(गतांक से जारी....)
लघुकथा में अक्सर ‘कालदोष’ की बात कही जाती है। अनेक विद्वानों ने इस अवधारणा पर
सहमति-असहमति में अपने विचार व्यक्त किये हैं। अनेक ने इस अवधारणा को सिरे से नकारा भी है। मेरी दृष्टि में यह आँखें मूँदकर स्वीकार लेने वाला अथवा आँखें मूँदकर नकार देने वाला नहीं, विवेक दृष्टि से समझने वाला मुद्दा है। इस मुद्दे पर मैं डॉ॰ सतीश दुबे की लघुकथा ‘व्यथा’ से यह अंश उद्धृत कर रहा हूँ—कमरे से बाहर धूप में बैठी सन्तोष के पास आकर अम्मा बोली, ‘‘तू तो यहाँ आकर बैठी है। काम पर जाने का टेम हो गया, भूल गई क्या?’’ बेटी को बात टालते देख अम्मा झल्ला उठी, ‘‘मैंने क्या कहा सुना नहीं क्या? तेरी कामवाली साइड के आज दो-तीन दिन हो गए हैं।
इसमें अम्मा के दो वाक्यों के बीच बेटी द्वारा अम्मा की बात टालने के प्रसंग को कथाकार ने नेपथ्य में रख दिया है जिससे पाठक को बेमालूम झटका अवश्य लगता है बीच में इस स्थिति के छूट जाने का। पाठ करते हुए, पाठ को सुनते हुए ‘बीच में कुछ छूट जाने का’ आभास भी लघुकथा का ‘कालखंड दोष’ ही है, ऐसा मेरा मानना है। कथा और भाषा-प्रवाह के मुद्दे पर लघुकथा डीसी (यानी डायरेक्ट करेंट) सप्लाई है, एसी (यानी ऑल्टरनेट करेंट) सप्लाई नहीं है। कथाकार वर्षों लम्बी घटना कह डाले और पाठक के सामने तारतम्य टूटने का संकट उपस्थित ही न होने दे तो कैसा कालखंड दोष? और इस लघुकथा ‘व्यथा’ में उसी पल बात करते हुए भी तारतम्य टूट रहा है तो क्यों टूट रहा है? दूसरी बात—दूसरे वाक्य में ‘अम्मा’ शब्द दोहराने की बजाय सर्वनाम ‘वह’ का प्रयोग ही अधिक उपयुक्त रहता। प्रत्येक वाक्य में संज्ञा-शब्द का दोहराव भाषा-प्रवाह के सौन्दर्य को उसकी स्मूथनेस को आहत करता है। सर्वनाम शब्द रचे ही इसलिए गये हैं कि लगातार संज्ञा-शब्दों के स्थान पर यथोचित सर्वनाम का ही प्रयोग किया जाए। दलित और निर्बल वर्ग की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का यह लघुकथा एक तरह से ऐतिहासिक दस्तावेज़ बनकर सामने आती है। इस लघुकथा के संवाद कथाकार की संवाद-चेतना पर प्रेमचंद की संवाद-चेतना का प्रभाव दर्शाते हैं। इस प्रभाव को इस परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाना चाहिए कि डॉ॰ दुबे का शोधकार्य प्रेमचंद पर ही था।
‘कवरेज’ प्रिंट मीडिया की कार्यशैली और कारगुजारियों पर केन्द्रित है। आज, दृश्य-मीडिया का सिनेरियो रसातल में उससे कई कदम नीचे की यात्रा कर चुका है। बहरहाल, प्रिंट और दृश्य, दोनों ही क्षेत्रों की पत्रकारिता को ‘मैनेज’ करने की कार्यविधि का अनुमान इस एक लघुकथा से लगाया जा सकता है।
विद्यालय का नाम ‘शिक्षा संस्कार’ और उसकी प्राचार्या ‘श्रीमती धर्माधिकारी’! दाल ने ऊपर तैरते तड़के (छौंक, बघार) के रंगादि से जैसे अपने तीखेपन का आभास पहले ही दे दिया हो। लेकिन विशेषता यह, कि कथाकार ने बड़ी कुशलता से इस लघुकथा में बन्दूक की नली विद्यालय या शिक्षकों की बजाय अभिभावकों की ओर घुमा दी है।
“देख, पेंटिंग करने से पहले दीवारों की घिसाई कर-करके हथेली थाली हो गयी!”
