शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

लघुकथा के समीक्षा-बिन्दु-7 / बलराम अग्रवाल

 (छठी कड़ी से आगे...)

 

भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा 

 

(सातवीं कड़ी) 

 

अनेक लोगों को आपत्ति है अथवा वे उपहासपूर्वक टिप्पणी करते हैं कि लघुकथा की आलोचना स्वयं उसके लेखकों को ही करनी पड़ रही है, कोई प्रबुद्ध आलोचक उसे इस योग्य नहीं समझ रहा कि उस पर कुछ कहे। इस बारे में मेरा निवेदन यह है कि आलोचना के बारे में कहा यह जाता है कि उसके कुछ खास मापदंड हैं। वस्तुत: आलोचना के नहीं, समीक्षा के मापदंड हैं। अक्सर उन्हें ही आलोचना के मापदंड भी मान लिया जाता है। लेकिन हमारा ही नहीं, अनेक विद्वानों का मानना है कि आलोचना के मापदंड उस गति से नहीं बदले, जिस गति से रचना ने अपने आप को बदला। रचना आधुनिक और उत्तर आधुनिक हो गयी, लेकिन आलोचना अपने पुरातन घाट पर बैठी चन्दन ही घिसती रह गयी। यही कारण रहा कि रचना या विधा को यह शिकायत लगातार रही है कि आलोचक उसका सही मूल्यांकन नहीं कर पा रहे। दूसरी ओर, आलोचक की यह शिकायत हर युग में बरकरार रही है कि उसे मापदंड के अनुरूप खरी रचनाएँ नहीं मिल रही हैं। रचना और आलोचना का एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का यह सिलसिला द्विवेदी युग से ही चला आ रहा है। इसीलिए विश्वास के साथ कहा जाता है कि रचना के मर्म को पहचानने की दिशा में आज का आलोचक आत्मविश्वास से हीन और संशय से परिपूर्ण है। नतीजा यह कि कुछ आलोचकों के द्वारा रचना ‘अलक्षित’ रह गयी तो कुछ आलोचकों के द्वारा पूरी की पूरी विधा ही अलक्षित है। दूसरी ओर, कुछ आलोचक रचना के मर्म को उसके काल और प्रकृति के अनुरूप पकड़ ही न पाए और ‘विलक्षित’ लिखते-बोलते रहे।

तो, रचना का ‘अलक्षित’ रह जाना और आलोचक का ‘विलक्षित’ होते रहना ‘लघुकथा’ के साथ लगातार हो रहा है। स्वनामधन्य आलोचकों की यह विलक्षणता ही कारण रही कि अन्तत: कुछेक लघुकथाकारों को रचनात्मक लेखन के साथ-साथ इस विधा की समीक्षा और आलोचना की कमान भी सँभालनी पड़ी।

समीक्षक के लिए, सबसे पहले यह जान लेना जरूरी है कि एकल रचना-समीक्षा में और समेकित रूप से संग्रह/संकलन की समीक्षा में अन्तर है। रचना लेखक के चिन्तन और अनुभव का एक पक्ष होती है, जबकि संग्रह उसका समेकित पक्ष। संग्रह में आकर लेखक के विषय वैभिन्य और उसके चिंतन की व्यापकता का पता चलता है जो कि एक-एक रचना के अलग-अलग छपने की वजह से गुप्त और प्राय: लुप्त भी रहता है।

कथाकार के लेखन में आई विविधता से उसके अनुभवों और संवेदन-बिंदुओं की पहचान का माद्दा आँका जाना चाहिए। लेकिन इससे अलग भी देखने में आता है। कथाकार कथ्य के स्तर पर बहुत प्रभावशाली होता है लेकिन उसका अनुभव संसार कुछेक बिंदुओं के ही इर्द-गिर्द चकराता रहता है। इस सत्य का पता उसके संग्रह की कथाओं से गुजरने पर ही समीक्षक को चल पाता है। दूसरी बात, कथाकार विषयों की भिन्नता का तो ढेर लगा लेता है, लेकिन उसकी प्रस्तुति में गहराई नहीं ला पाता। इसका कारण जो भी रहता हो, पाठकों के बीच रचना अपनी गहराई और व्याप्ति के बूते पर ही जगह बना पाती है, विषय की नवीनता मात्र के बूते पर नहीं।

संग्रह अमूमन दो प्रकार के होते हैं—पहला वह, जिसमें संग्रहीत रचनाएँ जीवन के अनेक आयामों को दर्शाती हों; और दूसरा वह, जिसमें संग्रहीत रचनाएँ जीवन के एक आयाम पर केन्द्रित होती हैं। जीवन के एक-एक आयाम पर केन्द्रित लघुकथा-संग्रह लिखने/प्रकाशित करने वालों में प्रमुख नाम पारस दासोत का है; उनके बाद मधुकांत, राजकुमार निजात, कमल चोपड़ा और अशोक भाटिया आदि का नाम आता है लेकिन सब के कार्य करने की शैली में अन्तर है। पारस दासोत, मधुकांत, राजकुमार निजात, अशोक भाटिया ने विषय केन्द्रित लघुकथाएँ लिखकर ही संग्रह प्रकाशित कराए हैं; जबकि कमल चोपड़ा ने स्वलिखित अनेक लघुकथाओं से विषय केन्द्रित लघुकथाओं को चुनकर संग्रहीत किया है। इस श्रेणी में विष्णु नागर के संग्रह ‘ईश्वर की कहानियाँ’ का भी नाम लिया जा सकता है।

