बुधवार, 9 सितंबर 2020

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-9 / बलराम अग्रवाल

 (आठवीं कड़ी से आगे...)

 

भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा 

 

(नौवीं>>>समापन कड़ी) 

 

 

लघुकथा में ‘संकेत’ के प्रयोग की बात कही जाती है; लेकिन ‘संकेत’ का प्रयोग कोई लेखक तभी कर सकता है, जब उसने उसे समझ लिया हो। ‘संकेत’ का सरल अर्थ ‘इशारा’ होता है; लेकिन लघुकथा के संदर्भ में यह इशारा क्या है—इस बात को लेखक और समीक्षक दोनों का समझना जरूरी है। उदाहरण के लिए, एक मित्र दूसरे से कहता है—‘तेरी फोटो बहुत अच्छी आती है यार।’ दोस्त इस पर तहेदिल से शुक्रिया अदा करेगा, उसकी आँखों में पहले मित्र के लिए आभार का भाव अवश्य आएगा। लेकिन यह ‘संकेत’ अगर उसके सामने खुल गया तो क्या प्रतिक्रिया आएगी, यह दोनों मित्रों के बीच परस्पर संबंधों की प्रगाढ़ता पर निर्भर करता है।

इस वाक्य में संकेत क्या है? संकेत यह है कि—तेरी शक्ल-सूरत किसी काम की नहीं है, लेकिन ‘तेरी फोटो बहुत अच्छी आती है यार!’। लेकिन ऐसे प्रशंसात्मक वाक्य हर बार ‘संकेत’ ही होते हों, ऐसा नहीं है। ‘संकेत’ का उद्घाटन पात्र के चरित्र और तत्संबंधी परिस्थिति के अनुरूप करना होता है। इसका एक रोचक उदाहरण बी एल आच्छा जी ने ‘क्षितिज लघुकथा सम्मेलन’ में बोलते हुए 3 जून 2018 को प्रस्तुत किया था। उन्होंने कहा—‘किसी परिवार में एक रिश्तेदार मिलने जो आए। उन्हें ड्राइंग रूम में बैठाकर मेजबान ने पानी का गिलास पेश किया और किसी काम से घर के भीतर चला गया। इसी बीच मेजबान की पत्नी भी एक ट्रे में पानीभरा गिलास लेकर उपस्थित हो गयी। उसे देखते ही मेहमान ने अपने हाथ में पकड़ा गिलास दिखाते हुए कहा—‘पानी तो हो गया।’

यह एक सामान्य वाक्य नजर आता है, लेकिन समीक्षक/आलोचक इसमें भी ‘संकेत’ तलाश कर लेता है। संकेत यह है, कि—‘पानी तो हो गया, अब चाय-कॉफी-कोल्ड ड्रिंक की बात कीजिए’।

समीक्षक को देखना है कि लघुकथा का मूल कथ्य क्या है? संवादों और नैरेशन के माध्यम से लेखक किस सामाजिक, धार्मिक या राजनैतिक असंगति की ओर पर ध्यान आकृष्ट करना चाहता है?  किसी भी संवेदनशील मुद्दे पर लेखक ने अपनी बात कैसे रखी है। समूचेपन में वह सही है या गलत?

फेसबुक पर अनेक लघुकथा समूहों द्वारा विषय आधारित या चित्र आधारित लघुकथा लिखने का अभ्यास कराया जाता है। नवोदितों लेखकों को लेखन का अभ्यास कराने की दृष्टि से यह कतई गलत नहीं है। लेकिन एक ही विषय पर लिखने का फ़ैशन-सा चल पड़े तो दिक्कत होती है। एक ही तरह की लघुकथा हर लेखक लिखेगा तो विधा का अहित ही होगा, हित नहीं। विधा के हित का ध्यान रखने की जिम्मेदारी ऐसे में समूह-एडमिन की बनती है। जैसे हर बच्चा हमेशा केजी में ही नहीं रहता है वैसे ही चित्र आधारित और विषय आधारित लघुकथा लिखने वाले लेखकों को सूचीबद्ध करना आवश्यक है। यह पूर्व-घोषित रहना चाहिए कि ‘यह कोर्स आपके शामिल होने के उपरांत मात्र एक साल का है, उसके बाद आप इस प्रतियोगिता में भाग नहीं ले पाएँगे, आपको प्रोन्नत मान लिया जाएगा और आशा की जाएगी कि आप स्वतंत्र लेखक की तरह सोचें और अपने विषय आप चुनें।’ लेकिन यह नहीं चल रहा है। क्या आप इससे सहमत हैं कि एक ही तरह की लघुकथाएँ लिखी जाती रहनी चाहिए? या फिर फ़ॉर्मूला साहित्य से आपकी असहमति है? अगर हाँ तो क्यों, नहीं तो क्यों? आपकी साहित्यिक समझ क्या माँग करती है?  आपको विविधता चाहिए या बस एक ही तरह की बातें आती रहें, वह भी आपको मान्य है क्योंकि वो आपके समूह सदस्य की अभिव्यक्ति है और उन्हें आप नाराज नहीं कर सकते?  यहाँ आपको सोचना सिर्फ यह है कि क्या वृहत्तर साहित्य में ऐसी फ़ॉर्मूला लघुकथाओं की जगह है? अगर हाँ तो कितनी और कहाँ?

