भारतीय एवं भारतेतर आचार्यों द्वारा प्रणीत समीक्षा बिन्दु और समकालीन लघुकथा
(पहली कड़ी)
आलोचना= आ + लोचना; यहाँ ‘आ’ के, कोश सम्मत दो अर्थ हम स्वीकार कर सकते हैं। पहला, ‘तक’ और दूसरा, ‘सहित’। आ-लोचन यानी लोचन तक अथवा लोचन सहित। इसमें लोचन ‘सहित’ का अर्थ तो स्पष्ट ही है; लोचन ‘तक’ से तात्पर्य यह कि आलोचना करने वाले की दृष्टि सिमटी और संकुचित नहीं होनी चाहिए बल्कि रचना के सुदूर क्षितिज ‘तक’ जानी चाहिए। वह रचना में जितनी दूर ‘तक’ और जितनी गहराई ‘तक’ जाएगी, उतनी व्यापक आलोचना रचना अथवा कृति की प्रस्तुत कर सकेगी। दृष्टि का अर्थ यहाँ अध्ययन और स्वाध्यायजनित निर्णायात्मिका बुद्धि समझना चाहिए। समालोचना शब्द आलोचना में ही ‘सम’ अव्यय जोड़कर बनाया गया है यानी देखे हुए में भेदभाव न किया जाकर दृष्टि को सम्यक् रखा जाए। स्पष्ट है कि कुछ आलोचकों द्वारा भेदभावपूर्ण व्याख्या किया जाना महसूस करने के बाद ही इस शब्द की उत्पत्ति की गयी होगी; बिल्कुल वैसे, जैसे ‘सम’ अव्यय को ‘ईक्षा’ में जोड़कर समीक्षा शब्द बनाया गया।
सम्यक् आलोचना में शास्त्र के साथ-साथ (अथवा उसके किनारे-किनारे चलते हुए) व्यवहार बुद्धि का भी समावेश किया जा सकता है, किया जाता है, किया जाना चाहिए। आलोचना और समीक्षा के बीच यह इतना महीन-सा परदा है कि ज्यादातर समीक्षकों और आलोचकों को तो इसके होने का आभास तक नहीं है। जिन्हें आभास है, वे उसके आर-पार निर्बाध आवाजाही करते हैं, उसके होने की ज्यादा परवाह नहीं करते।
समीक्षा और आलोचना में अन्तर
समीक्षा किसी रचना अथवा कृति में प्रस्तुत विषय तक सीमित रहती है; जबकि आलोचना तत्सम्बन्धी विषय और उसकी गहराई का आकलन करने के लिए उस छोर तक भी जाती है जो उस विषय पर कलम उठाने का सम्भावित कारण रहे हों, वह उस छोर तक भी जा सकती है जो छोर किसी कारण रचनाकार से छूट गया हो। कुल मिलाकर किसी भी कृति के सन्दर्भ में आलोचना उसकी समीक्षा की तुलना में एक विषद व्याख्या की प्रस्तुति है।
लघुकथा ही नहीं, समीक्षा का समूचा साहित्यिक परिदृश्य ही चिंताजनक है। ‘चिंताजनक’ शब्द का प्रयोग मैं उस अर्थ में नहीं कर रहा हूँ जिस अर्थ में लघुकथा के कतिपय समीक्षा-विद्वान करते रहे हैं। यह कि लघुकथा-समीक्षा का परिदृश्य पूरी तरह पक्षपातपूर्ण हो गया है। सबसे पहली बात तो यह कि ये बातें या तो वे विद्वान कर रहे हैं जो अपने सर्किल में इसके अभ्यस्त रहे हैं या वे जिनका रचना-पक्ष अत्यन्त कमजोर रहा है और आज भी कमजोर है। मेरा मानना है कि समीक्षा व्यक्ति की नहीं, रचना की होती है; और सही बात तो यह है कि अच्छी रचना अपनी समीक्षा स्वयं करा लेती है। जो भी हो, पक्षपातपूर्ण समीक्षा मेरे लिए उतनी बड़ी चिंता नहीं है, जितनी बड़ी यह कि समीक्षक समझे जाने वाले लोग समीक्षा के मूलभूत सिद्धांतों को जाने बिना समीक्षा के क्षेत्र में उतर रहे हैं। उनमें बहुतों का कहना है कि किसी भी कृति/कलाकृति का पहला मूल्यांकन जब हुआ होगा, तब समीक्षा के सिद्धांत बने ही कब थे? माना कि हर विधा का एक आदिम युग रहा होता है, लेकिन वह तो मानव जीवन का भी रहा होता है। इसका मतलब यह तो नहीं है कि अपने अब तक के अध्ययन और अन्वेषण की अवहेलना करके हम पुन: पाषाण युग में प्रविष्ट हो जायें, आदिम अवस्था में घूमने-फिरने लगें।
