कवि-कथाकार नेतराम भारती ने गत दिनों साहित्य, विशेषत: लघुकथा साहित्य की वर्तमान दशा और दिशा पर केन्द्रित एक लम्बी बातचीत लघुकथाकार बलराम अग्रवाल से की। उक्त बातचीत को उन्होंने जनवरी 2024 में प्रकाशित स्वयं द्वारा संपादित पुस्तक 'लघुकथा:चिंतन और चुनौतियाँ' में संकलित किया है। प्रस्तुत है उक्त बातचीत का तीसरा अंश :
बातचीत करते हुए (बायें से) डॉ॰ बलराम अग्रवाल व नेतराम भारती |
सर! मैं जानता हूँ आप वैश्विक स्तर पर हिंदी लघुकथा को देखना चाहते हैं; फिर भी, लघुकथा के ऐसे कौन- से क्षेत्र हैं जिन्हें देखकर आपको लगता है कि अभी भी इनपर और काम करने की आवश्यकता है ?
इस सवाल के जवाब में सबसे पहले आपको चीनी प्रतिक्रियावादी कवि-कथाकार लू शुन की ‘कुत्ते का करारा जवाब’ शीर्षक कथा पढ़वाता हूँ :
मैंने देखा कि मैं एक संकरी गली से गुजर रहा था। मेरे कपड़े चिथड़े थे, भिखारी की तरह।
मेरे पीछे एक कुत्ता भौंकने लगा।
मैंने तिरस्कारपूर्वक पीछे देखा और उस पर चिल्लाया, “धत्! हुप-हुप, चुप! भौंकना बंद कर!”
वह हँसा।
“अरे नहीं!” उसने कहा, “भौंकने के मामले में मैं आदमी जैसा नहीं हूँ।”
“क्या!” मैं आपे से बाहर हो उठा। मुझे लगा कि यह मेरा जबरदस्त अपमान है।
“यह बताते हुए शर्मिन्दा हूँ कि मुझे ताँबे और चाँदी के, रेशम और कपास के, नौकरशाहों और आम नागरिकों के, मालिकों और उनके गुलामों के बीच अंतर करना नहीं आता...”
मैं मुड़ा और भाग निकला।
“थोड़ा रुको! कुछ और बात भी करते हैं...” जोर से भौंककर उसने मुझसे रुकने का आग्रह किया।
लेकिन मैं जितनी तेज दौड़ सकता था, दौड़ा। तब तक, जब तक कि सपने से बाहर निकलकर, वापस अपने बिस्तर पर नहीं आ पड़ा।
यह 1925 ई. की रचना है। संकेत और व्यंजना दोनों की ऊँचाई इसमें है। मानवेतर पात्र और मनुष्य की परस्पर बातचीत भी इसमें है। सघनता इतनी कि विस्तार की जरा-सी कोशिश से इस रचना में नौसिखिया कलम-सा झीनापन आ जाएगा। इन्हीं की एक अन्य रचना ‘द डेड फायर’ का अनुवाद मैंने ‘ठंडी आग’ शीर्षक से द्वीप लहरी के अगस्त 2003 में प्रकाशित लघुकथा विशेषांक के लिए किया था। बेशक, हिन्दी में भी इतनी खूबसूरत रचनाएँ मौजूद हैं। लेकिन देखने में आ रहा है कि गत कुछ समय से लघुकथा इस सघनता से, फंटासी से, रूपक से लगभग विरक्त होती जा रही है। लघुकथा को विश्व-स्तर पर जाने से पहले अपने समय, समाज और सरोकारों तक पहुँचना होगा। हमेशा से मेरा मानना यही है कि लघुकथा को अपनी यात्रा अपने क्षेत्र से शुरू करके प्रांत और राष्ट्र तक पहुँचानी होगी; पहले ईमानदारी से हम राष्ट्र के प्रतिनिधि हों, विश्व हमें आगे बढ़कर अपना लेगा।
एक और प्रश्न । यह शायद सभी लघुकथाकार मित्रों के जहन में घुमड़ता होगा कि आमतौर पर पत्र-पत्रिकाओं और लघुकथा आधारित प्रतियोगिताओं में एक शर्त होती है कि लघुकथा अप्रकाशित, मौलिक व अप्रसारित ही होनी चाहिए। इस आलोक में प्रश्न यह उठता है कि क्या एक बार रचना प्रकाशित हो जाने के बाद, अपनी उपयोगिता बड़े पाठक वर्ग, बड़े मंचों या अन्य पत्र-पत्रिकाओं या आलोचकों- समीक्षकों की प्रशंसा-आलोचना को प्राप्त करने का हक खो देती है ? क्या उस लघुकथा का पुनः प्रयोग नहीं किया जा सकता है ? इस पर आप क्या कहेंगे ?
