मंगलवार, 8 सितंबर 2020

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-4/बलराम अग्रवाल

 (दिनांक 06 सितंबर 2020 से आगे...)

भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा 

(चौथी कड़ी)  

शब्द और उसकी शक्तियाँ—भारतीय शास्त्र में वाचक को ही शब्द कहा गया है। मनीषियों ने वैज्ञानिक दृष्टि-सम्पन्नता दिखाते हुए इसे ‘आकाश’ का गुण माना है। उन्होंने माना है कि शब्द के उच्चारण से आकाश में चारों ओर वैसी ही लहरें फैलती हैं जैसी तालाब के ठहरे हुए जल में कंकड़ फेंकने से फैलती हैं। इस फैलने से शब्द सब ओर व्याप जाता है। आधुनिक विज्ञान में इस मत को ‘बटरफ्लाइ इफैक्ट’ के नाम से जाना जाता है।

शब्द से उसका जो अर्थ ध्वनित होता है, उसे प्रकाशित करने वाली शक्ति को ‘शब्द-शक्ति’ कहते हैं। शब्द का महत्व इन शक्तियों के कारण ही बढ़ जाता है। इन शक्तियों के तीन भेद माने गये हैं—

1-    अभिधा—जिस शब्द के द्वारा साक्षात संकेतित अर्थ ध्वनित हो, उसे ‘अभिधा’ कहते हैं।

2-    लक्षणा—जहाँ पर प्रधान अर्थ में बाधा होने पर रूढ़ि की सहायता से प्रधान अर्थ से सम्बन्ध रखने वाला कोई अन्य अर्थ लक्षित हो, वहाँ पर लक्षणाशक्ति कार्यशीला होती है।

3-    व्यंजना—काव्य यानी साहित्य के बाह्य आवरण को दूर करके उसके अंतर में छिपे उस व्यंग्यार्थ को स्पष्ट करने वाली शक्ति को व्यंजना कहा जाता है जो अभिधा और लक्षणा द्वारा भी अप्रकाशित ही रहता है।

इन तीनों शक्तियों के सम्बन्ध से शब्द भी तीन ही प्रकार के बताये हैं—1- वाचक, 2- लक्षक, और 3- व्यंजक; तथा तीन प्रकार के अर्थ भी—1- वाक्यार्थ, 2- लक्षणार्थ, और 3-  व्यंग्यार्थ।

आचार्य हेमचंद्र का कहना है कि अभिधा से जो अर्थ प्रकट होता है, उसी में प्रतिभावान पाठक व्यंजना शक्ति की सहायता से एक नवीन अर्थ तलाश लेता है। हममें से अधिकतर आचार्य हेमचंद्र के इस कथन के गवाह और अनुमोदक हो सकते है। अभिधा और लक्षणा से व्यंजना इस बात में भी भिन्न है कि इन दोनों का सम्बन्ध केवल किसी शब्द मात्र से होता है, जबकि व्यंजना का सम्बन्ध किसी शब्द के साथ ही उसके अर्थ से भी होता है। इसी गुण के आधार पर इसके भेद किये जाते हैं। मोटे तौर पर इतना ही समझ लेना काफी है कि अभिधामूलक व्यंजना और लक्षणामूलक व्यंजना भी इसके दो उपभेद हैं।

भारतीय समीक्षा शास्त्र की दृष्टि वैज्ञानिकों की भाँति अत्यन्त विशद है और आज की सुविधाभोगी दृष्टि से काफी क्लिष्ट भी। उसकी तुलना में पाश्चात्य समीक्षा शास्त्र को जीवन के अधिक निकट और आसानी से ग्राह्य माना जा सकता है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की समीक्षा-शैली के डॉ॰ देवराज ने तीन प्रमुख पहलू बताये हैं—1- ऐतिहासिक एवं समाजशास्त्रीय, 2- विश्लेषणात्म, और 3- आदर्शवादी। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि वह शुक्ल जी की समीक्षा में ‘रस-संवेदना’ देखते है, जोकि समीक्षा का एक अनिवार्य गुण होना चाहिए। यह अलग बात है कि बाद के समीक्षकों ने शुक्ल जी की समीक्षा का अनुसरण लगभग नहीं किया।