यह संवाद है लघुकथा ‘कमाई-खर्च’ से। ‘हथेली का थाली हो जाना’; यह एक अलग ही तरह का मुहावरा है, जिसके ध्वन्यार्थ को दीवारें घिसने वाला पुताई-मजदूर बनकर ही बोला और समझा जा सकता है। इसी को लेखक का परकाया प्रवेश कहते हैं और इसी तरह लेखक अकेला ही अपने-आप में अनेक स्तर, अनेक वर्ग के मानवीय और मानवेतर पात्रों को समाए रखता है। इस लघुकथा में और भी कई मुहावरे दुबे जी ने गढ़े हैं। कथा में चार मजदूर एक-एक कर अपने-अपने मन की परतें खोलतें हैं और पाते हैं कि वे सब की सब परतें एक ही जगह, उनके पाँचवें अधेड़ साथी में मौजूद हैं। मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन के लिए यह लघुकथा भी श्रेष्ठ ऑब्जेक्ट है। मुहावरेदार भाषा का अलग ही सौन्दर्य होता है जो सतीश दुबे की इन लघुकथाओं में यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है। एकाध उद्धरण तो लापरवाह तरीके से पढ़ने पर सभी को मिल जाएगा, ध्यान से देखेंगे तो अनेक मिल जायेंगे। ‘बाबूजी’ में लोक-शैली का यह प्रयोग देखिए—
अचानक एक हिचकोला आया और मेरे कठोर आँसू बह निकले।
इस ‘हिचकोले’ को वही समझ सकता है, जिसे अपने किसी नियरेस्ट एंड डियरेस्ट के जाने की पीड़ा को सीने में रोकने की कभी कोशिश करनी पड़ी हो। इस लघुकथा का अंत अद्भुत सौन्दर्य लिये हुए है। सौन्दर्य का बोध कराने वाले अनगिनत कोण दुबे जी की इन लघुकथाओं में हैं। हमारे अन्दर उस सौन्दर्य को जानने की जिज्ञासा होनी चाहिए, बस। देखिए—
‘‘राम नाम सत्त है’’, अर्थी उठी। रोड तक पहुँचने पर एक खोंमचेवाले ने सवाल किया, ‘‘वो आदमी संसार से गया क्या, जो पैर कमजोर होने पर भी किसी का सहारा नहीं लेता था।’’
‘‘हाँ,’’ जवाब देते हुए एक बार फिर न जाने क्यों मेरी आँखें भर आईं।
‘पैर कमजोर होने पर भी किसी का सहारा न लेने वाला स्वाभिमानी’ चला गया, इस बात की तकलीफ अथवा आश्चर्य एक खोंमचेवाले को होना जिस जुड़ाव की बात कह रहा है, वह कथाकार के सरोकार को रेखांकित कर रहा है। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि दुबे जी की लघुकथाओं में विकलांग-विमर्श है, उसका शोर, उसका नारा नहीं है; स्त्री-विमर्श है, उसका शोर, उसका नारा नहीं है; दलित-विमर्श है, उसका शोर, उसका नारा नहीं है। यही सच्चे साहित्य-साधक की पहचान है, यही दायित्व भी और यही सरोकार भी।
छह बच्चों को घर से स्कूल और स्कूल से घर लाने-ले जाने वाले सिख ऑटो-रिक्शा चालक नानक सिंह के मृदुल चरित्र की तथा बच्चों व अभिभावकों द्वारा उस मृदुल चरित्र के सम्मान की कथा है—‘खास दिन’। ‘इजहार’ एकदम अछूती भावभूमि की बहुत प्यारी कथा है। मानव-जीवन में ‘एषणा’ की व्याख्या की इसी शीर्षक वाली अन्य रचना होना आसान नहीं है। यह रचना कथाकार के साहस, सूझ और सरोकार को एक-साथ सामने रखती है। मुख्य पात्र के नाम से ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया है कि वे उस धर्म की बखिया उधेड़ रहे हैं जिसके धर्मोपदेशक ‘एषणा’ के त्याग का सबसे ज्यादा ढिंढोरा पीटते हैं। ‘फीनिक्स’ को स्किल-बूस्ट की एक जरूरी कथा कहा जा सकता है। वर्तमान समय की कथाओं में पिता-पुत्र को जहाँ दो ध्रुवों की तरह चित्रित करने का पैटर्न बन चुका है, यह कथा उस पैटर्न को तोड़ते हुए पिता को पुत्र की जीवादायिनी शक्ति के रूप में सामने रखती है।
