रविवार, 13 मार्च 2022

सुख है एक छांव ढलती, आती है जाती है…/बलराम अग्रवाल

बेतरतीब पन्ने-12

कौन-सी फिल्म थी, जो मैंने सिनेमा हॉल में बैठकर देखी! असलियत में तो हॉल से बाहर भी कोई फिल्म लम्बे समय तक नहीं देखी थी। 'मुगल-ए-आजम' पहली फिल्म थी जिसका मैंने नाम सुना। उन दिनों कक्षा पाँच में था। बहस होती है कि 'अनारकली' काल्पनिक पात्र है या  वास्तविक? ध्यान से देखें, उसके पोस्टर पर ऊपर ही लिखा है--"अफसाने के हकीकत बनने की कहानी"।

उन दिनों, पेन्टर्स की सहायता से, आने वाली फिल्मों के विज्ञापन शहर की विभिन्न दीवारों पर लिखवाये जाते थे, पोस्टर्स चिपकवाये जाते थे। घोड़ा-गाड़ी और रिक्शों में माइक लेकर बैठा एक आदमी फिल्म के नाम का, उसमें काम करने वाले कलाकारों का नाम बताते हुए प्रचार करता; ग्रामोफोन पर रिकार्ड चलाकर उस फिल्म के गाने बजाता। किसी-किसी फिल्म के प्रचार के लिए तो पुरुष-नर्तकियाँ भी रिक्शा-घोड़ा-गाड़ी के आगे-आगे नाचती थीं।

बुलन्दशहर में शुरू-शुरू में मात्र दो फिल्म हॉल थे—न्यू रीगल टॉकीज और जगदीश टॉकीज। आने वाली अथवा चल रही फिल्मों के प्रचार की भाषा कभी-कभी बड़ी मजेदार हो जाया करती थी—“देखिए… देखिए… देखिए… जगदीश टॉकीज में… कोहिनूर! जी हाँ, कोहिनूर! कोहिनूर!! कोहिनूर!!! दिलीप कुमार और मीनाकुमारी की शानदार-जानदार अदाकारी का शाहकार… अपार भीड़ समेट रहा है—कोहिनूर! जनता की जबर्दस्त माँग पर रोजाना पाँच शो—कोहिनूर! कोहिनूर!! कोहिनूर!!!”

पाँच शो का मतलब हम सोचते थे—रोजाना पाँच सौ लोगों की एंट्री और दरवाजे बंद! ऐसे में मुझ जैसे सीकिया को कौन घुसने देगा!

हम समझते थे, महाराजा रणजीत सिंह के मुकुट वाला कोहिनूर महारानी विक्टोरिया से ले आया गया है और आम जनता को दिखाने के लिए जगदीश टॉकीज में रखा गया है। इच्छा होती थी कि अपनी उस ऐतिहासिक धरोहर को एक बार हम भी देखकर आएँ लेकिन घर में यह इच्छा जाहिर करने से डरते थे। अकेले जाना नामुमकिन नहीं था, लेकिन जगदीश टॉकीज घर से पर्याप्त दूरी पर था।

या फिर—“लग गई, लग गई, लग गई… आपके प्यारे, आपके चहीते… न्यू रीगल टॉकीज में… आग!... आग लग गई!! आग!!!...”

यहाँ पर अभद्र भाषा में लिखना उचित नहीं है कि न्यू रीगल टॉकीज हमारे घर से कितनी दूरी पर था; बस इतना समझ लीजिए कि वह बालिश्त-भर की दूरी पर था। बालिश्त-भर मतलब—साँस रोककर भागते थे तो सीधे न्यू रीगल पर जाकर ही छोड़ते थे। यह वाक्य सिर्फ दूरी का द्योतक नहीं है, तब के हमारे स्टेमिना का भी परिचायक है। तो घोषणा सुनते ही हमने लगा दी दौड़। जा पहुँचे न्यू रीगल।

‘आग’ के बड़े-बड़े बैनर लटक रहे थे। भीतर, फ्रेम्स में फिल्म के विभिन्न दृश्यों के फोटो लगे थे। खासी चहल-पहल थी। वहाँ जाकर ही पता चला कि शहर भर में चीख-चीखकर जो आदमी बोलता है कि न्यू रीगल में ‘आग’ लग गई, उसकी असलियत क्या है, ‘बिन बादल बरसात’ वहाँ कैसे होती है, ‘चांदी की दीवार’ कैसे खड़ी होती है, ‘कोहरा’ कैसे छाता है, ‘गंगा की लहरें’ कैसे किलोल करती हैं! वह एक अलग ही दुनिया थी, लेकिन घर के वातावरण और संस्कारों की बदौलत कभी चाह पैदा नहीं हुई कि भीतर जाकर देखें, वह दुनिया दिखती है!

उन दिनों बुलन्दशहर जैसे देहात-किस्म के नगरों के सिनेमाघरों में फिल्में मुम्बई और दिल्ली आदि महानगरों में रिलीज होने के दो-तीन वर्षों के बाद तब पहुँचती थीं जब उनका पूरा रस बदबदा चुका होता था। रस बदबदा चुकने से आशय है कि जब महानगरों के सिनेमाघरों में आने वाली भीड़ की संख्या में खासी कमी हो चुकी होती थी, और छोटे शहर के दर्शक की उत्तेजना फिल्मी पत्रिकाओं में छपी गॉसिप्स को पढ़-पढ़कर पूरे तनाव की हालत में पहुँच चुकी होती थी, तब उन फिल्मों के बड़े डिस्ट्रीब्यूटर्स के बड़े ठेकेदार, बड़े ठेकेदारों के अधीनस्थ छोटे ठेकेदार और उनके कारिंदे नगरों, उपनगरों आदि की ओर रुख करते थे।

फिल्मों के रोल्स के डिब्बे, कपड़ों के बड़े-बड़े बैनर और कागज के छोटे-बड़े पोस्टरों के पैकेट्स या तो ट्रांसपोर्ट के जरिये भेज दिये जाते थे या एजेंट्स खुद अपनी कारों में भी साथ लाते थे।

खैर, वह सब तो अलग ही इतिहास है; असल इतिहास तो यह बताना है कि पहली फिल्म मैंने कौन-सी देखी थी, कैसे देखी थी और क्यों देखी थी?…

(चित्र साभार)

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