ‘रामचरितमानस’ की 36 संस्करण में 12, 44, 000 प्रतियाँ छप चुकी थीं। सन् 1947 से 1952 तक गीता के 3 संस्करणों की 30,250 प्रतियाँ छप चुकी थीं । इस डाटा को भी आप कम से कम 5 से गुणा कर सकते हैं क्योंकि यह डाटा उक्त ग्रंथों के मात्र एक आकार और एक ही प्रकार का है। ये ग्रंथ अलग-अलग आकार और अलग-अलग प्रकार में छपते, बिकते हैं। लेकिन गीताप्रेस गोरखपुर ने अपने यहाँ से छपी किसी भी किताब का प्रचार कभी नहीं किया। उनके द्वारा ‘बेस्टसेलर’ कहे जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। कथा साहित्य में प्रेमचंद को बेस्टसेलर कहा जा सकता है। देश का शायद ही कोई प्रकाशक बचा हो, जिसने रॉयल्टी फ्री होते ही प्रेमचंद को न छापा और बेचा हो। गांधी, टैगोर, शरच्चन्द्र आदि कथा के क्षेत्र में बेस्टसेलर कहे जा सकते हैं। हरिशंकर परसाई की ‘विकलांग श्रद्धा का दौर’ और इब्ने इंशा की ‘उर्दू की आखिरी किताब’ मैं समझता हूँ कि अवश्य ही बेस्टसेलर रही होंगी।
चलिए, सीधे-सीधे ही पूछ लेता हूं। ऐसे कौन-से लघुकथाकार हैं जिनको पढ़ना आपको बहुत अच्छा लगता है, रुचिकर लगता है l कुछ नाम लेना चाहेंगे आप ?
जिनकी लघुकथाएँ पढ़ना मुझे अच्छा लगता है, उनमें देशी-विदेशी अनेक कथाकार हैं। जिनके नाम मैं आसानी से ले सकता हूँ उनमें मंटो, खलील जिब्रान, जकारिया तामेर, हरिशंकर परसाई, इब्ने इंशा हैं। ये सब मेरे पूर्वकालीन लेखक हैं। कुछ नाम, जो छूट भी गये होंगे, उनकी ओर से कोई शिकायत दर्ज नहीं होगी कि उनका नाम यहाँ क्यों नहीं गिनाया गया। लेकिन मेरे समकालीन झट-से गिरेबान पकड़ लेते हैं कि अमुक मंच पर, अमुक लेख, अमुक साक्षात्कार में अन्य याद रहे तो उनका नाम क्यों नहीं लिया गया। हरभगवान चावला, संध्या तिवारी, सविता गुप्ता, सीमा व्यास आदि का नाम लेने से छूट जाए तो शिकायत नहीं आएगी; अमुक-अमुक का छूट गया तो मुझे साहित्यिक निष्ठा से विहीन, बेईमान और गुटबाज कह दिया जाएगा।
सर ! बाजार की भाषा में कहूँ तो सन् 2010 के बाद लघुकथा-लेखन में बूम आया l अनेकानेक लघुकथाकार इस दौरान रुचिपूर्वक लघुकथा-लेखन के क्षेत्र में उतरे और यह सिलसिला आज भी अनवरत जारी है । तो प्रश्न यह है कि इस दौरान की लघुकथा लेखन का मूल्यांकन यदि आपसे करने को कहा जाए तो आप कैसे करेंगे ?
बलराम अग्रवाल : नेतराम जी, साहित्य हो, समाज हो या कला और शिल्प का कोई अन्य क्षेत्र, बूम आने के कभी कुछ स्थानीय, कभी प्रान्तीय, कभी राष्ट्रीय तो कभी अन्तरराष्ट्रीय कारण होते हैं। साहित्य, विशेषकर लघुकथा-लेखन के क्षेत्र में जो बूम आया, उसका सीधा सम्बन्ध संचार क्षेत्र में आई क्रान्ति से है। दिसम्बर 2017 में मैंने डॉ॰ नीरज सुधांशु के लघुकथा संग्रह में जो पंक्तियाँ लिखी थीं, मुझे लगता है कि उन्हें ज्यों का त्यों उद्धृत करना यहाँ समीचीन रहेगा—‘एकाएक इतने कवि, लेखक और विचारक उत्पन्न होने का कारण नई सूचना तकनीकों का आविष्कृत होना, उनका विकसित होना और आसानी से आम लोगों की पहुँच में आ जाना रहा। सबसे पहले, 2003 में गूगल द्वारा इंटरनेट पर ‘ब्लॉग’ की तकनीक को खरीदने की घटना घटी। सामान्य उपभोक्ता के लिए ‘ब्लॉग’ लिखने को गूगल ने मुफ्त सेवा के अन्तर्गत रखा। यहाँ से कविता, कहानी, आलोचना, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत और अनेक तरह के धार्मिक व राजनीतिक विचारधाराओं को प्रस्तुत, प्रचारित और प्रसारित करने वाले ब्लॉग लिखने और एक ही पल में देश-विदेश के हजारों पाठकों तक पहुँचने का सिलसिला शुरू हुआ। तत्पश्चात् फरवरी 2004 में अमेरिका