(दिनांक 08 सितंबर 2020 से आगे...)
भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा
(पाँचवीं कड़ी)
भारतेतर मनीषियों द्वारा प्रस्तुत समीक्षा सिद्धान्त
साहित्य, कला और मनोविश्लेषण के क्षेत्र में भारतेतर मनीषियों मे समय-समय पर अनेक
सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। कला और मनोविज्ञान भी क्योंकि मनुष्य के भावों से ही सम्बन्धित विषय हैं; इसलिए उनकी समीक्षा के लिए प्रस्तुत सिद्धान्तों का उपयोग ज्यों का त्यों अथवा किंचित सुधार के साथ साहित्यिक विधाओं की समीक्षा के लिए भी किया जाता रहा है। उनमें से कुछ सिद्धान्त, जो साहित्य की दुनिया में ‘वाद’ के रूप में प्रतिस्थापित रहे, संक्षेप में यहाँ प्रस्तुत हैं—
आदर्शवाद—हिन्दी में इसका प्रयोग अंग्रेजी शब्द ‘आयडियलिज्म’ के अर्थ में होता है। साहित्य में ‘आदर्शवाद’ से तात्पर्य ऐसी विचारधारा से है, जो मनुष्य को अपने जीवन में किन्हीं उदात्त भावों/कार्यों से प्राप्त उपलब्धियों की दिशा में चलने को प्रेरित करती है। ये उपलब्धियाँ प्राय: बाह्य रूप से आत्मपीड़ा की सीमा तक संयम और त्याग को श्रेयस्कर बताती और उनका समर्थन करती हैं। बुद्धिगत न होने के कारण ये मनुष्य को सांसारिक सुखों से विलग रख सकती हैं; लेकिन हृदयगत होने के कारण ये मनुष्य को आत्मतोष और आत्मसुख का आभास कराती हैं।
आदर्शवाद द्वारा निर्देशित व निर्धारित जीवन-मूल्य जीवन के लिए एक प्रकार की प्रेरक शक्ति का कार्य करते हैं और उस सामर्थ्य से युक्त भी होते हैं। आदर्शवाद की मूल वृत्ति अन्तर्मुखी होती है। इस अन्तर्मुखता के समावेश का लगभग अनिवार्य परिणाम यह देखने में आता है कि रचना अथवा कृति एक प्रकार की आध्यात्मिकता से आवृत्त महसूस होते हैं। आध्यात्मिकता का यह आवरण जहाँ एक ओर रचना को मानवीय भावनाओं से युक्त उच्चता और स्तरीयता प्रदान करता है, वहीं दूसरी ओर कुछेक संकुचित दृष्टिकोणों, भावनाओं और सिद्धान्तों का भी बोध करा सकता है। आदर्शवाद एक बड़ा विषय है। इसको समझने के लिए आध्यात्मिकता, उदात्त-वृत्ति, जीवन-मूल्य, मूल्यों की शाश्वतता आदि को जानना जरूरी है।
प्रभाववाद—‘प्रभाववाद’ मूलत: चित्रकला के क्षेत्र में प्रचलित रहा है जो 1870 के आसपास शुरू हुआ। साहित्य के क्षेत्र में इसका पदार्पण 1920 के आसपास होने लगा था। चिकित्सा क्षेत्र से प्रोन्नत होकर ‘प्रभाववादी समीक्षा’ का चलन साहित्य में भी हुआ। रचनात्मक साहित्य में इसके रूप अधिकतर काव्य में ही मिलते हैं। प्रभाववादी समीक्षक कृति के सम्पूर्ण प्रभाव के स्तर, प्रकार और मात्रा के अनुसार उसके प्रभाव का आकलन करता है।
प्रतीकवाद—साहित्य और कला के क्षेत्र में ‘प्रतीकवाद’ का पदार्पण 1886 के आसपास फ्रांस में हुआ था। वहीं से यह विश्व के अन्य देशों में पहुँचा। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में यह मार्क्सवाद से सम्बद्ध हो गया। किसी भी प्रकार की रूप, भाव, गुण, आकार, प्रयोग आदि की समता के कारण किसी साधारण अर्थ के स्थान पर विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त शैली ‘प्रतीकवाद’ के अन्तर्गत आती है। रचना में एक सत्य के स्तर पर उससे मिलते-जुलते दूसरे सत्य के प्रयोग को ‘प्रतीक’ कहा जाता है। एक अन्य विचार के अनुसार, भावनात्मक समता के धरातल पर अथवा व्यंजनात्मक रूप में विशिष्ट अर्थ को प्रकट करने वाले विशिष्ट शब्द अथवा शब्द-समूह को ‘प्रतीक’ कहते हैं। स्थूल रूप में तो भाषा और शब्द को भी प्रतीक ही कहा जा सकता है; क्योंकि प्रत्येक शब्द अपने आप में किसी न किसी भावनात्मक या दृश्यात्मक सत्य की निहिति रखता है। लेकिन इसका यह अर्थ कभी नहीं लगाना चाहिए कि भाषा, शब्द और प्रतीक एक-दूसरे के पर्याय हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है। इन तीनों के बीच पर्याप्त भेद है। इनमें पहला अन्तर तो यही है कि शब्द और भाषा मुख्यत: विचारों के प्रकटीकरण के माध्यम हैं।