लघुकथा छोटी काया की रचना है। उसमें पात्रों की भरमार नहीं होती है। इसलिए उसके हर पात्र पर विस्तार से लिखना बहुत आसान है। पात्र के चरित्र का विश्लेषण करने की कोशिश समीक्षक को नहीं तो आलोचक को अवश्य करनी चाहिए। इससे लाभ यह होगा कि आप अनेक लेखकों की विभिन्न लघुकथाओं में आए पात्रों के चरित्र का तुलनात्मक अध्ययन भी सहजता से करने में सक्षम हो सकेंगे।

लघुकथा के आदि, मध्य और अंत पर बात करने की कोशिश करें। यहाँ यह ध्यातव्य है कि लघुकथा में ‘अंत’ और ‘समापन’ दो भिन्न स्थितियाँ हैं। साथ ही यह भी कि लघुकथा अकेली रचना-विधा नहीं है, जो अपने अंत के साथ ही पाठक-मस्तिष्क में खुलने की कितनी क्षमता रखती हो। ग़ज़ल के हर शेर में यह क्षमता होती है। यही गुण दोहा का भी है।

लघुकथा संग्रह की समीक्षा में हर लघुकथा की स्वतंत्र समीक्षा भी प्रस्तुत कर सकते हैं। इससे आपको संग्रह की लघुकथाओं की पारस्परिक तुलना करने में आसानी होगी। लेकिन तुलना तभी होगी जब  उनके मूलभाव समान हों। आपको ऐसी लघुकथाएँ भी संग्रह में मिल जाएँगी जो संग्रह की ही किसी अन्य लघुकथा का विस्तार प्रतीत होती हों।

 गंभीर, व्यंग्यपरक, कटाक्षपरक, हास्यपरक कथ्यों को चिह्नित करने के क्रम में यह अवश्य देखें कि लेखक ने जिस उद्देश्य से उन्हें रचा है, उसमें वह खरा उतरा है या नहीं। वह रच रहा है या पार्टी एजेंडे की शर्तें पूरी कर रहा है। किसी राजनीतिक दल अथवा समुदाय विशेष के सिद्धांतों के प्रति निष्ठा के तहत कुछ ऐसी बातें तो नहीं लिख डाली हैं जो कुल मिलाकर विकार ही पैदा करती हैं? रोचक लगने वाली जो बातें की हैं वो हमारे जीवन की हैं या महज़ एक ऑब्जर्वेश्न है?

लघुकथा लेखों की समीक्षा समीक्षक की निजी सैद्धांतिक मान्यताओं, निजी स्वीकृति के अनुरूप सही और गलत हो सकती है। लेखों की समीक्षा करते हुए तो आपको पता होना चाहिए कि लेखक ने कब क्या कहा था। तथ्य सामने लाइए और बताइए कि सही क्या है, क्या गलत।

आजकल काफी लघुकथाएँ समसामयिक मुद्दों पर लिखी जाती हैं। क्या उन मुद्दों से सामान्य पाठक भी परिचित है? है, तो लघुकथाओं के कथ्यों में एकरूपता तो नहीं है? लघुकथाकार बार-बार एक ही तरह की संवेदना की तो बात नहीं कर रहा है? क्या वे संवेदनाएँ सामान्य पाठक तक पहुँचने में सक्षम हैं?  अगर नहीं तो, कथाकार से कहाँ चूक हुई है, यह बताने की कोशिश की जानी चाहिए।

यह सच है कि सम्प्रति, अधिकतर लघुकथा संग्रह निराश ही कर रहे हैं, तथापि किसी भी संग्रह को मात्र ‘बकवास’ कहकर ख़ारिज कर देना गलत है। उससे अच्छा है कि आप उस पर बात ही न करें। ‘बकवास’ कहने जितना ही गलत है एक पल में ‘बेहतरीन’ कह डालना। हो सकता है कि आपने संग्रह के कुछ हिस्से पढ़े और वो आपको स्तरहीन लगे या स्तरीय लगे, तो अपनी बात उन हिस्सों तक ही रखें। पूरी पुस्तक पर उसके किसी हिस्से विशेष को केन्द्र में रखकर प्रतिक्रिया देना गलत है। कम से कम समीक्षा तो उसे नहीं ही कहा जाएगा। समीक्षा में समीक्षक की हर सहमति और असहमति के पीछे तर्क होने चाहिए। मात्र ‘बुरा’ या ‘अच्छा’ कह डालना समीक्षा नहीं है।

साहित्य में मूल्यन की प्रक्रिया दो स्तरों पर चलती है। पहली, रचना प्रक्रिया के स्तर पर यह रचनाकार के साथ; और दूसरी मूल्यांकन के स्तर पर समीक्षक या आलोचक के साथ। जितने भी मूल्य हैं वे सब के सब सामाजिक बुनियाद पर ही बनते हैं इसलिए इन दोनों ही स्तरों के बीच पहचान की या स्वीकार की एक सामाजिक पद्धति काम करती है।