स्थूलत: लिखित-चित्रित-उत्कीर्णित दिखाई देने पर भी कुछ लघुकथाएँ, गीत, ग़ज़ल, दोहे, यहाँ तक कि चित्र और मूर्तिशिल्प भी स्वर्गिक सुगंध से भरपूर पुष्प हुआ करते हैं। किसी शास्त्रीय मापदंड के आधार पर उनकी न समीक्षा किया जाना सम्भव होता है न आलोचना। वे निरंतर आनन्दित, सुखी और उत्साहित रखने वाली गंध और शक्ति से ओतप्रोत रहा करती हैं। ‘संजीवनी’ ऐसी ही लघुकथा है। इस लघुकथा के कथ्य को पढ़कर ही इसकी गंध को जाना जा सकता है, बताया नहीं जा सकता। ऐसी ही एक और लघुकथा ‘अगला पड़ाव’ है। उसमें वर्णित कथा के आधार चिड़ा-चिड़िया हैं या बा और बापू, आसानी से निश्चित कर पाना कठिन है। लेकिन यह मानकर चला जा सकता है कि सृष्टि में जितने भी मानवेतर उपादान हैं, वे सब के सब मानव-जीवन को समझने की दिशा में, मानवीय-सृष्टि की सहायतार्थ सजीव-निर्जीव अवयव ही हैं। उन्हें जानना-समझना पड़ता है। ‘खेलवाली माँ’ में बाल-मनोविज्ञान व्याख्यायित है।
जब तक मनुष्य ने ‘अपना’, ‘उसका’, ‘तेरा, ‘मेरा’ जैसे शब्द नहीं सीखे थे, समाज में ईर्ष्या, द्वेष, लालच, घूसखोरी जैसे भाव भी नहीं रही होंगे। इसी बात को उल्टा करके यों भी कह सकते हैं कि— जब तक मनुष्य समाज में ईर्ष्या, द्वेष, लालच, घूसखोरी जैसे भाव भी नहीं पनपे थे, ‘अपना’, ‘उसका’, ‘तेरा’, ‘मेरा’ जैसे शब्दों की रचना नहीं हुई होगी। इसलिए यह कहना कि अंग्रेजों के शासन-काल में घूसखोरी नहीं थी, गलत होगा। अपराध और भय एक-दूसरे के समानुपाती होते हैं। समाज में अपराधों का ग्राफ शासन द्वारा प्रदत्त दंड के रूप में व्याप्त भय के अनुरूप उठता-गिरता है। ब्रिटिशकालीन व्यवस्था में भी घूसखोरी अवश्य रही थी। लघुकथा ‘दस्तूर’ का यह वार्तालाप देखिए—
‘‘पर सर, छोटे-छोटे सही कामों के लिए गरीब किसानों से...!!’’
‘‘रेवेन्यु डिपार्टमेण्ट में यह परम्परा चली आ रही है। जिले के प्रमुख सूबे साहब, नायब साहब, मुंशीजी को दस्तूर देना तो स्टेट टाइम से चला आ रहा है।’’
लेकिन ब्रिटिश शासनकाल में आम भारतीय अपराधी के हृदय में तुरन्त दण्ड मिलने का भय था। आजादी के बाद दण्ड का भय लगातार कम हुआ है। अंग्रेजी कहावत है—जस्टिस डिलेड इज जस्टिस डिनाइड; न्याय देने में अपरिहार्य देरी का अर्थ है न्याय के पक्ष में निर्णय न देना। इसलिए स्वतन्त्र भारत में अपराधियों की संख्या और अपराधों का ग्राफ लगातार ऊपर चढ़ता गया है। हालत यह हो गयी है कि न्याय देने के लिए दी जा रही आवाजों की सत्यता पर व्यक्ति विश्वास ही नहीं कर पा रहा है—
उसे न जाने क्यों, कानों में प्रतिध्वनित हो रही, ‘अरे आप लोग सुनिए तो...’ आवाज में आस्था नहीं रही थी। (जन-सुनवाई)
(शेष आगामी अंक में....)
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