(दिनांक 02 सितंबर 2020 से आगे...)
भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा
(तीसरी कड़ी)
समय-समय पर भारतीय व भारतेतर मनीषी साहित्य-चर्चा के प्रसंग में आकर्षण और आकर्षण-शक्ति, दोनों का उल्लेख करते रहे हैं। उदाहरणत: —
1- शब्द-रचना की चतुराई जितनी चित्ताकर्षक होती है, उतनी अर्थालंकार नहीं।–भामह
2- विषय-वस्तु को रूप-सम्पत्ति का गुण-सौन्दर्य सहृदय रसिकों के चित्त को आकृष्ट कर लेता है।–दंडी
3- …उक्तियों में विरोध और असम्भव का चमत्कार लोगों को बहुत आकर्षित करता है।—रामचन्द्र शुक्ल
4- …काव्य में घटना हमें निश्चय ही आकृष्ट करती है।… किन्तु इस आकर्षण का रहस्य घटना की क्रिया-प्रतिक्रिया में न होकर उसमें निहित मानस तत्त्व और भाव में होता है।—डॉ॰ नगेन्द्र
5- पाठक, कुछ तो घटनाओं के चयन से आकर्षित होता है; और कुछ उनके पारस्परिक संघटन कौशल से।—लोंजाइनस
6- विषयवस्तु प्राय: आकर्षणहीन और विकर्षक होती है; लेकिन लेखक उसे अपनी चारुता का स्पर्श प्रदान करता है।—दमित्रियस
नि:सन्देह, आकर्षण-शक्ति सार्वदेशिक और सार्काकालिक तत्त्व है जिसे किसी भी प्रकार के प्रचार के मान्यता प्राप्त है।
अधिकांशत: साहित्य के जिन सिद्धांन्तों की चर्चा और स्थापना की गयी है, वे सब के सब दार्शनिक दृष्टिकोण पर आधारित थे। कारण, प्राचीन युग में दर्शन को ही प्रमाण माना जाता था।
लेकिन आधुनिक युग में किसी भी सिद्धान्त की प्रामाणिकता दर्शन की बजाय मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में जाँचने की महती आवश्यकता थी, जिसे अनेक विद्वानों ने सम्भव बनाया है। कुल मिलाकर यह कि साहित्य और कलाओं की आकर्षक-शक्ति विश्व में व्याप्त शक्ति का ही रूप है। अन्य रूपों में वह क्षेत्र, स्तर और माध्यम की दृष्टि से ही अलग है, मूलभूत प्रवृत्तियों की दृष्टि से नहीं। जिस तरह कोई वैज्ञानिक विभिन्न भौतिक तत्त्वों में निहित शक्ति को जगाकर अपने लक्ष्य की पूर्त्ति करता है, उसी तरह साहित्यकार और कलाकार भी विभिन्न मानसिक भावों की शक्ति को जगाकर उसे ‘साहित्य’ का रूप प्रदान करता है। साहित्यकार की प्रयोगशाला उसका मानस है। शब्द, अर्थ और भाषा उसके माध्यम हैं तथा परिक्षण की प्रणाली अत्यन्त सूक्ष्म व अदृश्य है। साहित्यकार के मानस में घटित क्रियाओं को रसायन अथवा भौतिक शाला में किये जाने वाले प्रयोगों की तरह प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता, लेकिन उसकी आन्तरिक प्रक्रिया शक्ति के बाह्य और स्थूल रूपों के अनुरूप ही होती है।
साहित्यकार जिन द्रव्यों का उपयोग अपनी मानस-शाला में करता है, वे हैं—
1- भाव
2- विचार, और
3- कल्पना।
इनमें से किसी को भी वह कथ्य की आवश्यकतानुरूप धनावेशित, ॠणावेशित और न्यूट्रल बनाकर प्रयुक्त करने की क्षमता रखता है। यह क्षमता अभी तक वैज्ञानिकों को हासिल नहीं है। भाव और विचार के सम्पर्क में तो सामान्य जीवन में लगभग सभी मनुष्य रहते ही हैं; लेकिन कला और साहित्य की दुनिया से जुड़े मनुष्य कल्पना की शक्ति से भी लैस होते हैं। इस शक्ति की बदौलत सामान्यत: कटु, तिक्त और शुष्क विचार भी आकर्षक और ग्राह्य बन जाते हैं। यहाँ उल्लेखनीय यह है कि साहित्य में कोरे भाव, कोरे विचार अथवा कोरी कल्पना-शक्ति से आकर्षण-शक्ति का उद्दीपन सम्भव नहीं है। आकर्षण-शक्ति की प्रवृत्ति यह है कि वह विरोधी तत्त्वों के सम्पर्क से ही उद्दीप्त होती है, इसलिए भाव, विचार और कल्पना-शक्ति का एक-दूसरे के साथ सम्पर्क और सहयोग अपेक्षित है।
