कवि-कथाकार नेतराम भारती ने गत दिनों साहित्य, विशेषत: लघुकथा साहित्य की वर्तमान दशा और दिशा पर केन्द्रित एक लम्बी बातचीत लघुकथाकार बलराम अग्रवाल से की। उक्त बातचीत को उन्होंने जनवरी 2024 में प्रकाशित स्वयं द्वारा संपादित पुस्तक 'लघुकथा:चिंतन और चुनौतियाँ' में संकलित किया है। प्रस्तुत है उक्त बातचीत का चौथा अंश :
(बाएँ से) बातचीत करते हुए बलराम अग्रवाल और नेतराम भारती |
नेतराम
जी,
संचार क्रांति और सोशल मीडिया की सर्वसुलभता कारण दुनिया में
दूर-दूर की चीजें मनुष्य के बहुत पास आ गयी हैं। डिस्कवरी चैनल में गहन वनों,
ग्लेशियर्स या समुद्र के नीचे के अद्भुत संसार को देखते हुए मेरी
माताजी कहा करती थीं--पूरी दुनिया इस डिब्बे में समायी हुई है, उसके जिस हिस्से को देखना चाहो, देख लो। दृश्य ही
नहीं, दूर-दराज के एहसास भी बहुत निकट आ गये हैं। दुनिया के
विभिन्न कोनों में बैठे लोगों का दृश्य-विशेष को देखकर समान संवेदना से भर उठना
असंभव नहीं है। उससे प्रेरित या उद्वेलित होकर अलग-अलग जगहों के लोग स्पष्ट है कि
घटना तो समान ही उठाएँगे; लेकिन उनके ट्रीटमेंट में भिन्नता
होगी, ऐसा मेरा मानना है। अगर कोई व्यक्ति ट्रीटमेंट भी
स्वयं प्रस्तुत करने की क्षमता नहीं रखता और देखी-सुनी घटना के ट्रीटमेंट को ही
आगे सरका दे रहा है, तो वह एक-दूसरे की न सही, किसी न किसी के माल की चोरी तो कहलाएगी ही।
सर ! लघुकथा आज तेजी से शिखरोन्मुख हो रही है । उसकी गति, उसके रूप , उसके संस्कार और उसके शिल्प से क्या आप संतुष्ट हैं ?
शिखरोन्मुख
लघुकथा का रूप, शिल्प और संस्कार उसकी गति की
तुलना में अधिक महत्वपूर्ण मानता हूँ। लघुकथा कथा परिवार की विधा है; उपन्यास और कहानी की तरह ही एक कथारूप है। आगे, इसके
शिल्पगत और शैलीगत अनेक रूप हो सकते हैं। लघुकथाकार अधुनातन नई शैली भी विकसित कर
सकता है और मिथक, पौराणिक, विक्रम-वेताल,
यक्ष, पत्र आदि कोई भी शैली कथ्य को संप्रेषित
करने हेतु अपना सकता है। मैं समझता हूँ कि शिल्प और शैली संबंधी कोई अवरोध लघुकथा
में नहीं है। हाँ, संस्कार और मूल्य संरक्षण की बात मैं अवश्य रखना चाहुँगा। ये दोनों ही
हैं साहित्य का मूल हेतु हैं। गत दिनों एक लघुकथा पढ़ने को मिली जिसमें बेरोजगारी
और भुखमरी से त्रस्त युवा दम्पती जानबूझकर अपने बच्चों को एक दुर्घटना में धकेल
देता है। बाद में शासन द्वारा उक्त दुर्घटना में मृत लोगों के परिवार को आर्थिक
सहायता, सरकारी नौकरी और रहने को जमीन भी मिलती है। कथाकार
ने दिखाया कि अब वह दम्पति सुखी है!!! कथाकार ने दावा किया कि यह उसका स्वयं का
देखा हुआ सच है। उन्होंने दावा किया तो घटना को सच मान लेता हूँ; लेकिन इस घटना को ज्यों का त्यों लिख देने में न तो संस्कार का संरक्षण है
न मूल्यों का; और इसीलिए साहित्य की कसौटी पर यह लघुकथा फेल
हो जाती है। ऐसी रचनाएँ सामने आती हैं तो विधा के रूप में लघुकथा के भविष्य के
प्रति निराशा का भाव लेशमात्र भी मेरे मन में नहीं उपजता है; बल्कि कथाकार-विशेष की निर्धनता पर, उसकी दयनीय
स्थिति पर अफसोस होता है।
सर ! आपको क्या लगता है कि लघुकथा विधा को लेकर वर्तमान में साहित्य के अन्य विधाकारों विशेषतः कथाकारों का नज़रिया अब बदला है या अभी भी लघुकथा की स्वीकार्यता को लेकर उन्हें आपत्ति या ऊहापोह है?