1980 के आसपास तक कभी-कभार एकाध ग़ज़ल भी हम लिख लिया करते थे। गजल तो नहीं, शे’र किस्म की दो-चार लाइनें अब भी लिख लिया करते हैं। 1980 में लिखी एक ग़ज़ल का शे’र है—

ए मेरी ग़ज़ल की ज़मीन आ, तुझे मैं ग़ज़ल-सा सँवार दूँ।

मेरा  लफ्ज़  लफ्ज़ है  आइना,  तुझे आइने में उतार दूँ॥

यह बशीर बद्र साहब की एक ग़ज़ल से प्रेरित और प्रभावित था। इसे यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य यह बताना भर है कि लघुकथा का हर शब्द बोलता है। समीक्षक को उसके हर शब्द को इस दृष्टि से देखना चाहिए कि उसके प्रयोग का कोई खास तात्पर्य, कोई खास प्रयोजन तो लघुकथाकार के मस्तिष्क में नहीं रहा है। रोमांचित करने मात्र के लिए लेखक ने कथ्य से इतर प्रसंग जोड़कर, कथा-मसाला डालकर पाठक को भ्रमित करने की, बहकाने की तो कोशिश नहीं की है। यह बिंदु उन समीक्षकों के लिए नहीं है जो लघुकथा में ‘पंच’ लाइन के हिमायती हैं और जिनके लिए लघुकथा का प्रभाव उसकी पूँछ में निहित है, बाकी समूची काया बेकार है, बेमतलब है और पूँछ तक पहुँचने का माध्यम भर है। माना कि ‘पंच’ का महत्व है, लेकिन ‘पंच’ के आवश्यक होने का सिद्धांत लघुकथा के समग्र रूप से प्रभावशाली होने के सिद्धांत को आहत करता है।

कहा जाता रहा है कि लघुकथा का कथ्य एकांगी होना चाहिए। सचाई यह है कि लगभग आठवें दशक से यही बात कहानी के बारे में भी कही जाती रही है। ऐसे में, इन दोनों रचना-विधाओं के बीच अन्तर इतना महीन रह जाता है कि अनेक लघुकथाएँ कहानी और अनेक कहानियाँ लघुकथा होने का भ्रम उत्पन्न करती हैं। सचाई यह भी है कि सामान्य पाठक इस झमेले में नहीं पड़ता कि उसने लघुकथा पढ़ी है या कहानी। उसे तो ‘कथारस’ की अपनी सामान्य पिपासा को शांत करने वाली रचना चाहिए। उसे कुछ गुदगुदा तो कुछ चुभता अहसास चाहिए। इस अहसास को ‘कैश’ करने में सिद्धहस्त लोग ही अच्छी पाठक संख्या जुटा पाते हैं। हिट उपन्यास, हिट कहानी और हिट फिल्में यही दे पाते हैं। सामान्य से ऊपर का पाठक ‘कथारस’ की गुणवत्ता के प्रति सचेत रहता है। पाठकों की भीड़ से निकलकर वह थोड़ा अलग खड़ा नजर आता है। मानसिक खुराक के प्रति उसका रवैया संकेत में कहें तो यह है कि आज के समय में उसे ‘पानी’ नहीं, ‘बिसलरी’ चाहिए।

 आठवें दशक में (और उसके बाद भी) अनेक लघुकथाकार ‘घटना-प्रतिघटना’ प्रस्तुत करते रहे; यानी रचना के पूर्वार्द्ध में एक स्थिति का चित्रण करके उत्तरार्द्ध में उसके विपरीत स्थिति के चित्रण द्वारा मनुष्य की कथनी-करनी के दोगलेपन को जाहिर करते रहे हैं। लेकिन आठवें दशक के उत्तरार्द्ध से ही लघुकथाओं में रूपक का बड़ा सफल प्रयोग भी अनेक लघुकथाकार कर रहे हैं। इसकी शुरुआत किस लघुकथा या किस लघुकथाकार से मानी जाए, यह शोध का विषय है। ऐसी लघुकथाओं में मुख्य कथा के समांतर एक अन्य कथा अथवा घटना, विचार, द्वंद्व चलता है। समांतर चलने वाली कथा, घटना कई बार पूर्व प्रचलित होती है और कई बार नई भी गढ़ी जाती है। जैसी भी हो, उसका ‘नेक टु नेक’ सम्बन्ध मुख्य कथा से होता है; और प्रकारान्तर से वह उसकी व्याख्या-सखी कही जा सकती है। पृथ्वीराज अरोड़ा की ‘दया’, मधुदीप की ‘ऑल आउट’, संध्या तिवारी की ‘लेकिन मैं शंकर तो नहीं’ आदि को इसके उद्धरण स्वरूप देखा जा सकता है।

(शेष आगामी अंक में....)

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