(पाँचवीं कड़ी से आगे...)
भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा
(छठी कड़ी)
भाषा-कथन के सन्दर्भ में, किसी रचना में अभिव्यक्ति के प्रयोग की तीन प्रकार से
व्याख्या हो सकती है—
1- उद्देश्यपूर्ण अभिव्यक्ति
2- समानरूप से उद्देश्यपूर्ण प्रदर्शन अथवा संकेत और
3- मनोवैज्ञानिक आन्तरिक स्थिति।
इन मानसिक विचारों के अलावा तीन मुख्य सिद्धान्त और हैं जिनकी सहायता से ‘अभिव्यंजना’ की पहचान की जा सकती है। वे हैं—
1- जिसे अभिव्यक्त किया जाता है,
2- जो अभिव्यक्त करता है, तथा
3- जिसके माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता है।
इनमें प्रथम से सम्बन्धित एक और सिद्धान्त है जो किसी अभिव्यक्ति के बाह्याकार के प्रकटीकरण को यह समझता है कि मस्तिष्क से उसे बिल्कुल निकाल देना है। यह एक प्रभावपूर्ण बात है कि प्रभावों की अभिव्यक्ति और पहचानी हुई अभिव्यक्ति में जमीन-आसमान का अन्तर है।
रूपवाद—आकार या रूप किसी उद्देश्य की उस विशेषता को कहते हैं, जो अनुभव की गयी हो; या वह रचना, जिसमें किसी अनुभव या किसी वस्तु के तत्त्वों को संशोधित किया गया हो। कथा में शिल्प के महत्व को स्वीकार किया जाने को ‘रूपवाद’ अथवा ‘फार्मिज्म’ कहा जाता है। अरस्तु ने रूप को रचना के प्रमुख कारकों में गिना है। वे कहते हैं—रूप उन चार कारकों में एक है तो पूरी तरह किसी वस्तु के अस्तित्व का आधार होते हैं। वे कारक हैं—
1- उत्पादक
2- उद्देश्य
3- विषय, और
4- रूप।
इनमें उत्पादक और उद्देश्य बाह्य हैं और विषय तथा रूप आन्तरिक। विषय क्या है? वह, जिससे कोई वस्तु बनती है; और रूप वह है जो उसे आकार देता है। इसलिए रूप को केवल आकार न माना जाए, बल्कि आकार देने वाले कारक के तौर पर भी रेखांकित किया जाए। रूप केवल विशेषता नहीं है; बल्कि वह सिद्धान्त भी है जो रचना को विशेषता प्रदान करता है। इससे भी आगे अरस्तु कहते हैं कि ‘रूप वह सब-कुछ है जो उस विशेषता का निर्धारण करता है।’
तात्पर्य यह कि अर्थ या अभिव्यक्ति और रचना भी बाह्य तत्व हैं। इसप्रकार, किसी साहित्यिक कृति के विषय को सामान्य रूप में उसकी वस्तु के समान माना जाता है, जिसके लिए किसी कृति का अर्थ या एक सन्दर्भ होता है; और रूप तब केवल वही हो सकता है जो एक कृति की विशेषता में से उसका अर्थ निकाल देने के बाद शेष रह गया हो।
जिस विषय से कोई रचनाकार कुछ तैयार करता है, वह उसके समय, स्थान और परिवेश की भाषा होती है; लेकिन जब वह अपना कार्य कर रहा होता है, तब वह भाषा किसी भी तरह से रूपहीन विषय नहीं होती बल्कि वह स्वयं कला से उत्पन्न होती है। इसे यों समझिए कि ‘सेवा’ कार्य एक अलग क्रिया है और ‘सेवा’ भाव एक अलग क्रिया है। उदाहरण के लिए, जब एक सेवक अपना कार्य शुरू करता है, तब उसकी सामग्री बाह्य तत्वों से शुरू होती है; लेकिन ये चूँकि सदैव बाह्य तत्त्व रहते हैं, जैसाकि समाप्त हो गये उसके कार्य से लक्षित होता है, ये सब उस विषय का अंग मात्र हैं जो उसे स्पष्ट करते हैं।
अस्तित्ववाद—अस्तित्ववाद मूलत: एक दार्शनिक प्रणाली है, लेकिन साहित्य में भी इसका यथेष्ट प्रभाव दिखाई देता है। यह आध्यात्मिक संकट या गतिरोध या संक्रांति का दर्शन है। इस विचारधारा के अनुसार, हमारी आध्यात्मिक स्थिति के मूल में संकट विद्यमान है। अनुभवों द्वारा पोषित एक सत्य हजारों अनावश्यक सत्यों से आवेष्ठित रहता है जिसके परिणामस्वरूप वह जल्दी ही लुप्तप्राय: हो जाता है। उसे देख न पाने के कारण हम आधाररहित होकर समाज के प्रति आत्म-समर्पण कर देते हैं और परिस्थितियों का दास हो जाते हैं। एक आत्म-चेतनापूर्ण विचार सहस्रों कल्पनाओं में विलीन हो जाता है; जिसके कारण लक्ष्यविहीन अन्तश्चेतना अशान्त रहती है और कार्यक्षेत्र में एक क्षुद्र कायरता व्यर्थ के रोष के आवरण में क्रियाशील रहती है। इसप्रकार, आन्तरिक ज्ञान अन्धकारपूर्ण होता जाता है और अन्धश्रद्धा को कार्य का आधार मान लिया जाता है। इस दशा में भी संकट विद्यमान है। अस्तित्ववाद इस प्रकार के आध्यात्मिक संकट की बड़ी ही मौलिक व्याख्या करता है और संकट के इस अंधकार को प्रतिभा के सूर्य से दूर करने का यत्न करता है।