‘साहित्य विवेचन’ की भूमिका में आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी लिखते हैं—‘हिन्दी में इन दिनों प्रचलित चार समीक्षा शैलियों अथवा पद्धतियों में पहली शैली विशुद्ध साहित्यिक कही जाती है। यह शैली साहित्य के विभिन्न प्रेरणा केन्द्रों का अध्ययन करती हुई भी साहित्यिक मूल्यों को प्रमुखता देती है। इसकी एक विशिष्ट परम्परा बनी हुई है। दूसरी शैली साहित्य में समाजशास्त्र की मार्क्सवादी विचार-पद्धति को अपनाती है और समस्त साहित्य को प्रगतिशील और अप्रगतिशील विभागों में बाँटती है। तीसरी शैली कवि और काव्य की मानसिक भूमिका या मनोविश्लेषण को मुख्य महत्व देती है। यह साहित्य की रचना और आस्वादन के रहस्यों की नयी व्याख्या करती है। …यह शैली विश्लेशणात्मक या मनोवैज्ञानिक कहलाती है। चौथी शैली न केवल किसी मतवाद या परम्परा का अनुसरण नहीं करती बल्कि उनसे सर्वथा दूर भी रहना चाहती है। यह प्रणाली समीक्षक की व्यक्तिगत भावना या प्रतिक्रिया को व्यक्त करने का लक्ष्य रखती है। इसलिए इसे व्यक्तिमुखी, भावात्मक अथवा प्रभावाभिव्यंजक शैली कहा जाता है।

साहित्य के रूपगत, भावगत और शैलीगत स्वरूप की सफल विवेचना के कारण शुक्ल जी ने समीक्षा की एक नयी शैली स्थापित की। अपने पूर्ण अवयवो के साथ वही साहित्यिक शैली कही जाती है। आव्श्यक संशोधन और परिष्कार के साथ यही शैली आज भी प्रचलित है। भावो के विवेचन में शुक्ल जी की दृष्टि उदात्त और आदर्शोन्मुख थी। उन्होंने भाषगत सौन्दर्य पर ही अधिक ध्यान दिया और शैली के दूसरे तत्त्वों की प्राय; उपेक्षा की। वे भाषा के लोक-व्यवहृत रूप के पक्षपाती थे। वे रूढ़-प्रयोगों और अप्रचलित भाषा-रूपों का बहिष्कार करके जीती-जागती भाषा के व्यवहार के हिमायती थे। कुछेक नये इतिहास-लेखकों ने उनके पश्चात् समीक्षा की एक स्वच्छन्दतावादी, सौष्ठववादी या सांस्कृतिक धारा का नामोल्लेख किया है, लेकिन उसे भी शुक्ल-धारा का विकसित रूप मानना ही अधिक उपयुक्त होगा। शुक्लजी ने साहित्य के जिन अवयवों को अधूरा या उपेक्षित छोड़ दिया था, उन्हें अधिक पुष्ट करने की चेष्टा की गयी। नये साहित्य का विकास-क्रम अधिक सन्तुलित और अधिक विवरणों के साथ उपस्थित किया गया। साहित्य की विशेषताएँ अधिक स्पष्टता के साथ प्रकाश में लायी गयीं।

युग-चेतना के अनुरूप नये समीक्षकों की प्रगतिशील समीक्षा-दृष्टि के आधार पर परिष्कृत की गयी यह साहित्यिक समीक्षा-शैली अपने अस्तित्व और अपनी उपयोगिता का परिचय दे रही थी कि इतने में ‘फासिस्टवाद के खतरे’ का नारा लगाती हुई एक नयी साहित्यिक योजना लन्दन से सीधी भारत आयी।

                                          (शेष आगामी अंक में....)

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