साहित्य हो या धर्म, वैयक्तिक, सैद्धान्तिक अथवा विचारधारापरक पक्षधरताओं और श्रद्धाओं से कोई भी क्षेत्र न पहले कभी अछूता रहा है न आगे कभी रहेगा। मौलिक चिन्तन की प्रवृत्ति या तो हममें से नदारद है या अत्यन्त शिथिल है। साहित्य और कला के क्षेत्र में संस्कृत आचार्यों द्वारा प्रतिपादित समीक्षा सिद्धांतों के कट्टर अनुयायियों की कमी आपको नहीं मिलेगी। बहुत सम्भव है कि ये लोग नवीन स्थापनाओं की ओर मुँह करके सोना भी पसन्द न करते हों। दूसरी ओर पाश्चात्य विद्वानों द्वारा निश्चित समीक्षा सिद्धांतों के अन्धानुयायी भी आपको भरपूर मिलेंगे। एक वाकया मुझे याद आता है—कथाकार शैलेश मटियानी के निधन के उपरांत एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन दिल्ली स्थित हिदी भवन में कथाकार-सम्पादक पंकज बिष्ट आदि ने किया था। साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े मुख्यत: कुमाऊँ के अनेक लेखकों व पत्रकारों ने मटियानी जी की प्रशंसा में कृतज्ञताज्ञापन किया। स्वयं पंकज बिष्ट ने कहा कि ‘सैद्धान्तिक मतभेद होते हुए भी मैं यह स्वीकार करता हूँ कि वह मेरे मानस गुरु थे’। लेकिन ऊँचे कद के एक मार्क्सवादी कवि ने कहा—‘मैं मटियानी जी के बारे में कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं हूँ क्योंकि उनका कुछ भी मैंने पढ़ा नहीं है।‘ यह बयान विचारधारात्मक जड़ता, सैद्धान्तिक पक्षधरता और उससे उपजी अन्धता की चरम स्थिति है जिसे मैं निकृष्ट कहना अधिक उपयुक्त समझता हूँ। यह दोनों ही तरफ है। पत्थरबाजी और मॉब लिंचिंग का यह प्रेरक तत्त्व है। इससे बचे हुए, ऐसे लोगों की संख्या लगभग नगण्य है, जिन्हें हम मौलिक या निष्पक्ष विचारक कह सकें।
इस आलेख में, इस दृष्टि से कि साहित्य और कला के सामान्य समीक्षक को भी भारतीय और भारतेतर दोनों ओर के आचार्यों द्वारा प्रतिपादित समीक्षा सिद्धान्तों का ज्ञान होना आवश्यक है, संक्षेप में, समझ लीजिए कि आलेख की सीमा के मद्देनजर संकेत रूप में, यहाँ कुछ बिन्दु प्रस्तुत हैं। इन्हें पढ़कर, जो लोग गहराई में जाने की जिज्ञासा महसूस करें, वे तत्सम्बन्धी विषय के गहन अध्ययन में उतर सकते हैं।
प्रसंगवश, एक बात और यहाँ स्पष्ट कर देना उपयुक्त समझता हूँ। गत दिनों कुछ आपत्तियाँ एकाएक हमारे सामने उपस्थित हुईं। हुआ यों कि डॉ. लता अग्रवाल के लघुकथा संग्रह 'मूल्यहीनता का संत्रास' की भूमिका स्वरूप लिखे मेरे लेख से निम्न पैरा 'मौन को मुखर करने वाली विधा है लघुकथा' शीर्षक के अंतर्गत सुभाष नीरव द्वारा उद्धृत किया था :