देखिए, लघुकथा के प्रति पूर्वाग्रह-पीड़ित लोगों की संख्या में थोड़ी ही गिरावट आयी है, अधिक नहीं। उनमें से बहुतों के मन में आपत्ति और ऊहापोह दोनों अभी भी शेष हैं। लेकिन, यह भी रेखांकित किया जाने योग्य तथ्य है कि लघुकथा की प्रचंड संप्रेषण शक्ति को देखते हुए हरिपाल त्यागी जैसे सुलझे हुए अन्तरराष्ट्रीय स्तर के कथाकार-चित्रकार ने, रामधारी सिंह दिनकर जैसे उच्च कवि ने, सुदर्शन और राधाकृष्ण जैसे उच्च-स्तरीय कहानीकारों ने, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और शंकर पुणतांबेकर जैसे उच्च कोटि के व्यंग्यकारों ने इस विधा को संपन्न किया है।
सर! सिद्ध लघुकथाकारों को पढ़ना नए लघुकथाकारों के लिए आप कितना जरूरी समझते हैं, जरूरी है भी या नहीं? क्योंकि कुछ विद्वान कहते हैं कि यदि आप पुराने लेखकों को पढ़ते हैं तो आप उनकी लेखन शैली से प्रभावित हो सकते हैं और आपके लेखन में उनकी शैली का प्रतिबिंब उभर सकता है जो आपकी मौलिकता को प्रभावित कर सकती है l इस पर आपका दृष्टिकोण क्या हैं?
कुछ प्रतिभाएँ स्वयं जेनेरेट होती हैं, कुछ को ईंधन की आवश्यकता पड़ती है। प्रकृति में बीज से बीज बनने की एक निश्चित प्रक्रिया है। बीज अंकुरित होता है, पहले पौधा फिर पेड़ बनता है। पौधे के पेड़ में तब्दील होने की प्रक्रिया में तने का विकास, तने से टहनियाँ, टहनियों से शाखा-प्रशाखाओं का फूटना-पनपना। इन शाखा-प्रशाखाओं के ही किसी भाग से बौर फूटता है और वही फिर फल में तब्दील होता है, फल बीज का वाहक बनता है। वस्तुत: लेखन के विकास की प्रक्रिया भी बीज से बीज बनने जैसी ही है। इसमें भी शाखाओं से तंतु फूटते हैं; टहनी, शाखा और तना बनते हैं; पल्लवित-पुष्पित-फलित होते हैं…। इसलिए यह कहना कि पूर्वलिखित को पढ़ने से अपनी शैली की मौलिकता दुष्प्रभावित होगी, मेरी दृष्टि में क्षुद्र कथन है। बड़े से बड़े पेड़ का बीज ऐसा नहीं सोचता। अंधेरे में, जब आपके हाथ में टॉर्च नहीं होती, आगे बढ़ते हुए पुतलियों को आप पूरा फैला लेते हैं, क्यों? उस समय तो आप नहीं सोचते कि ऐसा करना आपकी मौलिकता का हनन है, कि अंधेरा पार करते हुए खुद से पहले इस डगर, इस अंधेरे को पार कर चुके अपने पूर्वजों का आप अनुसरण कर रहे हैं। वैसे, पूर्वलेखकों को पढ़ना उनका अनुसरण करना नहीं होता है बल्कि अंधेरे पथ को पार करने के क्रम में पुतलियों का आवश्यकतानुरूप फैल जाने जैसा है। उजाले में आ जाने के बाद वे पुन: पूर्व स्थिति को प्राप्त हो जाती हैं, हमेशा के लिए फैल नहीं जातीं।
सर! जिस प्रकार हिंदी की पहली कहानी होने की दावेदार कई कहानियाँ रहीं जैसे—सैयद इंशाल्लाह खां की ‘रानी केतकी की कहानी’, राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ की ‘राजा भोज का सपना’, किशोरीलाल गोस्वामी की ‘इंदुमती’, माधवराव सप्रे की ‘एक टोकरीभर मिट्टी’, आचार्य रामचंद्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ तथा बंग महिला की ‘दुलाईवाली’। क्या लघुकथा में भी यही स्थिति है? यदि नहीं, तो हिंदी की पहली लघुकथा का श्रेय आप किसे देते हैं और यह कब और कहाँ प्रकाशित हुई?