में लॉन्च हुआ ‘फेसबुक’ 2006 में भारत आया लेकिन इसका आमजन में प्रचलन 2009-10 के आसपास ही हो पाया। यहाँ तक आते-आते ब्लॉग की दुनिया खूब हरी-भरी हो चुकी थी। हर भाषा, हर बोली में हर विषय का साहित्य, पहले जिसे न तो प्रकाशन के अवसर मिल पाते थे और न ही मंच, ब्लॉग की दुनिया में हहराने लगा। हर व्यक्ति के भीतर कहने को इतना कुछ पहले भी था; लेकिन व्यक्त करने के साधनों की गहरी कमी थी। कागज-कलम किसी तरह जुटा भी लिया तो प्रकाशन के मंच का अभाव। अपनी, स्वयं की पत्रिका निकालना हर व्यक्ति के बूते की बात थी नहीं। तात्पर्य यह कि न तो भावनाओं को कलमबद्ध करने के साधन ही सुलभ थे और न उन्हें प्रकाशित करने के मंच ही आसानी से उपलब्ध थे। ब्लॉग और फेसबुक के आने से अभिव्यक्त होने के अवसर मिले तो लेखकों, कवियों, आलोचकों की संख्या में भी यथेष्ट बढ़ोत्तरी हुई। यही नहीं, उनके पाठकों और प्रशंसकों का दायरा भी बड़ा हुआ। और फिर आया—व्हाट्सएप। सूचनाओं और चित्रों को एकदम मुफ्त यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ भेजने-लाने वाली सेवा। दर्ज करने और देखने-पढ़ने के आसान तरीकों की वजह से ‘चुपड़ी और दो-दो’ साबित हुआ व्हाट्सएप पलक झपकते ही हरदिल अजीज हो गया। 2009 में शुरू हुए व्हाट्सएप ने 2014 आते-आते दुनियाभर में अपने पाँव पसार लिए। एन्ड्रॉयड फोन के आविष्कार ने तो दुनिया को मुट्ठी में ही ला दिया। आम और खास हर व्यक्ति को इसने अपने विचार धरती के इस कोने से उस कोने तक पहुँचाने की क्षमता से लैस कर दिया। एक अध्ययन के अनुसार, आज भारत की 97 प्रतिशत आबादी व्हाट्सएप का इस्तेमाल कर रही है। मुफ्त का चंदन घिसने को मिल जाये तो दुनियाभर में हमसे बड़ा और बेहतर दूसरा कोई नंदन नहीं।
नई पीढ़ी के अधिकतर लघुकथाकार इसीलिए मुख्यत: 2010 के बाद इस क्षेत्र में आए दिखाई देते हैं। स्वयं को अभिव्यक्त करने में जिसकी लेशमात्र भी रुचि थी, उसने फेसबुक पर पहले अपना खाता खोला, फिर समूह बनाया और अपनी व दूसरों की रचना पोस्ट करना शुरू कर दिया। यही हाल व्हाट्सएप पर भी इन दिनों है। इन दोनों प्रकाशन माध्यमों ने रचनाकारों की ऐसी खेप भी तैयार कर दी है, जो वर्तनी, भाषा और लेखन के हर अनुशासन से खुद को मुक्त रखे हुए है। इस खेप में रीढ़विहीन कोई हो न हो, कमरविहीन कोई नहीं है, आप जितना चाहें उसे खुजा सकते हैं। लेकिन कमर खुजवाने और खुजाने वाले इन ‘अहो रूपम् अहो ध्वनि’ मार्का महानुभावों के बीच साहित्यिक सरोकारों के कुछ गम्भीर और अनुशासित रचनाकार भी उभरकर आए हैं।’
नेतराम भारती : अंतिम प्रश्न, एक सफल लघुकथाकार आप किसे मानते हैं, आपके अनुसार उसमें कौन-कौन से गुण अनिवार्य रूप से होने चाहिए?कार्यक्षेत्र और मानसिकताएँ भिन्न होने के कारण ‘सफल’ होने की कोई एक परिभाषा नहीं है। अर्थ केन्द्रित मानसिकता वाले व्यक्ति की नजर में ‘मूल्य’ मूर्खता और ‘नैतिकता’ पागलपन हो सकती है। सुख व सुविधापूर्ण जीवन की आकांक्षा वाला व्यक्ति ‘सादा जीवन उच्च विचार’ को मानसिक विकार ही मानेगा। किसी अन्य के विषय में क्या कहूँ? स्वयं मैं ईमानदारी और निष्ठा के साथ अपनी शक्ति और सामर्थ्य भर उद्देश्य की दिशा में लगा हूँ, मेरी दृष्टि में यही सफलता है, न कि यह कि पारितोषिकों, अलंकरणों और सम्मान पत्रों से मेरा घर अट जाए।
—वार्तालाप समाप्त—
1 टिप्पणी:
साहित्यिक रचनाओं और साहित्यकारों के संबंध में बलराम जी की बातचीत समुचित और सार्थक प्रतीत होती है। क्षमा पांडेय भोपाल
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