'लघुकथा, उपन्यास और कहानी से इस बिन्दु पर एक अलग विधा सिद्ध होती है कि इसमें पात्रों और परिस्थितियों का मौन मुखर होता है। उपन्यास में मौन को लगभग न के बराबर स्थान मिलता है। उसके सारे कार्य व्यापार मुखर होते हैं। कहानीकार भी मौन की भाषा को पाठक तक पहुंचाना लगभग भूल ही चुके हैं, लेकिन यदि लघुकथाकार भी मौन की भाषा को उस तक पहुंचाने के दायित्व का निर्वाह नहीं करेगा तो इस विधा के जीवित रह पाने का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा।'
इस पर सबसे पहला सवाल अपने आप को वरिष्ठ कहने वाले एक महाशय ने यह किया—‘यह मौन, मुखर क्या है? मुझे तो समझ में नहीं आता। बीच-बीच में लघुकथा पर ऐसे-ऐसे मुद्दे उठाये जाते हैं कि अच्छा-भला लघुकथाकार भी गुमराह हो जाता है।’
यह महाशय या तो वाकई मौन और मुखर को नहीं जानते थे; या फिर वह इस कथन पर तंज कस रहे थे। ये दोनों ही स्थितियाँ स्वयं उनके लिए स्वास्थप्रद नहीं थीं। इसके जवाब में सुभाष जैन ने उन्हें दो-टूक लिखा—‘जो व्यक्ति रचनाशीलता को समझता नहीं है वही गुमराह होता है। 'लघुकथा' में अंतर्ध्वनि होती है। वह शब्दों में प्रत्यक्ष पढ़ने में नहीं आती है। वह पढ़ने के बाद कुछ अलग हमें अनुभूत होता है। आजकल घटना, अनुभव, समाचार, छोटे घटनाचक्र को 'लघुकथा' के नाम से प्रस्तुत किया जा रहा है। इससे विधा को बहुत नुकसान हो रहा है।’
एक पाठिका ने लिखा—‘ये मौन या अंतर्ध्वनि ही लघुकथा की शोभा है…।
एक प्रबुद्ध आलोचक ने लिखा—‘कौन सी विधा है जो मौन को मुखर नहीं करती? शब्द, बॉडी लैंग्वेज, और वाणी तो अंतरतर के मौन के ही प्रकाशक हैं; बल्कि कविता में अज्ञेय ने तो दाँतों के बीच की सटी हुई दूरी को भी व्यंजना दी है। ...छायावाद की प्रकृति भाषा तो मौन का ही मुखर संगीत। पर इससे भी बड़ी बात यह कि इसी छायावादी कविताई ने मौन को भी वाणी दी है, सन्नाटे को भी भाषा दी।’
यह टिप्पणी में बहुत-कुछ अस्पष्ट है। अगर ‘छायावादी कविताई ने मौन को भी वाणी दी है, सन्नाटे को भी भाषा दी।’ तो स्वयं छायावादी कविता आज कहाँ है ? दूसरी बात, मात्र इस वजह से कि छायावादी कविता में यह गुण था, लघुकथा के इस गुण की चर्चा क्यों न की जाए? लघुकथा ने नये-पुराने सभी काव्याचरणों से यदि कुछ लिया है, तो मैं समझता हूँ कि यह उसका बड़प्पन ही माना जाना चाहिए; क्योंकि महत्वपूर्ण बिन्दुओं का उचित अनुसरण कोई सक्षम ही कर सकता है। हरेक के वश की बात यह नहीं है। यह बात व्यक्तियों, जातियों, कलाओं और सभी साहित्यिक विधाओं पर समान रूप से लागू होती है। अगर कोई पाठक यह महसूस करता है कि ‘मौन या अंर्तध्वनि ही लघुकथा की शोभा है’ तो तात्त्विक दृष्टि से इसे उसके अपनी साहित्यिक परम्परा से जुड़ाव की दृष्टि से देखा जाना चाहिए, न कि इस चिढ़ के साथ कि इसमें अलग या बड़ी बात क्या है?
(शेष आगामी अंक में... )
3 टिप्पणियां:
विवेचना ठीक स्वरूप ले रही है
लघुकथा की विवेचना का यह लेख अब गम्भीर रूप ले रहा है।
बहुत रुचिकर लेख है। इस लेख में आपका मौन भी मुखर हो उठा है।
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