लघुकथा में भी कमोबेश वही स्थिति है। जैसे-जैसे शोध कार्य आगे बढ़ रहे हैं, नयी-नयी लघुकथात्मक रचनाएँ सामने आ रही हैं। उनको अलग-अलग दृष्टि से स्वीकारा और नकारा भी जा सकता है। बहरहाल, एक सूची निम्नप्रकार हो सकती है—
1- अंगहीन धनी (परिहासिनी, 1876) भारतेंदु हरिश्चन्द्र
2- अद्भुत संवाद (परिहासिनी, 1876) भारतेंदु हरिश्चन्द्र
3- एक टोकरीभर मिट्टी (छत्तीसगढ़ मित्र, 1901) माधवराव सप्रे
4- विमाता (सरस्वती, 1915) छबीलेलाल गोस्वामी
5- प्रसाद (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
6- गूदड़ साईं (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
7- गुदड़ी में लाल (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
8- पत्थर की पुकार (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
9- उस पार का योगी (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
10- करुणा की विजय (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
11- खण्डहर की लिपि (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
12- कलावती की शिक्षा (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
13- चक्रवर्ती का स्तम्भ (प्रतिध्वनि, 1926) जयशंकर प्रसाद
14- बाबाजी का भोग (प्रेम प्रतिमा, 1926) प्रेमचंद
15- वैरागी (आकाशदीप, 1929) जयशंकर प्रसाद
16- सेठजी (1929) कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’
अगर इनमें प्रेमचंद की उन लघ्वाकारीय कहानियों को भी विचारार्थ स्वीकार करना चाहें जो मूलतः उर्दू में काफी पहले प्रकाशित हो चुकी थीं, परन्तु उनका रूपांतर/लिप्यांतर काफी बाद में, यहाँ तक कि उनकी मृत्यु के भी वर्षों बाद प्रकाश में आया, तो वे निम्नप्रकार हैं :
1. बाँसुरी (उर्दू कहकशाँ, जनवरी 1920, हिन्दी रूपान्तर गुप्तधन-1, 1962 में)
2. राष्ट्र का सेवक (उर्दू पत्रिका ‘अलनाजिर’ के जनवरी 1917 अंक में तथा उर्दू शीर्षक ‘कौम का खादिम’ से प्रेम चालीसी, 1930 में, हिन्दी रूपान्तर गुप्तधन-2, 1962 में)
3. बंद दरवाजा (उर्दू प्रेम चालीसी, 1930 में)
4. दरवाजा (उर्दू पत्रिका ‘अलनाजिर’ के जनवरी 1930 अंक में, हिन्दी लिप्यान्तर ‘प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य’, 1988 में)
इस सूची में जगदीश चन्द्र मिश्र की ‘बूढ़ा व्यापारी’ (1919) अप्राप्य होने के कारण शामिल नहीं है। 1919 में यह लघुकथा किस पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, उसका भी नाम नहीं प्राप्त है। पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की ‘झलमला’ (सरस्वती, 1916) नहीं है, क्योंकि प्रकाशनोपरांत उक्त रचना को स्वयं रचनाकार द्वारा ही कहानी बनाकर इसी नाम से कहानी संग्रह प्रकाशित कराया गया था। हाँ, जुगुल किशोर शुकुल द्वारा संपादित 'उदंत मार्तंड' (1826) में प्रकाशित 'यशी वकील' को इसमें जोड़ा जा सकता है।
दूसरी ओर, आधुनिक लघुकथा का उदय 1970-71 से मानने वाले समूह ने इन वर्षों से पूर्व प्रकाशित रचनाओं में से किसी को प्रथम लघुकथा न मानकर इन्हीं वर्षों के अन्तर्गत सर्वप्रथम प्रकाशित होने वाली लघुकथा को प्रथम लघुकथा मानने का निश्चय जता दिया है। डॉ॰ राम कुमार घोटड़ द्वारा संपादित एक पुस्तक में इस तथ्य का प्रकाशन है।
शेष आगामी अंक में…
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