आचार्यों की स्थापना है कि सभी रचनाओं में भाव, विचार और कल्पना की मात्रा समान नहीं होती। किसी में भाव की प्रमुखता होती है तो किसी में विचार की; और किसी में कल्पना की। कोई भी दो तत्त्व सामान्यत: गौण र्हते हैं। इस भेद के कारण साहित्य की आकर्षण-शक्ति के भी तीन भेद हो जाते हैं—भावात्मक, बौद्धिक और कल्पनात्मक अथवा रूपात्मक। साहित्य की विषयवस्तु में इन तीन तत्त्वों में से किसी एक की प्रधानता के कारण उसकी भाषा-शक्ति में भी अन्तर आ जाता है। जिस रचना में विचार की प्रधानता होती है, वह अभिधात्मक; जिसमें भाव की प्रधानता होती है, वह लाक्षणिक तथा जिसमें कल्पना की प्रधानता होती है, वह स्वमेव ही व्यंजनात्मक हो जाती है।
साहित्य की आकर्षण-शक्ति रचनाकार और पाठक दोनों के मन में क्रमश: निम्न प्रक्रियाओं के रूप में कार्य करती है—
1- संयोजन
2- सम्प्रेषण
3- द्रवण, और
4- अभिव्यक्ति।
आकर्षण-शक्ति के कारण ही रचनाकार और पाठक की रुचि सर्वप्रथम विषयवस्तु में उत्पन्न होती है। उसके बाद विषय के साथ तादात्म्य स्थापित होता है जिसे सम्प्रेषण की प्रक्रिया कहा जा सकता है। सम्प्रेषण के दौरान क्रमश: द्रवण और अभिव्यक्ति की प्रक्रियाएँ सम्पन्न होती हैं जिनके द्वारा रचनाकार और पाठक की अन्तश्चेतना द्रवित होकर व्यक्त होने लगती है। साहित्यकार में यह द्रवण जहाँ रचना का रूप लेता है, वहीं पाठक में वह हर्ष, उल्लास, आनन्द और उद्वेलन की अभ्व्यक्ति के रूप में प्रकट होता है। प्राचीन और आधुनिक साहित्यशास्त्र का साधारणीकरण, तादात्म्य विवेचन, सम्प्रेषण, अभिव्यंजना आदि की क्रियाएँ इन्हीं चारों प्रक्रियाओं के विभिन्न पक्षों को सूचित करती हैं।
इस सिद्धान्त के अनुसार, साहित्य की आकर्षण-शक्ति साहित्यकार और पाठक के मन में क्रमश; चार प्रक्रियाओं के रूप में कार्य करती है—1- संयोजन, 2- संप्रेषण, 3- द्रवण, और 4- अभिव्यक्ति।
साहित्यिकता का मूल आधार साहित्यकार द्वारा उद्दीप्त आकर्षण-शक्ति ही है। रस वस्तुत: आकर्षण की ही व्यापक और गम्भीर अनुभूति है तो अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि आकर्षण की उद्दीप्ति के ही विभिन्न साधन हैं। यह आकर्षण-शक्ति ही काव्य की आत्मा अथवा साहित्य की शक्ति है। कहा गया है, कि—काव्य का सुन्दर होना ही पर्याप्त नहीं है, उसका आकर्षक होना भी आवश्यक है। उसमें ऐसी शक्ति होनी चाहिए कि श्रोता/पाठक के मन को जिधर चाहे, खींच सके।
शैली—शैली को भारतीय आचार्यों ने ‘विचारों का परिधान’ कहा है। शैली के दो तत्व हैं—1- व्यक्ति तत्व और 2- वस्तु तत्व। इनमें प्राय: प्रथम तत्व को ही प्रमुखता दी जाती है। शैली का प्रकटन रचनाकार के व्यक्तित्व, शब्द योजना और भाषिक प्रवाह से जुड़े अन्य तत्वों के योग से होता है। रचनाकार का व्यक्तित्व, वर्ण्य विषय और वातावरण आदि शैली को निर्धारित करते हैं। प्रत्येक रचनाकार की शैली में कुछ वैयक्तिक गुण होते है; बावजूद इसके कुछ ऐसे सामान्य तत्त्व भी रहते हैं जो किन्हीं वर्गों के अन्तर्गत आते हैं। भारतीय समीक्षा शास्त्र के अन्तर्गत शैलियों के प्रमुख भेद निम्नप्रकार हैं—
1- सरस शैली—यह शैली रस का निरूपण करती है।
2- मधुर शैली—इस शैली में संगीतात्मक शब्दों द्वारा कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति दी जाती है।
3- ललित शैली—इस शैली में कलात्मकता अधिक रहती है। इसमें चामत्कारिक कल्पना, सूक्ष्म वर्णन और आलंकारिक भाषा का प्रयोग किया होता है।
4- क्लिष्ट शैली—इस शैली में अस्पष्टता होती है यानी कि जब तक स्वयं रचनाकार ही व्याख्या न करके बता दे, रचना का अर्थ सुगम नहीं रहता।
5- उदात्त शैली—इसका गुण ओज है। वीरता और उत्साह आदि भावों की अभिव्यक्ति इस शैली में होती है।
6- व्यंग्य शैली—इस शैली में वाक्यार्थ गौण और निहितार्थ मुख्य होता है।
(शेष आगामी अंक में....)
1 टिप्पणी:
उत्तम जानकारी. धन्यवाद
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