किसी अमूर्त भावना को अभिव्यक्त करते समय प्रतीक उस अमूर्त भावनात्मक सत्य की अनुकृति होता है। इस प्रकार की समता ‘प्रतीकात्मक समता’ कहलाती है और इन समताओं के लिए जिन शब्दो अथवा शब्द-समूहों को प्रयोग में लाया जाता है, वे प्रतीक कहलाते हैं।
वस्तुत: ‘प्रतीक’ के प्रयोग की विचारधारा को किसी प्रकार की असाधारण अथवा असामान्य प्रवृत्ति पर आधारित न मानकर अभिव्यक्ति की एक सहज शैली माना जाना चाहिए। इसमें विशेषता बस इतनी है कि किसी भी अव्यक्त की प्रतीकात्मक रूप से अभिव्यक्ति किसी अन्य व्यक्त वस्तु के द्वारा की जाती है। इसे यों समझिए कि किसी भी प्रत्यक्ष जड़ अथवा चेतन पदार्थ को देखने पर हमारे हृदय में कोई न कोई भाव जन्म लेता है, मस्तिष्क में कोई बात उभरती है। यह भाव स्वाभाविक रूप से हमारा ध्यान किसी ऐसी वस्तु की ओर ले जाता है, जो गुण में उसी वस्तु के समान होता है, परन्तु अपना अस्तित्व वह भावनात्मक रूप से ही रखता है। उदाहरण के लिए, पहाड़ को देखकर हमें उसकी ऊँचाई, दृढ़ता, स्थिरता और गम्भीरता का बोध होता है, अत: पहाड़ को इनके प्रतीक के रूप में प्रयोग करते हैं।
साहित्यिक प्रक्रिया के रूप में प्रतीक भाषा की शिथिलता अथवा लचीलेपन पर आधारित होते हैं। शैली को ये नवीनता देते हैं, इसमें सन्देह नहीं है। इनका क्षेत्र व्यापक है। ये ऐतिहासिक, धार्मिक, राजनीतिक, सभी क्षेत्रों में समान रूप से मान्य हैं। अनेक ऐतिहासिक, धार्मिक और राजनीतिक चिह्न व चरित्र प्रतीक के रूप में प्रयुक्त होते हैं। कुछ प्रतीक स्थायी रूप से भी मान्य हो जाते हैं। जैसे, किसी भी राष्ट्र का ध्वज उसके गौरव का प्रतीक होता है। भारत में पौराणिक चरित्र ‘हरिश्चन्द्र’ को सत्यवादी के प्रतीक के रूप में याद किया जाता है और ‘गंगा’ को पवित्रता आदि के प्रतीक रूप में।
मनुष्य के जीवन की विविधता और विशदता को सरस व सुरुचिपूर्ण अभिव्यक्ति देने की दिशा में प्रतीक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये कथाकार की भाषा को पूर्णता और सुन्दरता प्रदान करते हैं। यदि कहा जाए कि मानवीय भावनाओं और अनुभूतियों की सटीकता इनके बिना असम्भव है, तो अनुचित न होगा।
अज्ञेयवाद—‘अज्ञेयवाद’ का सम्बन्ध हिन्दी साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ द्वारा प्रतिपादित किसी सिद्धान्त से लेशमात्र भी नहीं हैं। इस वाद के समर्थकों के अनुसार, इस संसार में जितने भी मूल तत्त्व हैं सब अज्ञेय है। इसीलिए, उनके विषय में किसी निश्चयात्मक निर्णय पर पहुँच सकना मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है। उनके सम्बन्ध में जितने भी ज्ञान का प्रदर्शन विद्वान करते हैं, वह उनके केवल बौद्धिक चमत्कार का ही द्योतक है।
इस वाद के समर्थक ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं रखते, लेकिन उसे पूरी तरह अस्वीकार भी नहीं करते हैं। वे अलौकिकता में विश्वास नहीं करते लेकिन यह भी मानते हैं कि इस अलौकिकता को सिद्ध करने का कोई सूत्र मनुष्य के पास नहीं है, इसलिए वह अज्ञेय है।
अभिव्यंजनावाद—कलात्मक अभिव्यक्ति के उस रूप को जो किसी परिस्थिति के मूल आवेग की बाह्याकृति को स्पष्ट करने का प्रयत्न करती है, अभिव्यंजना कहा जाता है। आधुनिक अर्थों में ‘एक्सप्रेशन’ शब्द का अर्थ किसी आन्तरिक तथ्य का बाह्याकार प्रकट या स्पष्ट करना, उसका प्रतिनिधित्व करना या सामान्य रूप से एक वस्तु द्वारा दूसरी की ओर संकेत करना होता है।
चरित्रों के अवगुणों या विशेषताओं को कल्पना शैली में प्रकट करने का नाम अभिव्यंजना है। आत्माभिव्यक्तिपूर्ण स्वगत कथन इसी श्रेणी में आते हैं। स्कॉट जेम्स के अनुसार, ‘कला का सम्पूर्ण कार्य संसार को कुछ सन्देश देना है और यह, कि यह कोई सुन्दर वस्तु होगी।’ वह कहता है, कि ‘कला का सम्बन्ध भाषा से है। वह किसी भी माध्यम से प्रकट की गयी हो, यह गौण बात है।’
(शेष आगामी अंक में....)
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लघुकथा के समीक्षा -बिन्दु 5:सूक्षम विश्लेषण व उपयोगी जानकारी
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