लघुकथाएँ अगर आधुनिकता के बोध और अपने समय की युग-चेतना से युक्त नहीं हैं, तो कम शब्दों में कही जाकर और कम समय में पढ़ ली जाने योग्य होकर भी वे निरर्थक हैं। आधुनिकता के बोध और अपने समय की युग-चेतना से असम्प्रक्त रहकर लघुकथा किसी का भी स्थानापन्न नहीं बन सकती। ‘मैदान से वितान की ओर’ इसी अर्थ में विशिष्ट है कि इसमें संकलित रचनाएँ ‘इकट्ठी’ न की जाकर, साहित्यिक दृष्टि-सम्पन्नता के साथ निस्पृह भाव से चुनी गयी हैं। वह चुनाव भी डॉ. अशोक भाटिया के, मेरे और ‘जनगाथा’ के प्रबुद्ध पाठक-वर्ग द्वारा एक-एक कर देखने-परखने, आकलित होने के उपरान्त पविर्द्धित किया जाकर पुस्तक रूप में आपके समक्ष है।
इस संकलन की सभी 115 लघुकथाएँ, जैसाकि भगीरथ भाई ने स्वयं लिखा है, गुणवत्ता के आधार पर अनेक स्रोतों से चुनी गयी हैं। हम जानते हैं कि इनमें अनेक लघुकथाकार ऐसे हैं, जिन्होंने इस सदी के दूसरे दशक के भी लगभग उत्तरार्द्ध में (2014 या उसके आसपास) लघुकथा लेखन आरम्भ किया है, लेकिन इस विधा की स्तरीयता को लेकर वे गम्भीर हैं। उन्हीं के साथ, श्रीयुत् विष्णु प्रभाकर (प्रथम लघुकथा मासिक ‘हंस’ जनवरी 1939 में प्रकाशित) और हरिशंकर परसाई (प्रथम लघुकथा साप्ताहिक ‘प्रहरी’ 1948 में प्रकाशित) की उपस्थिति यह सिद्ध करती है कि आठवें-नौवें दशक में भी लघुकथा-लेखन में सक्रिय रहे पूर्व पीढ़ी के कथाकारों को त्याज्य नहीं माना गया है। इसमें रमेश बतरा, सिमर सदोष, कमलेश भारतीय, पृथ्वीराज अरोड़ा, मोहन राजेश, पूरन मुद्गल, सतीश दुबे सरीखे समकालीन लघुकथा के स्तम्भ कथाकार सम्मिलित हैं तो नयी पीढ़ी के दीपक मशाल, हेमंत राणा, चन्द्रेश कुमार छतलानी, संध्या तिवारी, कांता रॉय, संतोष सुपेकर आदि ने भी अपनी जगह बनायी है। इस प्रकार इस संकलन को समकालीन हिन्दी लघुकथा के व्यापक परिदृश्य का आद्योपांत दस्तावेज़ कहा जा सकता है; यह ईमानदारी से अपने समय के लघुकथा-लेखन का प्रतिनिधित्व करता है। हाँ, एक तथ्य जरूर इसमें ध्यान आकर्षित करता है—सम्प्रति, संख्यात्मक दृष्टि से लघुकथा-लेखन में जब महिला कथाकार अधिक नजर आ रही हैं, इस संकलन में उनकी भागीदारी मात्रा 25 प्रतिशत है। इसके दो कारण मेरी समझ में आते हैं, उनमेंµपहला तो यह, कि चयन के लिए जिस कालखण्ड (1971-2019) का निर्धारण भगीरथ जी ने किया, उसमें सन् 2010 तक मुख्यतः अंजना अनिल, आभा सिंह, उर्मि कृष्ण, चित्रा मुद्गल, मालती बसंत, विभा रश्मि और शकुंतला किरण को ही लघुकथा-क्षेत्रा में उन्होंने निरंतर सक्रिय और स्तरीय पाया; दूसरा यह, कि इस दौरान बहुत-सी श्रेष्ठ लघुकथाओं पर उनकी नजर न पड़ पायी हो; और (महिला लघुकथाकारों की 2011 के बाद लेखन में उतरी पीढ़ी के सन्दर्भ में) तीसरा यह, कि गुणवत्ता की दृष्टि से उनके लेखन के अभी और-परिपक्व होने तक प्रतीक्षा करना जरूरी महसूस किया हो।
लघुकथा-लेखन की ओर आकृष्ट होने वाले अधिसंख्य लोग इसके ‘आकार’ को देखते ही उछल-से पड़ते हैं—‘यह तो बहुत आसान है’! लेकिन, क्या लघुकथा केवल किसी घटना का वर्णन लिख देना मात्रा है? क्या लघुकथा लिखने के लिए कथाकार में किसी कथ्य के चयन का सलीका, विवेक, उसके कथात्मक निर्वहन की क्षमता और समष्टिपरक दृष्टि का विकास आवश्यक नहीं है? क्या लघुकथा एक स्वतंत्र और संपूर्ण जीवन-क्षण की संपूर्ण ‘रचना’ नहीं है? जिस रचना का एक-एक शब्द, एक-एक ‘सेल’, रोम-रोम और रेशा-रेशा जिन्दा होने की बात कही और स्वीकार की जाती हो, आकारगत लघुता के बावजूद उसे एक बड़ी रचना क्यों नहीं माना जाना चाहिए?