स्वच्छन्दतावाद और यथार्थवाद—प्रत्येक युग अपने पूर्ववर्ती सिद्धान्तों की प्रतिक्रिया पर आधारित होता है। यह प्रतिक्रिया एक संकट को जन्म देती है। कुल मिलाकर यह प्रक्रिया पिछले युग की मान्यताओं से स्वतन्त्र होने की क्रिया होती है। पिछली मान्यताओं की प्रतिक्रिया के आधार पर ही नयी मान्यताओं का जन्म होता है। इस प्रकार एक संक्रमण काल ऐसा भी आता है, जब प्राचीन पर से आस्था हट चुकी होती है लेकिन नवीन मान्यताओं पर बौद्धिक और भावनात्मक विश्वास पूरी तरह जम नहीं पाया होता है। यह संक्रमण काल ही संकट का समय होता है।
आज का संसार सैद्धान्तिक या क्रियात्मक क्षेत्र में से किसी भी कार्यविधि में सर्वमान्य आध्यात्मिक मूल्यों की सत्ता स्वीकार नहीं करता है। विचारकों के सम्मुख हमेशा एक चुनौती यह रहती है कि वे अमूर्त बौद्धिकता के स्थान पर नवीन सत्ता की स्थापना करें। उन्नीसवीं सदी के विचारकों ने इसके लिए दो मार्गों का आश्रय किया। एक था—आदर्शवाद और दूसरा था—प्रकृतिवाद।
आदर्शवाद अपने में निहित विचारों के अलावा किसी बाह्य सत्ता को नहीं मानता। इसके विपरीत, प्रकृतिवाद ज्ञान तथा दैवी-कृपा के स्थान पर वास्तविक संसार के सामाजिक और प्राकृतिक तथ्यों की सत्ता को मानता था। इसप्रकार पहले में विचार अपने सिद्धान्तों के अधीन थे और स्वयं को स्वच्छंद मानते थे, तो दूसरे में वे प्रकृति के अधीन थे। कला और साहित्य के क्षेत्र में यही दो धाराएँ स्वच्छंदतावाद और यथार्थवाद के रूप में प्रकट हुईं।
पराभववाद—उन्नीसवीं सदी के अन्त तक अत्याधिक दार्शनिक आकांक्षाओं के कारण आदर्शवाद समाप्तप्राय; हो चुका था अत: विचारकों ने प्रकृतिवाद यानी यथार्थवाद को अपना लक्ष्य बनाया। परन्तु इस अन्तर्दृष्टि की परम्परा भी अधिक विकसित नहीं हो सकी। इसप्रकार बीसवीं सदी ने पूर्ववर्ती विचारधाराओं की सत्ता से विचार तो हटाया, लेकिन नवीन विचारधारा का सृजन नहीं कर सकी जिस पर वह स्वयं आस्था रख सके। इस अनास्था ने एक ऐसे संकट को जन्म दिया जिसका ध्येय किसी नवीन विचारधारा का प्रणयन न होकर अराजकता को जानबूझकर स्वीकार कर लेना था। साहित्य और कला के क्षेत्र में इसका प्रभाव एक नयी तरह के सांस्कृतिक अनुभव के रूप में आया जिसके अन्तर्गत अपने आपको विभिन्न अमूर्त तथा मूर्त रूपों में गर्हित व कलुषित दिखाना श्रेयस्कर माना जाता था। यह विचारधारा एक ऐसे फैशन और रीति के रूप में आयी कि इसके अनुयायियों और विरोधियों, दोनों ने इसे ‘पराभववाद’ की संज्ञा दी। यह वाद कला और साहित्य के क्षेत्र में नवीनता और साहसिकता का पर्याय बनकर अवतरित हुआ।
जर्मन में इसी से अस्तित्ववाद का जन्म हुआ। अस्तित्ववाद जानबूझकर आशा के स्थान पर निराशा को प्रश्रय देता है और यह मानता है कि अन्तिम रूप से नष्ट होकर ही मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अस्तित्ववादी विचारधारा मनुष्य और उसके अस्तित्व के अलावा किसी अन्य बात पर ध्यान नहीं देती तथा सुख व शान्ति के लिए वस्तुस्थिति के प्रति आत्मसमर्पण को त्याज्य समझती है।