अगर कोई आलोचक केवल अपनी रुचि के  लघुकथाकारों की रचनाओं पर ही टिप्पणी करता है तो इसका साफ-साफ अर्थ यह लगाना चाहिए कि चिंतन के स्तर पर वह उन्हें अपने समकक्ष पाता है। यह निर्विवाद है कि समय के साथ साथ सामाजिक मूल्यों में भी बदलाव आता है। आलोचक को अपना दृष्टि विस्तार इन बदलावों के अनुरूप करना वांछित है। इस दृष्टि विस्तार को हम मूल्य दृष्टि में विकास के रूप में भी रेखांकित कर सकते हैं। अधिकतम आलोचकों का मानना है कि पूर्व रचनाओं का समय-समय पर पुनर्मूल्यांकन होते रहना चाहिए। अतः यह आवश्यक है पूर्व लघु कथाओं का भी पुनर्मूल्यांकन हो। विकसित मूल्य दृष्टि ही किसी लघुकथा के सरोकारों से पाठक को परिचित कराएं रह सकती है परंपरागत मूल्य दृष्टि नहीं।

आधुनिक समाज में मध्यवर्गीय अंतर्विरोध जिस गति से बढ़े हैं और जिस गति से खुलकर प्रकट हो रहे हैं उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। जाति धर्म और आर्थिक विषमता के मुद्दों पर टकराहटें लगातार बढ़ी हैं। ऐसे में, लघुकथा की प्रासंगिकता नि:संदेह बढ़ी है। यह कथन मात्र नहीं है बल्कि गत दसेक वर्षों में लघुकथा लेखन के प्रति बढ़े रुझान से यह स्वयंसिद्ध है। किसी भी विधा में रेखांकन की पहल उसमें रचनारत लेखकों की आमद के मद्देनजर होती है, गुणवत्ता हमेशा उसके बाद ही अथवा उन आगतों के मध्य ही तलाशी जाती है। लघुकथा आकलन के लिए वर्तमान में विष्णु प्रभाकर, हरिशंकर परसाई आदि से लेकर दीपक मशाल, चंद्रेश कुमार छतलानी, संध्या तिवारी आदि तक लंबी सूची हमारे पास है और रचनाशीलता का नोटिस लिया जाना आज के आलोचक का दायित्व बनता है।

हमें याद रखना चाहिए कि जैसे-जैसे समाज की परिवर्तनकारी शक्तियां जागरूक होती हैं वैसे वैसे पारंपरिक सोच के कारण अवहेलित विधाएं, रचनाएं और रचनाकार पूर्ण प्रदीप्ति के साथ सामने आने लगते हैं। जिन्हें सामाजिक संघर्षों ने तैयार किया हो, रूप और आकार दिया हो, उन्हें कुछ समय के लिए पीछे धकेल देना तो संभव है, हमेशा-हमेशा के लिए दबा देना संभव नहीं है। 

इन दिनों की हमारी लघुकथाओं में शोषणविहीन समाज के लिए शासन व्यवस्था शेष सक्रिय विरोध  कंटेंट लगभग सिरे से ही गायब हैं। कहीं  विरोध अगर दर्ज हुआ भी है तो वह सामान्यतः अंधा ही है यानी रचनात्मक न होकर सिर्फ विरोध के लिए विरोध है।

हमारी लघुकथाओं में भाषा का सामाजिक संस्कार उनको सहज बोधगम्य बनाता है। सामाजिक संस्कार से तात्पर्य यह नहीं है कि कहन में प्रतीकात्मकता को तिलांजलि दे दी जाए। दरअसल प्रतिरोध की जो शक्ति लेखक को भाषा के सामाजिक संस्कार से मिलती है वह अन्यत्र कहीं और से नहीं मिल सकती। वर्तमान शोषण मूलक शासन व्यवस्था में जितना कारगर प्रतिरोध लघुकथा, गजल, दोहा जैसी लघु आकारीय विधाएं प्रस्तुत कर सकती है इतना कारगर प्रतिरोध बड़े आकार की रचना विधाएँ नहीं कर सकतीं। आलोचक समकालीन लघुकथा में अंतर्गुम्फित सांस्कृतिक संघर्ष को तलाशना और रेखांकित करना चाहेगा; लेकिन उससे पहले कथाकार को जानना होगा  सांस्कृतिक संघर्ष को लघुकथा में वह समुचित स्थान कैसे दें?

 

सहायक ग्रन्थ—

1-   साहित्य-विवेचन—आचार्य क्षेमचन्द्र ‘सुमन’ एवं योगेन्द्र कुमार मल्लिक

2-   भारतीय एवं पाश्चात्य काव्य-सिद्धान्त—डॉ॰ गणपतिचन्द्र गुप्त

3-   आधुनिक समीक्षा:कुछ समस्याएँ—डॉ॰ देवराज

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