पत्र-पत्रिका और लघुकथा आधारित प्रतियोगिता, दोनों अलग मंच हैं इसलिए दोनों के बारे में विचार भी अलग ही होंगे। लघुकथा के मौलिक होने का प्रमाणपत्र तो नि:सन्देह वांछित है ही। रही अप्रकाशित व अप्रसारित होने के प्रमाणपत्र की शर्त; तो प्रत्येक सम्पादक चाहता है कि रचना के प्रथम प्रकाशन का श्रेय उसके पत्र-पत्रिका को, उसके संपादकत्व को मिले। अप्रकाशित/अप्रसारित रचना माँगने वाली पत्र-पत्रिकाओं के तीन स्तर हो सकते हैं—एक वे, जो लेखक को पारिश्रमिक दे रही हैं; दूसरी वे जो गुणवत्ता की दृष्टि से उच्चावस्था में हैं तथा तीसरी वे, जिनका साहित्यिक कद भले ही पहले पायदान पर न हो, लेकिन जिनकी प्रसार संख्या अधिक है। बाकी, अधिकतर पत्र-पत्रिकाएँ पूर्व प्रकाशित लघुकथाएँ भी छाप ही रही हैं। अधिक रुकावट नहीं है।
सर ! आपके अनुसार लघुकथा-लेखन प्रक्रिया क्या है ? लघुकथा लेखन करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
इस बारे में अनेक लोगों द्वारा अनेक लेख लिखे जा चुके हैं।
सर ! लघुकथा में अक्सर कालखंड को लेकर बातें चलती रहती हैं, कालखंड दोष को लेकर विद्वानों में मतैक्य देखने में नहीं आता है । लघुकथा अध्येता को कभी इसकी शास्त्रीय व्याख्या सुनने को मिलती है तो कभी सीधे-सीधे लघुकथा ही ख़ारिज कर दी जाती है । उसे इस दुविधा और भ्रम से निकालते हुए सरल शब्दों में बताएँ कि यह कालखंड दोष क्या है और इससे कैसे बचा जा सकता है ?
नेतराम जी, अपने देश में गड्ढोंवाली सड़कों की कमी नहीं है। आपने भी गड्ढों वाली सड़कों पर अवश्य ही अनेक बार सफर किया होगा। आप अपनी साइकिल, स्कूटी, बाइक, कार में हों या बस में, वैचारिक तारतम्य उन सड़कों पर बने रहना असम्भव है। साथ ही यात्रा की स्मूथनेस, उसकी सहजता का भी आभास आपको नहीं होगा। बस, गड्ढोंवाली यह सड़क ही लघुकथा का कालदोष है। लघुकथा पढ़ते-पढ़ते पाठक को एकाएक झटका लगता है कि गत वाक्य या गत पैरा में वह जहाँ था, अब वहाँ नहीं है! मैं एक बात मानकर चलता हूँ कि जीवन में व्यक्ति का चरित्र बदलने की एक प्रक्रिया होती है। लघुकथा में भी पात्र का चरित्र बदलने की जीवन जैसी ही प्रक्रिया होती है। उस प्रक्रिया के अंकन के लिए जो स्पेस कथाकार को चाहिए, वह कहानी और उपन्यास में तो मिलता है, लघुकथा में नहीं। लघुकथा में कथ्यैक्य यानी कथ्य की एकसूत्रता अत्यंत आवश्यक है। तात्पर्य यह कि लघुकथा में दर्ज समूचा घटनाक्रम कथ्य के चारों ओर ही बुना होना आवश्यक है । ऐसा तभी संभव है जब पात्र के चरित्र में एकरूपता का निर्वहन हो। कथाकार पात्र का चरित्र बदलने की प्रक्रिया की ओर संकेत तो कर सकता है, उसे बदलना कथा में कालदोष को आमन्त्रित करने जैसा है। शिल्प-विशेष के तहत कुछ लघुकथाकारों ने यह कारीगरी की भी है; लेकिन वैसे प्रयास कड़े श्रम की अपेक्षा रखते हैं इसलिए बहुतायत में नहीं हैं।
सर ! मेरा अगला प्रश्न अनुवाद को लेकर है । चूँकि आप अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमाधारी हैं और अँग्रेजी व उर्दू भाषाओं के साहित्य का सफ़ल अनुवाद आपने किया है । उदाहरण के लिए 2016, में ऑस्कर वाइल्ड के कहानी संग्रह ‘लॉर्ड आर्थर सेविले’ज़ क्राइम एंड अदर स्टोरीज़’ का अनुवाद, मेरा प्रश्न यह है कि लघुकथा में अनुवाद का क्या भविष्य आप देखते हैं और इसी में संलग्न दूसरा प्रश्न कि अनुवाद करते समय कौन-कौन सी सावधानियां अपेक्षित हैं ?
विश्व साहित्य में अनुवाद का स्थान तब तक बना रहेगा जब पूरा विश्व एक ही लिपि और एक ही भाषा के नीचे आकर न खड़ा हो जाए। अब, बात अनुवाद संबंधी सावधानियों की। आपके एक पूर्व प्रश्न के उत्तर में मैंने लू शुन की एक लघुकथा का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है। मैंने सीधे चीनी भाषा से नहीं, अंग्रेजी से उसका अनुवाद किया है। वह लू शुन की रचना के अंग्रेजी पाठ का शब्दश: अनुवाद नहीं है। वस्तुत: तो अनुवाद न होकर वह हिन्दी रूपान्तर है। बहुत सम्भव है कि जिन सज्जन ने चीनी से अंग्रेजी में किया हो, उन्होंने भी यही छूट ली हो। अनुवाद न करके रूपान्तर किया हो। वाक्यों और संवादों में सहजता और स्वाभाविकता लाने के लिए वह आवश्यक है। लेकिन उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इस तरह रूपान्तरित होते-होते कहीं से कहीं जा पहुँचती है। इसीलिए कहा जाता है कि अनुवादक को स्रोत और अनुवाद, दोनों भाषाओं की जमीनी समझ होनी चाहिए।
शेष आगामी अंक में…
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