स्वतन्त्रतावाद—स्वतन्त्रता एक आवश्यकता है और उसी आवश्यकता से उसका जन्म होता है। हमारा समाज इस स्वतन्त्रता से ही शासित होकर परिवर्तनशीलता को ग्रहण करता है। यह परिवर्तनशीलता प्राय: ऊर्ध्वगामी होती है। हमारे समय की कितनी लघुकथाएँ इस सिद्धान्त से कहाँ तक शासित होती है, यह देखना रुचिकर हो सकता है।
हमें यह विश्वास नहीं है कि हम स्वतन्त्र हैं, लेकिन हम ऐसा व्यवहार करते है जैसेकि स्वतन्त्र हों। हमें यह विश्वास नहीं है कि हम निर्भीक हैं, लेकिन हम ऐसा व्यवहार करते है जैसेकि निर्भीक हों। अस्तित्ववादी यह विश्वास करते हैं कि भौतिकता, वह चाहे किसी मात्रा में क्यों न हो, मानव-मूल्यों को सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का दास बनाकर मानव-स्वतन्त्रता का हनन करती है। उनके अनुसार, स्वतन्त्रता वह परिस्थिति है जो मनुष्य को उसकी भौतिक परिस्थितियों से ऊपर उठने की क्षमता प्रदान करती है। इसे यों भी समझाया जा सकता है कि किसी व्यक्ति को एक स्थिति से अलग निकालकर उसी स्थिति पर विचारणीय दृष्टिकोण ग्रहण करने की क्षमता प्रदान करने वाली सम्भाव्यता का नाम ही स्वतन्त्रता है। अनेक विद्वान इस प्रक्रिया से असहमति जताते हुए कहते हैं कि व्यक्ति का अपनी ही स्थिति से निरपेक्ष रहकर सोच पाना सम्भव नहीं है। बावजूद इसके, अस्तित्ववादियों का विश्वास है कि मनुष्य ने निरन्तर प्रगति के द्वारा ऐसी सामर्थ्य अजित कर ली है कि वह अपनी स्थिति से ऊपर उठ सकता है। इस सामर्थ्य को वे चेतना अथवा बौद्धिक आत्मबोध नाम देते हैं।
इस ऊर्ध्वगामिता को भौतिक कसौटी पर नहीं परखा जा सकता।
अतियथार्थवाद—‘अतियथार्थ से यह तात्पर्य लगाया जाता है कि जो सत्ता यथार्थ होते हुए भी दिखाई न दे। इस सिद्धान्त के पैरोकारों के अनुसार, कला और साहित्य को पूरी तरह बौद्धिक नहीं होना चाहिए। उनका मानना है कि अतिशय बौद्धिक होने से मनुष्य की वैयक्तिक अनुभूतियों और अन्तर्विरोध के चित्रण की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं। आधुनिक सभ्य समाज में जिस नैतिक दृष्टिकोण को आदर्श समझा जाता है, वह निरर्थक है, यह मानते हुए वे नीति-विषयक आधुनिक मान्यताओं का विरोध करते हैं। इसीलिए, अतियथार्थवादियो पर स्वच्छन्दतावादी होने का आक्षेप लगता है जो किसी नैतिक बन्धक को नहीं मानते।
अतियथार्थवाद का उद्देश्य वस्तुत: यथार्थवाद को विस्तार देना था। उनके अनुसार—वह सामग्री, जिसका साहित्य में अब तक उपयोग नहीं हुआ है, उसका उपयोग करके ही साहित्यिक क्षितिज का विस्तार सम्भव है। कुछ लोग अतियथार्थवाद को रोमान्टिसिज्म का विकसित रूप मानते हैं। दोनों की बहुत-सी विशेषताएँ समान हैं; जैसे, समता के स्थान पर दोनों ही विषमता को अधिक प्रश्रय देते हैं। दोनों में बौद्धिकता के प्रति अविश्वास और मध्य-वर्ग को चौंकाने के प्रति आग्रह रहता है।
इनके अतिरिक्त भी बहुत-से सिद्धान्त हैं जो समीक्षा के क्षेत्र में प्रवर्तित हुए हैं, परन्तु उपर्युक्त सभी सिद्धान्त उन सब का भी प्रतिनिधित्व करने में सक्षम हैं। इन सिद्धान्तों को यहाँ प्रस्तुत करने का एक उद्देश्य यह बताना भर है कि साहित्य और कला के क्षेत्र में समय-समय पर नवीन दृष्टि के अनुसार परिवर्तन और विकास होता रहा है, आगे भी होता रहेगा। साहित्य में विभिन्न तत्त्वों की प्रमुखता प्रतिपादित करते हुए उन्हीं के अनुसार मूल्यांकन पर बल दिया जाता है। उदाहरण के लिए, यदि आदर्शवाद साहित्य में उदात्त तत्त्वों को अधिक महत्व देता है तो यथार्थवाद उसकी यथातथ्यता पर, अभिव्यंजनावाद यदि अभिव्यक्ति की शैली पर अधिक बल देता है तो रूपवाद उसकी बाह्य रूपात्मकता पर। अन्य भी सभी सिद्धान्त साहित्य के आन्तरिक अथवा बाह्य रूपों में किसी न किसी को प्रमुखता देते हैं।
(शेष आगामी अंक में....)
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