सोमवार, 7 मार्च 2022

पत्रकारिता की खुजली वाले दिन और दैनिक बरनदूत /बलराम अग्रवाल

 बेतरतीब पन्ने-3


‘बरनदूत’ में दैनिक सामान्य पाठक की रुचि के मद्देनजर ‘आज का राशिफल’ और एक व्यंग्य कॉलम की शुरुआत की ताकि समाचारों के अलावा भी उसको कुछ मिलता रहे। ‘राशिफल’ लिखना लेशमात्र भी मुश्किल काम नहीं था। सालभर पहले के किसी अखबार में छपा राशिफल कम्पोजिटर को पकड़ा दिया जाता था। उसमें कलाकारी सिर्फ इतनी करते थे कि मेष का राशिफल वृष के, वृष का राशिफल मिथुन के, मिथुन का राशिफल कर्क के… नाम से कमोज करने को कह दिया जाता था। कुछ दिन बाद ही शास्त्री जी बताते लगे—“अग्रवाल जी, बाजार में कई व्यापारियों ने मुझसे कहा है कि आपके अखबार का राशिफल बड़ा एक्यूरेट आता है, कौन-से पंडित जी से लिखवाते हैं!” यों कहकर वह जोर से हँसे और मेरी हथेली से हथेली टकराई। ‘बरनदूत’ में छपे व्यंग्य भी जब पॉपुलर होने लगे, तब शिवकुमार शास्त्री एक दिन बोले, “बलराम भाई, व्यंग्य के कॉलम को क्यों न ‘ॠतुराज’ नाम से छापा जाए!” 

वह ‘ॠतुराज’ नाम से छिटपुट कविताएँ लिखा करते थे और प्रेस चलाने की टेंशन के चलते उन दिनों कुछ भी लिख नहीं पा रहे थे। मैं समझ गया कि ऐसा प्रस्ताव रखकर दरअसल वह अपनी जान-पहचान के स्थानीय पाठकों के बीच यह प्रदर्शित करना चाहते हैं कि व्यंग्य का कॉलम उनके द्वारा लिखा जा रहा है। लेकिन समझ जाने के बावजूद मैंने मना नहीं किया, सहमति दे दी। कारण, मैं अपनी क्षमताओं को पहचानता था और मुख्यत: लघुकथा में ही आगे बढ़ना चाहता था। यही नहीं, व्यंग्य के विस्तार की समझ से मैं अपरिचित भी था। नवम्बर 1977 में केन्द्र सरकार की नौकरी में चला गया तो ‘बरनदूत’ को सक्रिय सहयोग बंद कर देना पड़ा। मेरे बाद वहाँ के॰ पी॰ सिंह आ गये जो बाद में मेरी ही तरह पोस्ट ऑफिस में नियुक्ति पा गये और ‘बरनदूत’ उनसे भी छूट गया। के॰ पी॰ सिंह के बाद प्रमोद कुमार झा बाकायदा नियुक्त होकर आए और लम्बे समय तक वहीं जमे रहे। वहीं रहते उनका विवाह हुआ। विवाह के बाद एक अलग संघर्ष में उनको उतर जाना पड़ा। दिल्ली में यातनापूर्ण दिन बिताने पड़े। कलम का धनी पत्रकार होते हुए भी समर्थ लोगों से जानकारी के अभाव में खारी बावली में पल्लेदारी करके जीविका कमानी पड़ी।

खैर, बुलन्दशहर छूट जाने के कई साल बाद गाजियाबाद के एक कार्यक्रम में शास्त्री जी मिल गये थे। बोले, “बलराम भाई, अखबार के लिए सामग्री का बड़ा अभाव रहता है, सो बात तो अलग है; मुख्य बात यह है कि आज भी अदल-बदलकर हम आपके लिखे व्यंग्यों को छाप लेते हैं।” 

मैंने इस सूचना में कोई दिलचस्पी नहीं ली। एक बार भी उनसे नहीं कहा कि ‘बरनदूत’ की प्रति भिजवा दिया करो। क्योंकि मैं ‘बरनदूत’ में लिखे-छपे अपने व्यंग्यों की कमजोर वास्तविकता से तब भी परिचित था और आज भी हूँ। वस्तुत: जिन लोगों में कुछ लिखने के जरिए नाम कमाने की जिजीविषा रहती है, और जो धनेच्छा भी नहीं छोड़ पाते हैं, आश्चर्य नहीं कि वो अन्तत: परजीवी हो जाते हों। शास्त्री जी बेशक मेरे लिखे व्यंग्यों को बार-बार छापते रहे होंगे लेकिन अपने ही छद्मनाम ‘ॠतुराज’ से। गत दिनों पता चला कि कुछ माह पूर्व उनका देहांत हो गया। ईश्वर उनकी आत्मा को सद्गति प्रदान करे।

अनेक लेखकीय नामों को अपनाते-छोड़ते अन्तत: लगा कि मूल नाम का कोई विकल्प नहीं, इससे बेहतर कोई ऑप्शन नहीं; और इसी पर ही आ टिके। 

अब 2022 में पुन: इस नाग ने फन उठाया है। उसके दबाव में कई बार मन बनाया है कि कोई लेखकीय नाम रख ही लिया जाए। क्यों? मन शायद एक बार फिर इस सचाई को मानने लगा है कि बलराम से मुक्ति का अर्थ एक दम्भ से मुक्ति का नाम है। अत: इस नाम से वह भागने-सा लगा है। मानने-सा लगा है कि मूल नाम को लेखक बने रहने का अधिकार नहीं है। मूल नाम पर बेहद लापरवाह, डरपोक और आलसी; घर-परिवार के मोह में फँसा रहने वाले आदमी के ग्रह-नक्षत्र हावी हैं। उस पर परिवार की घर-घुस्सू यानी संकुचित परम्परा का अधिकार अधिक है, मुक्त परम्परा का कम। 

अगर यह सच है तो क्या रखा जाए नया नाम? वह, जो मुक्त परम्परा का पर्याय हो और मूल नाम के अधिक निकट भी—बल्लू बलराम! नहीं। इसमें साहित्यिकता की झलक नहीं है। यह लेखक का कम, किसी पिटे हुए क्रिकेटर के नाम का आभास अधिक देता है। इससे अच्छा तो ‘चन्ना चरनदास’ था जो अब नहीं रखा जा सकता। तो फिर मकरंद रखा जाए यानी मधु! जोकि गत लगभग 15 से भी अधिक साल से मुझमें मेह-सा बरसता है, बसता है—मधुमेह! क्या रखा जाए… क्या रखा जाए… क्या रखा जाए…? मंथन नहीं, बेचैनी है जो जारी है।

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