हमारी दृष्टि से अनेक ऐसी लघुकथाएँ गुजरती हैं जिनके बारे में लेखक ताल ठोंककर कहता है, कि वह उसकी आँखों-देखी घटना पर आधारित, उसके अपने अनुभव क्षेत्रा से उपजी रचना है। इस प्रमाण के बावजूद सामान्य पाठक से लेकर गुणी आलोचक तक किसी को भी वह प्रभावित नहीं कर पाती है; क्यों? इसलिए कि उसके पीछे लेखक की कोई सकारात्मक मानवीय ‘दृष्टि’ और उसे प्रस्तुत करने का अभ्यास नहीं होता है। लघुकथाकार की ‘दृष्टि’ जब तक मानवीय सरोकारों से जुड़ी, सुस्पष्ट नहीं होगी, तब तक वह सार्थक और सुग्राह्य रचना समाज को नहीं दे पाएगा।
समकालीन लघुकथा की साहित्यिक अर्थवत्ता की जाँच का काल मोटे तौर पर सन् 1960 के बाद से ही शुरू मानना चाहिए। वह इसलिए, कि रचना-विधाएँ कभी भी एकाएक आसमान से नहीं टपकतीं। उनके आने के पीछे लम्बी सामाजिक उथल-पुथल, द्वंद्व और संघर्ष हुआ करता है। भारतीय समाज में 1960 के आसपास से आम आदमी की यथार्थ सामाजिक तस्वीर को लघुकथा के फॉर्म में उतारने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं; और 1971 आते-आते लघुकथाओं में यह तस्वीर अपनी पैठ बना लेती है, बहुलता में आने लगती है। सन् 1876 के आसपास आम आदमी के कथन में जो तल्खी भारतेंदु हरिश्चंद्र ने चिह्नित की थी, और जिस तल्खी को उनके बाद लगभग 90 वर्षों तक लघुकथाएँ लिखने वाले अमूमन हर कथाकार ने आदर्शों, उपदेशों, नीतियों और बोधों में ही घेरे और पिरोये रखा था, आठवें दशक के कथाकारों ने भाव और भाषा के उस तीखेपन को बहुलता में पकड़ा और पेश किया।
इस संकलन में, ‘लिहाफ’ शीर्षक से इस्मत चुगताई की बड़ी पॉपुलर कहानी है, तो ‘ठंडी रजाई’ शीर्षक से सुकेश साहनी की लघुकथा भी है; लेकिन छवि निगम की ‘लिहाफ’ इन दोनों से हटकर अपने आप में एक मानक लघुकथा कही जा सकती है जो एक संवेदनशील मुद्दे को सलीके से प्रस्तुत करती है। प्रकारान्तर से ‘भेड़िये’ (प्रियंका गुप्ता) भी इसी कलेवर की लघुकथा है।
जब तक भारत में जाति-प्रथा कायम है और जब तक जाति-आधारित आरक्षण को सरकारी प्रश्रय हासिल है, तब तक मालती बसंत की ‘अदला-बदली’ लाइट-हाउस की तरह प्रकाशमान रहेगी। नीरज सुधांशु की ‘पिनड्राप साइलेंस’ समाज की उस रग पर उँगली रखती है, जो परिवार में कन्या के जन्म की सूचना-भर से सुन्न पड़ जाती है। शकुंतला किरण की ‘तार’ किशोरावस्था के प्रेम को रेखांकित करती है। साधना सोलंकी की ‘मृगतृष्णा’ भावनात्मक दर्शन से परिपूर्ण स्तरीय लघुकथा है। इस लघुकथा को स्नेह गोस्वामी की ‘वह जो नहीं कहा गया’ के साथ पढ़ने का आनन्द ही अलग है। मैं समझता हूँ कि ये दोनों ही 2014 के बाद लघुकथा-लेखन में आयी हैं।
कुल मिलाकर ‘मैदान से वितान की ओर’ में विष्णु प्रभाकर से लेकर कल्पना मिश्रा (पहली लघुकथा ‘कन्या’, जागरण प्रकाशन की पत्रिका ‘नई दुनिया : नायिका’ के इंदौर संस्करण में 17 मार्च 2018 को) तक लगभग 80 वर्ष लम्बे कथा-समय की पीढ़ियाँ संकलित हैं। इसमें संकलित नई पीढ़ी के अधिकतर कथाकारों की पहली लघुकथा सन् 2010 के बाद ही किसी पत्रा-पत्रिका-पुस्तक में प्रकाशित हुई है। ये लघुकथाएँ सिद्ध करती हैं कि इनकी जड़ें वास्तविकता में हैं। ये जिन्दगी की बुनियादी सचाइयों से टकराती, उनसे हमारा सामना कराती हैं। ये सब की सब वास्तविकता से जुड़ी हैं और वर्तमान से जूझने को तैयार हैं। लघुकथा के सुधी पाठक को यह कथ्य की सामयिकता, भाषा-प्रवाह, शैली-औचित्य, शैल्पिक-गठन, शीर्षक-चुनाव आदि लघुकथा-लेखन से जुड़े सभी आवश्यक अवयवों पर चिंतन-मनन-अध्ययन के लिए प्रामाणिक चयन है, जिसके लिए भाई भगीरथ परिहार (लघुकथा साहित्य को ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ देने के बाद) एक बार फिर बधाई के पात्र हैं।
(भूमिका/मैदान से वितान की ओर)
पुस्तक : मैदान से वितान की ओर; संपादक : भगीरथ परिहार; प्रकाशक : राही प्रकाशन, एल-45, गली नं॰ 5, करतार नगर, दिल्ली-110053 प्रकाशन वर्ष : 2020 मूल्य : रुपये 195/- (पेपरबैक); कुल पृष्ठ : 144
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